कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार क्यों विचलित नहीं करते?

डॉ. शिबन कृष्ण रैणा
पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर ‘कश्मीर डायरी’ नाम का कार्यक्रम देख मुझे लगा कि इस कार्यक्रम के बारे में मुझे कुछ कहना-लिखना चाहिए। इससे पहले कि मैं लिखने का मन बनाता, इसी कार्यकम के बारे में फेसबुक पर बड़ी ही सुंदर और सटीक पोस्ट पढ़ने को मिली। बात कुछ इस तरह से है:
 
जिस रिपोर्टर/एंकर ने इस कार्यक्रम को प्रस्तुत किया वह 1990 से ही, यानी जब से कश्मीरी पंडितों का वादी से विस्थापन हुआ, कश्मीर आती-जाती रही हैं और वहां के राजनीतिक-सामाजिक जीवन से जुड़े मसलों और अन्य आतंकी गतिविधियों को कवर करती रही हैं। पंडितों के दुख-दर्द और उनकी पीड़ाओं को कम और वादी में रह रहे बहुसंख्यकों पर हुई भारतीय सेना द्वारा की गई कथित ज्यादतियों का वर्णन अधिक।
 
भारत-विरोधी नारों, छाती पीटती औरतों, मारे गए जिहादियों की शव-यात्राओं, अलगाववादी नेताओं के देश और सेना-विरोधी बयानों आदि को इस रिपोर्टर ने खूब उजागर किया है। विडंबना देखिए। यह सब-कुछ उसे कश्मीर में दिखा, मगर भाईचारे के गीत गाने वाले कश्मीरी कवि पंडित सर्वानंद कौल ‘प्रेमी’ की जिहादियों द्वारा आंखें फोड़ने के बाद जघन्य हत्या कर दी गई और उसके बेटे समेत दोनों की लाशों को पेड़ पर लटकाया गया, यह बात उसको कवर करने लायक नहीं लगी।
 
मेरे सहपाठी रहे श्रीनगर दूरदर्शन के पूर्व निदेशक लस्सा कौल की उनके दफ्तर के बाहर की गई निर्मम हत्या या फिर स्वर्गीय बालकृष्ण गंजू की अपनी जान बचाते हुए चावल के ड्रम में आतंकियों द्वारा बर्बरतापूर्वक की गई हत्या आदि ऐसी जघन्य घटनाएं हैं जो इस रिपोर्टर को तनिक भी विचलित नहीं कर पाईं। पंडितों के साथ ऐसी अनेक हृदय-विदारक घटनाओं को इसने एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। इन घटनाओं पर कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई पैनल डिस्कशन नहीं और कोई जुम्बिश नहीं।
 
सूत्रों के अनुसार 1990 में पंडित-समुदाय की संख्या वादी में साढ़े तीन लाख थी जो अब सिमटकर मात्र दस हजार के करीब रह गई है। बाकी के तीन लाख चालीस हज़ार कहाँ गए, क्यों कर गए? इससे इनका कोई लेना-देना नहीं। वे जम्मू और अन्य जगहों पर लू में तपते शरणार्थी कैम्पों में अमानवीय परिस्थितियों में रह रहे कश्मीरी पंडितों के दुख-दर्द और उनकी त्रासद स्थितियों को देखने नहीं जातीँ, बल्कि आए दिन खुशनुमा मौसम में कश्मीर जाकर वहां के बहुसंख्यकों का आतिथ्य स्वीकार कर उनकी बातों को सामने लाना ज्यादा मुनासिब समझती हैं।
 
अभी हाल ही के अपने ‘कश्मीर-डायरी’ कार्यक्रम में इस महिला-एंकर (रिपोर्टर) ने एक नया शिगूफा छोड़ा। ’विस्थापित पंडित वादी में अपने मुस्लिम भाइयों/परिवारों के साथ रहें तो वादी में अमन-चैन और सौहार्द की फिजा कायम होगी'। एक मुस्लिम परिवार के घर में ‘सौहार्द-बैठक’ को आयोजित किया गया जिसमें चुने हुए सहभागियों से भाई-चारे, सुख-शांति और सौहार्द की बातें कहलवाई गईं, जिसे देखकर साफ़ लग रहा था कि यह ‘नाटक’ प्रायोजित ही नहीं एंकर के अपने मतलब के लिए था।
 
सीधी-सी बात है, पंडितों को अगर वादी में भाईचारे और शांति-सद्भाव का माहौल दीखता होता तो वे अपना घरबार छोड़कर भागते ही क्यों? उन्हें जिहादी मारते ही क्यों? गौर करने वाली बात यह है कि जिस वादी में आए दिन ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’, ’हमें क्या चाहिए? आज़ादी’ आदि के नारे लगते हों, जिस श्रीनगर शहर में हर शुक्रवार को पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते हों, जहां के अलगाववादी नेता कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग मानने को तैयार न हों, जहां पर हर दूसरे-तीसरे दिन जिहादियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच मुठभेड़ होती रहती हो, जहां के नेता कश्मीरी पंडितों को अलग से बसाने और सैनिक कॉलोनियों का निर्माण करने के विरोध में धरने-प्रदर्शन करते हों, वहां पर एंकर पंडितों को यह पाठ पढ़ाए कि वे वादी में आकर बहुसंख्यकों यानी मुस्लिम भाइयों के साथ गले में बाहें डालकर रहने का मन बनाएं, एक बचकानी और तर्कहीन अवधारणा लगती है। एंकरजी वहां पर रह सकती हैं। सुना है उनकी वहां पर करीबी रिश्तेदारियां हैं।
 
‘सौहार्द बैठक’ में सहभागी मट्टू साहब से जब एंकर ने पूछा कि ‘आप पहले दिल्ली में रहते थे, अब आपको यहां अपने मुस्लिम भाइयों के साथ रहना कैसा लगा रहा है?’ तो मट्टू साहब जवाब देते हैं: ‘वहां मैं छब्बीस वर्षों तक रहा बिलकुल असहाय-सा। खून के आंसू पीता रहा। अब यहां अपने मुस्लिम भाइयों के साथ रहना बहुत अच्छा लग रहा है।’ कहने की आवश्यकता नहीं कि मट्टू साहब अपने समय में जम्मू-कश्मीर के वन विभाग में ऊंचे ओहदे पर रहे हैं और श्रीनगर की पॉश कॉलोनी गोगजी बाग़ में उनका आलीशान बंगला है। ऊपर से उनका बेटा प्रो. अमिताभ मट्टू, जो पहले जम्मू विश्वविद्यालय के वीसी हुआ करते थे, आजकल महबूबा मुफ़्ती सरकार के सलाहकार हैं। कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला हुआ है। उनको और उनके परिवार को क्या गम है? पूरी सुरक्षा और चौकसी मिली हुयी है। 
 
वे लोग कश्मीर के खुशनुमा मौसम का आनंद लेते हुए ‘सौहार्द’ की बात नहीं करेंगे तो कौन करेगा? बैठक में भाग लेने वाले अन्य महानुभावों श्री संदीप मावाजी, जुनैदजी आदि के भी कश्मीर में रहने के अपने-अपने हित हैं जिन्हें एंकर ने बखूबी अपने पक्ष में बुलवाया। (लेखक भारत सरकार की विधि और न्याय मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति के गैर-सरकारी सदस्य हैं)
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