'करुणा' नहीं बची, हां हममें भी 'करुणा' नहीं बची....

स्मृति आदित्य
सरेआम हत्या भी अब विचलित नहीं करती.....  

राजधानी दिल्ली, एक लड़की, एक लड़का, टूटी हुई कैंची, लड़की पर लगातार वार, 50 से अधिक नपुंसक दर्शक, और जिंदगी खत्म.....टीवी पर जब इस तरह की घटनाएं आती हैं तो एक कैप्शन चलता है तस्वीरें आपको विचलित कर सकती है लेकिन लगता है शायद अब उसकी जरूरत नहीं..जब सरेराह कोई हत्या को अंजाम देता है तो हम विचलित नहीं होते तो भला टीवी पर भी यह औपचारिकता क्यों? अब कोई कमजोर दिल वाला नहीं रहा। हर कोई हत्या का 'लाइव' दृश्य देख सकता है। निर्लिप्त भाव से बिना किसी बेचैनी के....


यही तो हुआ दिल्ली की कल की नृशंस घटना में। करुणा नामक लड़की ने शादीशुदा सुरेन्द्र मलिक के प्रेम प्रस्ताव को नहीं माना जिसका नतीजा उसे अपनी जान देकर भुगतना पड़ा। इससे पहले भी वह उसे लगातार परेशान करता रहा लेकिन 'घर की इज्जत' जैसे शब्द के नाम पर हर बार करुणा को ही चुप रहने के लिए कहा गया। यहां तक कि जब पुलिस में मामला चला गया था तब भी इसी 'इज्जत' के नाम पर समझौता कर लिया गया।

फिलहाल सवाल इस पर नहीं है कि प्रेम का विकृत रूप और कितना घिनौना हो सकता है। सवाल हमारी संज्ञाशून्यता पर है। सवाल हमारी निरंतर कम होती संवेदनशीलता पर है। सवाल बढ़ती संवेदनहीनता पर है, सवाल दिनों दिन क्षरित होती मानवीयता पर है। क्या 50 लोग मिलकर हिम्मत और अक्लमंदी का परिचय नहीं दे सकते थे अगर सचमुच मदद करना चाहते तो..... यही 'सचमुच की मदद' ही हमारी नियत दर्शाती है कि क्या हम वाकई निस्वार्थ भाव से किसी की जान बचाने को तत्पर हो सकते हैं? सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति की हिम्मत की आवश्यकता थी जो अपनी जान की परवाह किए बगैर करुणा की जान बचाने को अपना फर्ज मानता पर वास्तविकता यही है कि हमें अपनी ही जान प्यारी है। अपना ही भला-बुरा हमें दिखता है। देश के लिए और महिला सुरक्षा के लिए बड़ी-बड़ी बातें करना आसान है लेकिन वास्तविक रूप में जब अपनी नियत को प्रमाणित करने का अवसर मिले तो हमारा खून नहीं खौलता बल्कि हम खौल में मुंह छुपा लेते हैं।

लगे हाथ दूसरे प्रसंग पर भी चर्चा कर लें : बड़ा आसान है यह कहना कि उरी के जवानों की पवित्र शहादत का बदला युद्ध से लेना ही चाहिए लेकिन क्या हम युद्ध के लिए अपने स्तर पर आवश्यक बलिदान के लिए तैयार हैं? जब सचमुच यह युद्ध की आपदा हम पर आएगी तो क्या हमारी देशभक्ति तब भी वैसी ही रहेगी जैसी अभी है? क्या तब भी हम अपने कष्टों और संघर्षों के मुकाबले देश के हित को सर्वेपरि रखकर देख सकेंगे, जैसे हमारे अमर सेनानी कर सके...

दो अगल-अलग मुद्दे हैं जिन्हें एक करके नहीं देखा जा सकता लेकिन यही वह वक्त भी है हम आंखें खोल कर देखें कि जब हमें अपनी जांबाजी दिखाने का, अपनी बहादुरी को दर्शाने का सही और उपयुक्त अवसर मिलता है तब हम क्या करते हैं? यही ना कि हम पहले अपने आपको देखते हैं.... अपनी जान अपने अस्तित्व की चिंता करते हैं....

फिलहाल व्यथित हूं कि दिल्ली की करुणा नहीं बची और मान लीजिए कि हां हममें भी अब 'करुणा' नहीं बची....और सुनिए चैनल वालों, सरेराह हत्या भी अब हमें विचलित नहीं करती..... मत कीजिए तस्वीरें 'ब्लर' .. (?)
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