और भी गम हैं इंजीनियरिंग के, भ्रष्टाचार के सिवा...!

संजय वर्मा
हालिया बारिश में इंदौर के डूबने का ठीकरा एक बार फिर नगर निगम के इंजीनियरों अफसर और नेताओं के भ्रष्टाचार पर फोड़ा गया। इसमें क्या शक है कि पुल, सड़कें, इमारतें बनाने में जमकर रिश्वत ली दी जाती है। यह भी सही है कि भ्रष्टाचार का विरोध होना चाहिए पर मुश्किल यह है कि इस सालाना स्यापे की वजह से इंजीनियरिंग की समझ और तकनीकी योग्यता जैसे बुनियादी सवाल पीछे छूट जाते हैं। कोई यह सवाल नहीं कर रहा कि जिन लोगों पर शहर की जिम्मेदारी है क्या उनके पास संबंधित विषय की पढ़ाई ट्रेनिंग और योग्यता है। हमारे यहां भ्रष्टाचार इतना ओवररेटेड है की प्रोफेशनल एक्सीलेंस की बात कोई नहीं कर रहा।

स्टॉर्म वाटर प्लानिंग या बारिश के पानी को शहर से बाहर निकालना एक तकनीकी मामला है। यह डिजाइन कुल बारिश और शहर के कंटूर प्लान के आधार पर बनाई जाती है। थोड़ी सी बारिश में शहर के डूबने की वजह सिर्फ भ्रष्टाचार नहीं इंजीनियरों की नाकाबिलियत भी है। कान्ह नदी सफाई के नाम पर नाला टैपिंग कर वाह वाही लूट रहे इंजीनियर अधिकारियों ने ये सोचा ही नहीं कि ये नाले जो बारिश का पानी ले जाते थे उसे अब कौन ले जाएगा?

स्टॉर्म वॉटर प्लानिंग जैसे विशेषज्ञता के मामले को हमने उसी इंजीनियर के भरोसे छोड़ दिया है जिसके जिम्मे बगीचे बनवाना हो। यह वैसा ही है जैसे किसी आंख के डॉक्टर से ओपन हार्ट सर्जरी करवाना। स्टॉर्म वाटर ही क्यों ट्रैफिक डिजाइन जैसा महत्वपूर्ण काम भी अधपढ़े अधिकारियों के जिम्मे है जो मधुमिलन चौराहे का नीम हकीम इलाज कर रहे हैं। ये तमाम काम असल में अर्बन प्लानिंग में पोस्ट ग्रेजुएशन किए इंजीनियरों के जिम्मे होना चाहिए पर हमारे यहां नगर निगम के ज्यादातर इंजीनियर डिप्लोमा पास हैं।

हर मुश्किल को भ्रष्टाचार पर डालकर बरी होने वाला मीडिया और समाज यह बुनियादी सवाल क्यों नहीं कर रहा कि जब शरीर के अलग-अलग अंगों के विशेषज्ञ डॉक्टर होते हैं तो इंजीनियरिंग में ऐसा क्यों नहीं हो रहा? अब भी बांध बनाने से लगाकर रेल लाइन डालने तक एक ही डिग्री काफी है। एक डॉक्टर कॉन्फ्रेंस और सेमिनार के जरिए सारा जीवन खुद को लगातार अपडेट करता रहता है जबकि अधिकांश इंजीनियर कॉलेज से निकलने के बाद फिर कभी किताब को हाथ नहीं लगाते।

समाज भी सिविल इंजीनियरिंग को उतना महत्व नहीं देता जितना मेडिकल या किसी दूसरी विशेषज्ञता को। सिविल इंजीनियरिंग गरीब की जोरू है जिसे भौजाई मान हर कोई मजाक करता है। ज्यादातर मकान बगैर किसी इंजीनियर किसी अनपढ़ ठेकेदार की सलाह पर बना लिए जाते हैं। बंदर के हाथ में यह उस्तरा कभी-कभी जानलेवा साबित होता है। हाल ही में इंदौर के पास एक निर्माणाधीन फार्म हाउस की छत गिरने से सात मजदूर मारे गए। फार्म हाउस बनाना पैसे वालों का शगल है, इसलिए यह माना जा सकता है कि कंस्ट्रक्शन में ना तो पैसों की बचत की गई होगी ना ही कोई भ्रष्टाचार हुआ होगा। यह हादसा सिर्फ बनाने वालों की बेअक्ली और निकम्मेपन की वजह से हुआ।

पिछले दिनों कई पुल बनते बनते टूट गए तो हम सबने फिर भ्रष्टाचार का रोना रोया। किसी ने सवाल नहीं किया कि  सिविल इंजीनियरिंग में जब फैक्टर ऑफ़ सेफ्टी तीन के बराबर लिया जाता है, तब दस बीस प्रतिशत की चोरी से पुल कमजोर तो हो सकता है, लेकिन इतना नहीं की बनते बनते टूट जाए यह इसलिए भी होता है क्योंकि इस काम को करने के लिए इन लोगों के पास ना तो संबंधित शिक्षा होती है ना ट्रेनिंग।

इंदौर मुंबई मार्ग पर गणेश घाट आता है। यहां आए दिन तीखे ढलान की वजह से एक्सीडेंट होते हैं। अब तक सैकड़ों लोग मर गए पर जिस इंजीनियर ने यह ड्राइंग बनाई उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई।

पिछले 25 सालों में से जारी रियल स्टेट की बूम की वजह से कंस्ट्रक्शन में लगने वाले मजदूर कारीगर सुपरवाइजरों की जबरदस्त मांग आई, मगर किसी ने नहीं सोचा इतने लोग कहां से आएंगे और इसके लिए क्या किसी किस्म की ट्रेनिंग या पढ़ाई की आवश्यकता है। होना तो यह चाहिए था कि नर्सिंग या पैथोलॉजी टेक्नीशियन की तर्ज पर कंस्ट्रक्शन सुपरवाइजर और कारीगरों जैसे तमाम कोर्स बनाए और सिखाए जाते पर ऐसा नहीं हुआ परिणाम यह है कि तमाम कंस्ट्रक्शन साइट्स अनपढ़ जाहिलों के भरोसे छोड़ दी गई है। हम स्कूल कालेजों में अल्लम गल्लम पढ़ा रहे हैं पर हमने इमारतें बनाने के हुनर का इंस्टीट्यूशनलाइजेशन नहीं किया।

बेईमान लोग बुरे होते हैं पर इस दुनिया को बर्बाद करने में ईमानदार मूर्खों का भी उतना ही हाथ है। मुश्किल यह है कि भारत ने चरित्र का पैमाना सिर्फ पैसों की ईमानदारी और सेक्स को ही माना है। जबकि जो काम आप कर रहे हैं उसे करने लायक ज्ञान या हुनर नहीं सीखना भी एक चारित्रिक दुर्गुण माना जाना चाहिए। हमने प्रोफेशनल एक्सीलेंस कभी महत्व नहीं दिया।

भ्रष्टाचार का विरोध जरूर कीजिए पर इंजीनियरिंग समेत तमाम विषयों में विशेषज्ञों की जरूरत पर भी बात कीजिए। सिर्फ भ्रष्टाचार के लिए नहीं नाकाबिलियत के लिए भी सजा होना चाहिए।

मीडिया को चाहिए कि भ्रष्टाचार का हल्ला मचाने के साथ बुनियादी सवाल भी पूछे और समझे। मगर वह ऐसा नहीं करेगा क्योंकि दूसरों को बेईमान घोषित कर खुद हायर मॉरल ग्राउंड हासिल करने की बीमारी पूरे भारत की सोच में आ गई है और मीडिया उससे अछूता नहीं है।
Edited by Navin Rangiyal

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