मूर्ख दिवस पर संकट

गरिमा संजय दुबे
एक बार फिर मूर्ख दिवस आसन्न है, और यकीन  कीजिए किसी को मूर्ख बनाने और निंदा करने में जो परमानन्द है उसके आगे सकल सुख बौने है। वैसे इस दिवस का इतिहास अज्ञात है, कब किसने किसको पहली बार मूर्ख बनाया इसका कोई प्रमाण नहीं है। मनुष्य तो वैसे भी अनंत शक्तियों का स्वामी है और इस ज्ञान का उद्भव उसकी शक्तियों का प्रमाण। तो इस ज्ञान की सर्वव्यापकता देख समाज विज्ञानियों ने इसके लिए एक दिन निर्धारित कर दिया  सोचा इसे क्यों न एक उत्सव बना दिया जाए और इस दिन खुलकर सब एक दूजे को मूर्ख बनाएं बाकी दिन नहीं। गोया उन्हें लगा कि किसी एक दिन को निर्धारित कर देने पर बाकी दिन कोई किसी को मूर्ख नहीं बनाएगा।
 
यह तो ठीक वैसा उपचार है, जैसे बिगड़ैल बेटे की शादी कर दो तो वह सुधर जाएगा, शादी से बिगड़ैल बेटे कब सुधरे हैं जो मूर्ख बनाने वाले सुधरते। तो भैया मूर्ख दिवस पर कोई मुर्ख बनाए न बनाए, बाकी के दिन तो यह धंधा अपने पूरे शबाब पर रहता है। मूर्ख दिवस पर तो फिर भी लोग सतर्क रहते हैं कि कोई मामू या बकरा न बना दे, लेकिन मूर्ख बनाने में बड़े शोध करने वाले बाकी के 364 दिन में से कभी भी सर्जिकल स्ट्राइक कर देते हैं, और आप उसका प्रमाण न मांग सकते हैं न पा सकते है।
 
बाजार जरूरत पैदा कर खरीदार को मूर्ख बना रहा, विद्यार्थी शिक्षकों को चकमा दे रहे हैं , सरकारी कर्मचारी तो मूर्ख बनाने में सिद्धहस्त हैं। नेता का इस विधा पर विशेष अधिकार है। पुत्र और पुत्रियां प्रेम प्रसंग में अपने उन माता पिता को मूर्ख बना रहे हैं जो उनके प्रेम विद्यालय के प्रिंसिपल रह चुके हैं। गोया कि हमाम में सब मूर्ख हैं, और हर कोई एक दूसरे को मुर्ख समझने की खुशफहमी पाले है। नेताओं को तो वैसे भी जन्मसिद्ध अधिकार मिला है सबको मूर्ख बनाने का, यह अलग बात है कि अब नेताओं में कुछ कुछ नेता हीनता दिख रही है। लेकिन जनता इतने वर्षों तक मूर्ख बनती रही है तो सहसा नेता के नए कलेवर पर यकीन नहीं कर पा रही है। वह तो दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है कि तर्ज पर सोच समझ कर आगे बढ़ रही है।
 
हर दिन हर कहीं हर कोईं किसी न किसी को निशाना बना अपनी मूर्खपारायणता पर मुग्ध हो रहा है। उधार लेने वाले तकाज़ा करने वालों को तो अनंतकाल से मूर्ख बना रहें है और उनके इस रिकॉर्ड को कोई तोड़ नहीं पाया। वैसे यह दिवस मनाया इसलिए जाता है कि देखा जाए किसमें कितनों को मूर्ख बनाने की ताकत है, और साथ भी यह भी शोध किया जाए कि देश में कितने मूर्ख हैं जो हर समय मुर्ख बनते रहे हैं। ताकि अगली जनसंख्या गणना में उनका भी एक कॉलम हो, जिसने सबसे अधिक लोगों को मुर्ख बनाने में विशेष योग्यता प्राप्त की हो, उसका सार्वजनिक सम्मान हो। और बेचारे जो मूर्ख बनते ही रहे हैं, उनके कल्याण हेतु एक विभाग बनाया जाए। 
 
मूर्खता के इस श्राप का दंश झेल रहे इन बेचारों के उद्धार के लिए नीतियां बनाई जाए। इनकी संख्या जानने के लिए एक सर्वे करवाया गया। इस सर्वे के नतीजे चौकाने वाले हैं, जैसे हर सर्वे के होते हैं, इंसानों में मूर्ख बनने की प्रवत्ती तेजी से घट रही है, इंदौरी भाषा में कहूं तो सब चतरे हो गए हैं। मै चिंता में हूं कि अगर यही हाल रहा तो मूर्ख दिवस के अस्तित्व का क्या होगा।
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