श्रीकृष्ण सच्चे अर्थों में लोकनायक हैं

ललि‍त गर्ग
भगवान श्रीकृष्ण हमारी संस्कृति के एक अद्भुत एवं विलक्षण महानायक हैं। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसकी तुलना न किसी अवतार से की जा सकती है और न संसार के किसी महापुरुष से। उनके जीवन की प्रत्येक लीला में, प्रत्येक घटना में एक ऐसा विरोधाभास दि‍खता है जो साधारणतः समझ में नहीं आता है। यही उनके जीवन चरित की विलक्षणता है और यही उनका विलक्षण जीवन-दर्शन भी है। ज्ञानी-ध्यानी जिन्हें खोजते हुए हार जाते हैं, जो न ब्रह्म में मिलते हैं, न पुराणों में और न वेद की ऋचाओं में, वे मिलते हैं ब्रजभूमि की किसी कुंज-निकुंज में राधारानी के पैरों को दबाते हुए - यह श्रीकृष्ण के चरित्र की विलक्षणता ही तो है कि वे अजन्मा होकर भी पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। मृत्युंजय होने पर भी मृत्यु का वरण करते हैं। वे सर्वशक्तिमान होने पर भी जन्म लेते हैं कंस के बंदीगृह में। 
 
श्रीकृष्ण ने मनुष्य जाति को नया जीवन-दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई। उनकी जीवन-कथा चमत्कारों से भरी है, लेकिन वे हमें जितने करीब लगते हैं, उतना और कोई नहीं। वे ईश्वर हैं पर उससे भी पहले सफल, गुणवान और दिव्य मनुष्य है। ईश्वर होते हुए भी सबसे ज्यादा मानवीय लगते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण को मानवीय भावनाओं, इच्छाओं और कलाओं का प्रतीक माना गया है। वे अर्जुन को संसार का रहस्य समझाते हैं, वे कंस का वध करते हैं, लेकिन उनकी छवि एक सखा की है जिसे यमुना के किनारे ग्वाले के साथ शरारत या गोपियों के साथ रास रचाते देखा जाता है। श्रीकृष्ण सच्चे अर्थों में लोकनायक हैं, जो अपनी दैवीय शक्तियों से द्वापर के आसमान पर छा नहीं जाते, बल्कि एक राहत भरे अहसास की तरह पौराणिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में बने रहते हैं। दरअसल, श्रीकृष्ण में वह सब कुछ है जो मानव में है और मानव में नहीं भी है! वे संपूर्ण हैं, तेजोमय हैं, ब्रह्म हैं, ज्ञान हैं। इसी अमर ज्ञान की बदौलत उनके जीवन प्रसंगों और गीता के आधार पर कई ऐसे नियमों एवं जीवन सूत्रों को प्रतिपादित किया गया है, जो कलयुग में भी लागू होते हैं। जो छल और कपट से भरे इस युग में धर्म के अनुसार किस प्रकार आचरण करना चाहिए, किस प्रकार के व्यवहार से हम दूसरों को नुकसान न पहुंचाते हुए अपना फायदा देखें, इस तरह की सीख देते हैं। जन्माष्टमी के अवसर पर हमें उनकी शिक्षाओं एवं जीवनसूत्रों को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। 
 
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी एवं बहुरंगी है, यानी बुद्धिमत्ता, चातुर्य, युद्धनीति, आकर्षण, प्रेमभाव, गुरुत्व, सुख, दुख और न जाने और क्या? एक भक्त के लिए श्रीकृष्ण भगवान तो हैं ही, साथ में वे जीवन जीने की कला भी सिखाते है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं से भारतीय-संस्कृति में महानायक का पद प्राप्त किया। एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकांड पंडित थे। धार्मिक जगत में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान-कर्म-भक्ति का समंवयवादी धर्म उन्होंने प्रवर्तित किया। अपनी योग्यताओं के आधार पर वे युगपुरुष थे, जो आगे चलकर युवावतार के रूप में स्वीकृत हुए। उन्हें हम एक महान् क्रांतिकारी नायक के रूप में स्मरण करते हैं। वे दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म और सांख्य योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्ध के नीति निर्देशक थे किंतु सरल-निश्छल ब्रजवासियों के लिए तो वह रास रचैया, माखन चोर, गोपियों की मटकी फोड़ने वाले नटखट कन्हैया और गोपियों के चितचोर थे। गीता में इसी की भावाभिव्यक्ति है - हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस भावना से भजता है मैं भी उसको उसी प्रकार से भजता हूं।
 
श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है। वह द्वारिकाधीश भी है किंतु कभी उन्हें राजा श्रीकृष्ण के रूप में संबोधित नहीं किया जाता। वह तो ब्रजनंदन है। समाज व्यवस्था उनके लिये कर्तव्य थी, इसलिए कर्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिए उसे कभी नकारा नहीं। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे।
 
वास्तव में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास के लिए ही नहीं, विश्व इतिहास के लिए भी अलौकिक एवम आकर्षक व्यक्तित्व है और सदा रहेगा। उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिए अपने जन्म से लेकर निर्वाणपर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अंत: एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था वह किसी वाणी अथवा लेखनी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमा में नहीं आ सकता। 
 
यूं लगता है श्रीकृष्ण जीवन-दर्शन के पुरोधा बनकर आए थे। उनका अथ से इति तक का पूरा सफर पुरुषार्थ की प्रेरणा है। उन्होंने उस समाज में आंखें खोलीं जब निरंकुश शक्ति के नशे में चूर सत्ता मानव से दानव बन बैठी थी। सत्ता को कोई चुनौती न दे सके इसलिए दुधमुंहे बच्चे मार दिए जाते थे। खुद श्रीकृष्ण के जन्म की कथा भी ऐसी है। वे जीवित रह सकें इसलिए जन्मते ही माता-पिता की आंखों से दूर कर दिए गए। उस समय के डर से जमे हुए समाज में बालक श्रीकृष्ण ने संवेदना, संघर्ष, प्रतिक्रिया और विरोध के प्राण फूंके। महाभारत का युद्ध तो लगातार चलने वाली लड़ाई का चरम था जिसे श्रीकृष्ण ने जन्मते ही शुरू कर दिया था। हर युग का समाज हमारे सामने कुछ सवाल रखता है। श्रीकृष्ण ने उन्हीं सवालों का जवाब दिए और तारनहार बने। आज भी लगभग वही सवाल हमारे सामने मुंह बाए खड़े हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि श्रीकृष्ण के चकाचौंध करने वाले वंदनीय पक्ष की जगह अनुकरणीय पक्ष की ओर ध्यान दिया जाए ताकि फिर इन्हीं जटिलता के चक्रव्यूह से समाज को निकाला जा सके। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व धार्मिक इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। उनकी संतुलित एवं समरसता की भावना ने उन्हें अनपढ़ ग्वालों, समाज के निचले दर्जे पर रहने वाले लोगों, उपेक्षा के शिकार विकलांगों का प्रिय बनाया। 
 
श्रीकृष्ण का चरित्र अत्यंत दिव्य है। हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है। जो सबको अपनी ओर आकर्षित करे, भक्ति का मार्ग प्रशस्त करे, भक्तों के पाप दूर करे, वही श्रीकृष्ण है। वह एक ऐसा आदर्श चरित्र है जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवैज्ञानिक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृजवासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं। उनके जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वैश्वर्य सम्पन्न थे। धर्म की साक्षात मूर्ति थे। 
 
श्रीकृष्ण जन्मोत्सव सामाजिक समता का उदाहरण है। उन्होंने नगर में जन्म लिया और गांव में खेलते हुए उनका बचपन व्यतीत हुआ। इस प्रकार उनका चरित्र गांव व नगर की संस्कृति को जोड़ता है, गरीब को अमीर से जोड़ता है, गो चरक से गीता उपदेशक होना, दुष्ट कंस को मारकर महाराज उग्रसेन को उनका राज्य लौटाना, धनी घराने का होकर गरीब ग्वाल बाल एवं गोपियों के घर जाकर माखन खाना आदि जो लीलाएं हैं ये सब एक सफल राष्ट्रीय महामानव होने के उदाहरण हैं। कोई भी साधारण मानव श्रीकृष्ण की तरह समाज की प्रत्येक स्थिति को छूकर, सबका प्रिय होकर राष्ट्रोद्धारक बन सकता है। कंस के वीर राक्षसों को पल में मारने वाला अपने प्रिय ग्वालों से पिट जाता है, खेल में हार जाता है। यही है दिव्य प्रेम की स्थापना का उदाहरण। भगवान श्रीकृष्ण की यही लीलाएं सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रप्रियता का प्रेरक मानदण्ड हैं। 
 
अध्यात्म के विराट आकाश में श्रीकृष्ण ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊंचाइयों पर जाकर भी न तो गंभीर ही दिखाई देते हैं और न ही उदासीन दीख पड़ते हैं, अपितु पूर्ण रूप से जीवनी शक्ति से भरपूर व्यक्तित्व हैं। श्रीकृष्ण के चरित्र में नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है आवश्यकता पड़ने पर युद्ध को भी स्वीकार कर लेने की मानसिकता। धर्म व सत्य की रक्षा के लिए महायुद्ध का उद्घोष है। एक हाथ में बांसुरी और दूसरे हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर महाइतिहास रचने वाला कोई अन्य व्यक्तित्व नहीं हुआ संसार में। श्रीकृष्ण के चरित्र में कहीं किसी प्रकार का निषेध नहीं है, जीवन के प्रत्येक पल को, प्रत्येक पदार्थ को, प्रत्येक घटना को समग्रता के साथ स्वीकार करने का भाव है। वे प्रेम करते हैं तो पूर्ण रूप से उसमें डूब जाते हैं, मित्रता करते हैं तो उसमें भी पूर्ण निष्ठावान रहते हैं, और जब युद्ध स्वीकार करते हैं तो उसमें भी पूर्ण स्वीकृति होती है।
 
स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर जितना स्वस्थ खुलापन श्रीकृष्ण के यहां है वह ‘भूतो न भविष्यति’ के दर्जे का है। आज के समाज को इस पर चिन्तन करते हुए स्त्री-पुरुष संबंधों में बढ़ रही दूरियों को कम करने के प्रयास करने चाहिए। महिलाओं के लिए श्रीकृष्ण के विचार आज के तथाकथित प्रगतिशाली विचारों से कहीं ज्यादा ईमानदार और असरदार थे। उन्होंने अपनी बहन सुभद्रा का विवाह उनकी इच्छा के मुताबिक अर्जुन से कराया। नरकासुर नाम के अत्याचारी राजा को मार कर उसकी 16 हजार बंधक स्त्रियों को समाज में वापस सम्मानजनक दर्जा दिलाने के लिए उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकारा।
 
श्रीकृष्ण ग्रामीण संस्कृति के पोषक बने हैं। उन्होंने अपने समय में गायों को अभूतपूर्व सम्मान दिया। वे गायों एवं ग्वालों के स्वास्थ्य, उनके खान-पान को लेकर सजग हैं। उन्होंने जहां ग्वालों की मेहनत से निकाला गया माखन और दूध-दही को स्वास्थ्य रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया वही इन अमूल्य चीजों को ‘कर’ के रूप में कंस को देने से रोका। वे चाहते थे कि इन चीजों का उपभोग गांवों में ही हो। श्रीकृष्ण का माखनचोर वाला रूप दरअसल निरंकुश सत्ता को सीधे चुनौती तो था ही, लेकिन साथ ही साथ ग्रामीण संस्कृति को प्रोत्साहन देना भी था।
 
श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव-जन्माष्टमी पर आज भी जनमानस में उल्लास-उमंग देखी जा सकती है। मन्दिरों में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ घर-घर में व्रत आदि रखकर भक्ति का अभूतपूर्व प्रदर्शन किया जाता है। ‘झूला झुलाना’ इस दिन की एक विशेष धार्मिक क्रिया है, जो इस दिन करना पुण्यशाली माना जाता है। रात को बारह बजे पूजा-आरती के पश्चात पंजीरी का प्रसाद बांटा जाता है, इस दिन ‘दही-हांडी’ फोड़ना एक ऐसा खेल है, जो मुंबई से प्रारंभ होकर आज समूचे राष्ट्र में खेला जाता है।
 

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