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मोहताज नहीं था सियासत का पंछी, उड़ गया! पिंजरा लेकर…

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

सियासी परिंदे मोहताज नहीं होते किसी पार्टी के बंधन में बंधे रहने के लिए, वे जब चाहेंगे तब नया आशियाना बनाएंगे और जब चाहेंगे उड़कर नया ठिकाना बना लेंगे।

बड़े-बड़े सियासी पण्डित बनें या ज्योतिषी बनकर राजनीति का हाथ देखें किन्तु राजनीति कब कौन सी करवट ले किसी को भी पता नहीं चल सकता।

सत्ता पर हर समय दो धारी तलवार लटकती ही रहती है जब चाहे तब वार हो सकता है।आखिर पिंजरे में कब तक परिंदे को कैद कर रखा जा सकता था? परिंदे में उड़ने का साहस हो तो वह लम्बी उड़ान भर सकता है, उसके लिए तो सारा आसमां खाली पड़ा हुआ है।

यह तो बड़े ही गजब की बात है कि लोकतंत्र के होते हुए भी इधर पंछी को पिंजरे में कैद करके भी रखना है।
उधर जब दाना-पानी की बारी आएगी तब उसे बोल देना है कि यह दाना तो घाघ परिंदे के लिए रिजर्व हो चुका है, अब भई! ऐसे में कैसे काम चलेगा?

इतना ही नहीं जब कभी भी परिंदा अपनी आवाज उठाएगा तो उसे ऊपर से घुड़कियां मिलेंगी और आप यह चाहोगे कि लानत-मलानत सहते हुए स्वाभिमानी परिंदा पिंजरे में कैद रहकर आपके सुर में सुर मिलाएगा तो यह बड़ी ही बेमानी वाली बात होगी।

एक तो आप सियासी परिंदे खाने को अपनी जागीर समझकर जब चाहा -जैसे चाहा वैसे रिमोट कंट्रोल की तरह जो मनमर्जी आई वही करते रहते हो और दूजे जब भी कोई दमदार परिंदा दिखा तो उसका सारे घाघ मिलकर शिकार करने पर लग जाते हो तो यही हाल होवेगा।

लेकिन मिसेज और मिस्टर आप यह भूल गए थे कि यह परिंदा जबरदस्त इनोसेंट और इनोवेटिव बन्‍दा है जो आपके खेल का शातिर और माहिर खिलाड़ी था।

इसके मास्टरस्ट्रोक के आगे आप सभी नतमस्तक हो जाते थे, तभी तो वर्षों से बण्टाधार के कारण खोया हुआ किला आप फतह कर पाए।

किन्तु फिर आपने ईनाम में क्या दिया? सिर्फ स्वाभिमान को ठेस और घुड़कियां, अब आपय बताइए कि ऐसे कैसे चलेगा?

आपके हालात कुछ यूं हैं- ‘सियासत के नित नए नक्शे बिछाते हो, मगर चुपके से सियासत की नब्ज काट देते हो’
जब हाल ये रहेंगे तो बदहाली तो आएगी और यह महामारी सबकुछ चौपट करके चली जाएगी।

लोकतंत्र का कबूतर अब ज्यादा घुड़की नहीं सुनता और न ही चिठ्ठियां पहुंचाता है, उसे पालतू बनाकर पालने का जमाना कब का चला गया।

परिंदेखाने पर पुस्तैनी कब्जा जमाकर अपने साम्राज्य के छोटे-छोटे किलेदारों को अब उंगली पर नचाना उतना आसान तो नहीं ही रह गया, क्योंकि अब लोकतंत्र का जोकतंत्र यही कहता है कि तुष्टीकरण और परिवारवाद का अंत नजदीक है जिसमें धीरे-धीरे सारे किलेदार बगावत करने पर उतारू हैं।

बात इस्तीफे की उठी थी तो इस्तीफों की ऐसी झड़ी लगी कि राजनैतिक दिल वाले दुल्हनिया ले उड़े और सभी मुंह ताकते रह गए।

लगभग अब आपके साम्राज्य के खासमखास सिपहसालार की किलेदारी भी छिनने वाली है क्योंकि जिन परिंदों की वजह से किलेदारी मिली थी वे अब पराए हो चुके हैं, भले ही कितना भी फड़फड़ाइए अब किलेदार चारो खाने चित्त हो चुका है।

शह और मात के खेल में अब बची है एक अंतिम चाल और खेल खतम-पैसा हजम वाला शो टेलीकास्ट होने ही वाला है।

मानना पड़ेगा कि परिंदे ने भी क्या जबरदस्त खेल खेला है कि पूरा का पूरा पिंजरा लेकर उड़ गया, जैसे ही पिंजरा उड़ा वैसे ही परिंदेखाने के सारे स्वामीभक्त, इस परिंदे पर वाणी से कटुप्रहार करने में लग गए।

जो कल तक पूजते थे वे आज तरह-तरह की अपमानजनक शब्दावलियों से नवाजने लग गए हैं, हालांकि इसमें भी स्वामीभक्त दिखलाने की पुरजोर कोशिश ही है।

इसीलिए कहते हैं कि सियासी परिंदों को इतना भी न छेड़िए कि तन्हाई में सारी रात गुजारनी पड़े। ये सियासी इण्ट्री इतनी धमाकेदार और एक्सट्रा क्यूरियोसिटी से लबरेज रही कि ड्रामेटिकल हैप्पिनेस इंडेक्स जांचने वाले सारे के सारे पैमाने टूट गए लेकिन गहराई माप नहीं पाए।

होली का रंग कुछ ऐसा बिखरा कि नए आशियाने में होली-दीवाली एक साथ मना ली गई तो वहीं परिंदेखाने में मातम पसर गया।

इसी के साथ अब होटल-रिसॉर्ट्स पॉलिटिक्स का खेल शुरू हो चुका है और दर्शक दीर्घा पर बैठी हुई जनता लुत्फ उड़ाने में लग गई है।

अब भी किलेदार की किलेदारी कुछ दिन के लिए बची हुई है, इसलिए किलेदार अपने ट्रांसफर उद्योग के पुराने बिजनेस को अंजाम देने और सत्ता वाले परिंदों पर विभिन्न प्रकार के कुटिल दबाव बनाने का खेल चलाकर अपनी राजनैतिक कुंठा का बदला लेने की राह पर बढ़ चुका है।

आगे अब जो होगा, सो देखा जाएगा और देखेंगे कि सत्ता का सेहरा किसके सर बंधेगा, लेकिन अब लगभग यह तय सा हो चुका है कि परिंदेखाने की  उम्र ज्यादा दिन की नहीं बची है।

इधर लोकतंत्र का जोकतंत्र हमसे बोल रहा है कि तुम भी किसी परिंदे के मंत्रालय से सम्पर्क करो जिससे तुम्हारी भी कोई सीट पक्की हो जाए और फिर हम और तुम मिलकर इस डेमोक्रेसी की खबीसनवीसी का धड़ल्ले से टेलीकॉस्ट करेंगे!!

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