लिबरल्स की दुखती रग पर देशभक्ति के पग

अमित शर्मा
अक्षय कुमार को अपनी फि‍ल्म "रुस्तम" के लिए नेशनल अवार्ड क्या मिला, लिबरल खेमे में रुदाली शुरू हो गई। वैसे लिबरल खेमे के लिए दुःख की बात यह है कि अक्षय कुमार को नेशनल अवार्ड देने का निर्णय अप्रैल में लिया गया, अगर यही निर्णय मार्च में ले लिया जाता, तो सारे लिबरल्स "मार्च-एंडिंग" में आउटरेज और रुदाली के अपने टारगेट को बेहतर बना सकते थे। लिबरल्स की भावपूर्ण रुदाली देखकर अक्सर मुझे लगता है कि अगर 1993 में बनी क्लासिकल आर्ट मूवी "रुदाली" में डिंपल कपाड़ि‍या, राखी और राज बब्बर की जगह लिबरल खेमे की "एक्सपर्ट रुदालियों" को लिया जाता, तो उनको भी एक दो नेशनल अवार्ड्स मिल सकते थे। 
 
दरअसल प्रॉब्लम "अक्षय" से नहीं है बल्कि लाख प्रयास करने के बावजूद भी राष्ट्रवाद की भावना "क्षय" ना होने से है। आलोचकों का कहना है कि अक्षय का अभिनय नेशनल अवार्ड के लायक ही नहीं था। इससे अच्छा अभिनय तो केजरीवाल जी 16000 रुपए की एक प्लेट खाकर भी आम आदमी होने का कर लेते हैं, फिर भी "स्वराज" के अलावा किसी अवार्ड की मांग नहीं करते है। आलोचकों के अनुसार नेशनल अवार्ड "दंगल" के लिए आमिर खान को या फिर अलीगढ़ के लिए मनोज वाजपेयी को मिलना चाहिए था। आमिर खान ने "इनटोलरेंस" को लेकर जो बयान दिया था, उसके बाद तो लिबरल्स को आमिर से "स्नैप-डील" करते हुए भारत-रत्न दिलवाना चाहिए, ना कि नेशनल अवार्ड। जहां तक मनोज वाजपेयी का सवाल है, वे पुण्य प्रसून वाजपेयी के बाद दूसरे "वाजपेयी" हैं जो लिबरल्स को पसंद आए हैं और मेरी राय में यह "बहुत ही क्रांतिकारी" है। वैसे सोचने वाली बात है कि लिबरल हमेशा "एंटी-नेशनल" बाते करते हैं, तो फिर उनको "नेशनल" अवार्ड से तकलीफ नहीं होनी चाहिए। 
 
"अमन की आशा" के सौदागर, नेशनल अवार्ड की घोषणा के बाद से अक्षय कुमार को निशाना बना रहे हैं, लेकिन फिर भी उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान "निशाने-ए-पाक" मिलने की उम्मीद कम ही नजर आ रही है। क्योंकि दुर्भाग्य से पाकिस्तान में जेएनयू की कोई ब्रांच नहीं है, जो लिबरल्स नामक प्रजाति का प्रमुखता से उत्पादन और पोषण करती हो।
 
इस बात में कोई शक नहीं है कि अक्षय कुमार ने पिछले कुछ समय से हॉलिडे, एयरलिफ्ट, बेबी और रुस्तम जैसी फिल्मों से बॉलीवुड में देशभक्ति की मशाल जलाई है, और इसके लिए वो बधाई के पात्र हैं। लेकिन इस मशाल से उनको प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की नहीं सुलगानी चाहिए थी। पुराने जमाने के मशहूर देशभक्त एक्टर  मनोज "भारत" कुमार हर मूवी में अपने चेहरे पर हाथ रखने के लिए जाने जाते थे, लेकिन अक्षय कुमार अपनी फि‍ल्मी देशभक्ति से लिबरल्स की "दुखती रग" पर हाथ रख रहे हैं। 
 
प्रखर राष्ट्रवाद के इस दौर में लिबरल खेमे को डरने और घबराने की बिल्कुल जरूरत नहीं है, क्योंकि अगर देशभक्त खेमा कहे कि "मेरे पास मनोज कुमार है, अक्षय कुमार है", तुम्हारे पास क्या है ?" तो वो भी पलट कर जवाब दे सकते हैं कि, "मेरे पास रविश कुमार है।" 
 
वैसे लिबरल्स की इस बात के लिए भी तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया, कि उन्हें असली देशभक्ति से ही नहीं बल्कि फि‍ल्मी देशभक्ति से भी तकलीफ है। वे "रील" और "रियल" में कोई अंतर नहीं करते हैं। यह बात उन लोगों के लिए एक सीख और सबक है, जो कहते नहीं थकते कि फिल्में समाज का आईना होती हैं और फिल्में बहुत कुछ बदल सकती हैं,  क्योंकि इतनी देशभक्ति की फिल्में आने के बाद भी लिबरल्स का देशभक्ति का "डोप-टेस्ट" नेगेटिव ही आता है।
 
वैसे लिबरल्स और प्रगतिशील बुद्धिजीवी दिल के बुरे नहीं है, क्योंकि दुर्भाग्य से उनका दिल भी हिंदुस्तानी (भले ही धड़कता किसी और के लिए हो) ही है, इसलिए अक्षय कुमार चाहे तो उनको खुश करने के लिए ज्यादा कुछ ना करे, केवल पाकिस्तानी कलाकारों को बॉलीवुड में काम करने की छुट देने या फिर पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के साथ कोई मैत्री सीरीज खेलने संबधी बयान दे दें।
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