प्रेम दिवस पर सदा के लिए प्रेम-पथिक हो जाएं

प्रज्ञा पाठक
अपने आसपास के लोगों में प्राय: हम कृपणता का भाव देखते हैं। यह कृपणता उनकी सोच से लेकर आचरण और घर से लेकर बाहर तक हर कहीं दिखाई देती है। सास, बहू को आभूषण आदि देने में कंजूसी करती है तो बहू, सास की यथोचित सेवा में। पति, पत्नी को गृहस्थी चलाने हेतु पर्याप्त पैसे देने में कृपण हो जाता है तो पत्नी, पति को समुचित स्नेह देने में चूक जाती है। क्षुद्र स्वार्थों में आबद्ध अभिभावक बच्चों को सुसंस्कार देने में कंजूसी कर जाते हैं और बच्चे अभिभावकों को यथायोग्य सम्मान देने में।

 
परस्पर घनिष्ठ मित्र संकट के समय आर्थिक सहायता के मुद्दे पर मन छोटा कर किनारा कर लेते हैं और सहकर्मी 'मेरा-तेरा' के संकीर्ण भाव की प्रबलता के चलते एक-दूसरे को प्रेम व सहयोग देने में कृपण हो उठते हैं। कुल जमा निष्कर्ष यह कि मनुष्य मात्र अपने सर्वांग में कृपण हो गया है और यह कृपणता वस्तु से लेकर भाव तक विस्तार ले चुकी है।
 
क्या हमें यह समस्या चिंतन योग्य भी नहीं लगती? विचार कीजिए, हमने आज अपने मन के कपाट संकरे कर लिए हैं, तो कल धीरे-धीरे इनमें स्नेह की आश्वस्तिप्रदायक ऊष्मा, अपनत्व की शीतल पवन और भावनाओं का निर्मल प्रकाश आना भी बंद हो जाएगा। तब क्या हम ज़िंदा रह पाएंगे और रह भी गए, तो वह जीवन क्या खोखला ही साबित न होगा? आखिर जिसमें अपनों का साथ न हो, ऐसा जीवन तो मृत्यु से भी बदतर ही होता है ना!
 
होना तो यह चाहिए कि हम सभी इस जीवन की क्षणभंगुरता को ध्यान में रखकर अपने हृदय को उदार बनाएं। भौतिक वस्तुएं उपभोग के ही लिए होती हैं। उनमें आसक्ति कम करें और उन्हें अगली पीढ़ी को देना सीखें। अपने परिजनों, मित्रों, सहकर्मियों को अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में देखते हुए उनके प्रति ईर्ष्या और द्वेष का संकीर्ण भाव न रखें बल्कि उन्हें ईश्वरप्रदत्त ऐसे सहयोगी समझें, जो आपके जीवन को पूर्णता देने के लिए आपके साथ हैं और जिनके बिना आप अधूरे रह जाएंगे।

 
यदि भाव के स्तर पर ऐसा परिवर्तन हो जाए, तो सब कुभाव स्वत: ही समाप्त हो जाएंगे और चारों ओर सद्भाव का आलोक फैल जाएगा। याद रखिए, मन की कृपणता न केवल हमारे भीतर भावगत अस्वच्छता को जन्म देती है बल्कि समाज में भी नैतिक मूल्यों का ह्रास करती है, क्योंकि जो हम दूसरों को देंगे, प्रतिफल में हमें भी वही मिलेगा।
 
इसलिए आज से ही अपनी हर उस लघु से लघुतम कृपणता को दूर करने के लिए प्रणबद्ध हो जाइए, जो आपका मन दूषित कर आपको अस्वस्थ बना रही है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य न भूलें कि स्वच्छ मन पर ही तन की स्वस्थता अवलंबित है। हम अपने 'आंतर' को दुर्भावनारूपी संकीर्ण वीथिकाओं से निकालकर सद्भावनाओं के राजपथ पर ले आएं और फिर देखें कि हमारे जीवन का रथ कितनी सुगमता और आनंद से अपनी यात्रा पूर्ण करता है।

 
ईश्वर ने हमारे भीतर सत्संपन्नता की 'श्री' अकूत मात्रा में भरी है। बस, जरूरत उसे पहचानकर बाहर प्रसारित करने की है। तो आइए, प्रेम के इस माह में अपने हृदय की इस 'श्री' को संपूर्ण जगत पर मुक्त भाव से लुटा दें और तब हम पाएंगे कि हर ओर रूहानी सुकून देने वाली आत्मिकता जगमगा उठी है।

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