किसी को कल्पना नहीं रही होगी मुकेश अंबानी के घर एंटीलिया के सामने जिलेटिन वाली स्कॉर्पियो मिलने का मामला इतना बड़ा बवंडर पैदा कर सकता है।
पहले इसे आतंकवादियों की करतूत माना गया राजधानी के तिहार जेल में बंद इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंकवादी से उसके तार जोड़े गए। छापे में उसके बैरक से दो मोबाइल फोन बरामद हुए जिसका प्रयोग वही करता था। कहा गया कि अंबानी को लिखा पत्र उसी का था। अब इस पर कोई बात नहीं कर रहा है। पूरा मामला घूम कर मुंबई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार के ईर्द-गिर्द खड़ा हो गया है।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए के हाथ में आते ही मामला जिस ढंग से परत दर परत खुलता और विस्फोटक बनता जा रहा है वह किसी को अचंभित करने के लिए पर्याप्त है। मुंबई पुलिस के पूर्व आयुक्त परमवीर सिंह द्वारा गृहमंत्री अनिल देशमुख पर लगाया गया आरोप कि उन्होंने सचिन वाझे को हर महीने 100 करोड़ वसूली के लिए कहा था असाधारण है।
अगर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और महाअघारी सरकार के मुख्य रणनीतिकारों ने मान लिया था कि परमवीर सिंह को आयुक्त के पद से हटाने तथा पुलिस प्रशासन में कई फेरबदल के बाद मामले की आंच राजनीतिक नेतृत्व नहीं पहुंचेगी तो उनकी यह सोच गलत साबित हो रही है।
परमवीर इस समय भी महानिदेशक स्तर के अधिकारी हैं। इतना बड़ा अधिकारी अपने गृहमंत्री पर बिना किसी आधार और प्रमाण के ऐसा आरोप नहीं लगा सकता। निस्संदेह परमवीर पर भी प्रश्न खड़ा है कि पुलिस आयुक्त के रुप में उनका कर्तव्य क्या था? उन्होंने अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया, लेकिन यह पूरे मामले का एक पहलू है।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपने किस्म की यह पहली घटना होगी। इसके पहले शायद ही कोई बड़ा पुलिस अधिकारी अपने गृहमंत्री के विरुद्ध आरोपों के पुलिंदा के साथ सामने आया हो।
वास्तव में परमवीर के आरोपों का मूल स्वर यही है कि मंत्री के आदेश पर मुंबई पुलिस का एक महकमा पूरी तरह आपराधिक गतिविधियों में ही संलिप्त था। इस दौरान अनेक बड़े मामलों को गलत मोड़ दिया गया। अगर आप पत्र को देखें तो उसमें जिस तरह का विवरण है उसे आसानी से झुठलाया नहीं जा सकता। मसलन, वे कह रहे हैं कि देशमुख अपने सरकारी आवास पर सचिन वाझे और कई पुलिस अधिकारियों को बुलाते थे। इसमें ह्वाट्सऐप चैट का उल्लेख है।
कायदे से गृहमंत्री के स्तर पर सचिन वाझे जैसे असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर या एपीआई स्तर के अधिकारी के साथ बैठक करने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। पूर्व पुलिस आयुक्त अगर कह रहे हैं कि वसूली महीनों से हो रही थी तो इसे कैसे खारिज किया जा सकता है? इसमें करीब 1750 पब और बार का जिक्र है और उनके अनुसार जिसे बताते हुए गृहमंत्री कह रहे हैं कि उनसे प्रति महीना दो से तीन लाख लिए जाएं तो 40 लाख के आसपास प्रति महीना इकट्ठा हो जाएगा।
इसमें एसीपी सोशल सर्विस ब्रांच, संजय पाटिल का जिक्र है, जिसे उन्होंने घर पर बुलाकर हुक्का पार्लर से वसूली पर बात की। देशमुख के निजी सचिव मिस्टर पांडे की उपस्थिति का भी इसमें जिक्र है। देशमुख का खंडन पर्याप्त नहीं है।
दादरा और नगर हवेली के सांसद मोहन डेलकर की मौत के मामले में गृहमंत्री की ओर से लगातार आत्महत्या के लिए उकसाने का केस दर्ज करने के दबाव तक के अति गंभीर आरोप भी हैं।
कुल मिलाकर पूरे मामले के कई पहलू हो जाते हैं। आरंभ में इस घटना की जांच महाराष्ट्र आतंक विरोधी दस्ते एटीएस को दिया गया था। परमवीर के आरोपों पर आपका चाहे जो मत हों इससे एटीएस की जांच में कोई प्रगति क्यों नहीं हो सकी और एनआईए के आने के बाद क्यों पूरा मामला खुलता जा रहा है इसका जवाब देश को मिल गया है।
अगर पुलिस स्वयं ही साजिश में शामिल हो तथा सरकार या राजनीतिक नेतृत्व का उसे किसी तरह का वरदहस्त प्राप्त हो तो फिर ऐसे ही होगा। बड़े- बड़े पूर्व पुलिस अधिकारियों को यह देखकर चक्कर आ रहा था कि एक निचले स्तर का पुलिस अधिकारी सचिन वाझे आखिर इतने उच्च स्तरों के मामले की जांच कैसे कर रहा था।
एनआईए की जांच से इतना तो साफ हो गया है कि पूरे मामले की साजिश पुलिस मुख्यालय तथा सचिन वाझे के घर पर ही रची गई। आगे जांच में मंत्रियों और नेताओं के नाम भी सामने आ जाएं तो आश्चर्य नहीं। मनसुख और उसका परिवार दुर्भाग्यशाली साबित हुआ। उसकी स्कॉर्पियो वापस नहीं आएगी यह मालूम होने के बावजूद उसने वाझे को चाबी थमाई। जिस स्थिति में उसकी मृत्यु हुई उसे आत्महत्या मानना किसी के लिए कठिन है। वास्तव में वह इस साजिश का एक मुख्य गवाह हो सकता था, इसलिए यह संदेह अब सच्चाई बनता दिख रहा है कि मनसुख की हत्या कर फेंक दिया गया।
यह पहले से ही लग रहा था कि सचिन वाझे इस मामले में अकेले नहीं हो सकता। इसमें राजनीतिक नेतृत्व और बड़े अधिकारियों की भूमिका होगी। देश के सबसे बड़े उद्योगपति के घर के बाहर जिलेटिन वाली गाड़ी खड़ी कर उसे दबाव में लाने का दुस्साहस एक छोटा पुलिस अधिकारी नहीं कर सकता। इसलिए परमवीर सिंह की शिकायत बेशक इस समय आरोप हैं, लेकिन इसमें दम है। वैसे भी वाझे वसूली के मामले में पुलिस सेवा से बाहर हो गया था।
उसने पूरी कोशिश की और जब उसकी बहाली नहीं हुई तो वह शिवसेना में शामिल हो गया। डेढ़ दशक से ज्यादा समय बाद उद्धव सरकार में पुलिस में उसकी वापसी होती है और वह भी पीआईयू यानी अपराध जांच इकाई में।
आप देख लीजिए, टीआरपी में हेरफेर के आरोप, अर्णव गोस्वामी, कंगना रनौत आदि कई बहुचर्चित मामले उसके हाथों ही दिए गए। यह साफ है कि राजनीतिक नेतृत्व का उससे सीधा संपर्क और संवाद नहीं होता या उसे संरक्षण हासिल रहता तो उस स्तर के अधिकारी को ऐसे मामले नहीं दिए जा सकते हैं। जिस तरह की लग्जरी गाड़ियों का उपयोग करता था वह बड़े पुलिस अधिकारियों के साथ मंत्रियों और नेताओं को भी पता रहा होगा।।
इस परिप्रेक्ष्य में परमवीर सिंह का यह कहना सही लगता है कि सीधे गृहमंत्री से संबंध होने के कारण वह कई बार उन्हें भी नजरअंदाज करके काम करता था। यह अलग बात है कि एक पुलिस आयुक्त होकर उन्होंने क्यों यह सब सहन किया इसका जवाब उन्हें देना होगा।
यह इसका एक और पहलू है। चूंकी बड़े से बड़े पुलिस अधिकारियों का कैरियर सरकार के हाथों है, इसलिए वह चाहे- अनचाहे उनके गैर कानूनी और असंवैधानिक आदेशों, इच्छाओं, कदमों, फैसलों का समर्थन करने या उसके अनुसार कार्रवाई करने के लिए मजबूर रहता है।
स्वाभिमानी और ईमानदार पुलिस अधिकारी इसका विरोध कर सकता है या ऐसा करने से इंकार कर सकता है, लेकिन उसे इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है। उसका स्थानांतरण कर दिया जाएगा या फिर उसे कई तरीकों से उत्पीड़ित किया जाएगा। इसलिए बड़े स्तर के अधिकारी भी राजनीतिक नेतृत्व के सामने नतमस्तक रहते हैं। ज्यादातर आराम से उनके साथ मिलकर हर तरह का काम करते हुए मनचाहा पद, और पदोन्नति पाते हैं। यह हमारी व्यवस्था की बहुत बड़ी त्रासदी है।
वास्तव में यह रक्षक के ही भक्षक बन जाने का मामला है। सोचिए, यह कैसी व्यवस्था है जिसमें पुलिस के बड़े अधिकारी स्वीकार रहे हैं कि उनके जानते हुए उनकी पुलिस गुंडों, दादाओं, अपराधियों की तरह वसूली कर सरकार तक पहुंचा रही है, अनेक गैर कानूनी काम कर रही है और वे उसे चुपचाप देखने और सहभागिता करने को विवश हैं?
निश्चित रूप से इस विस्फोटक आरोप के राजनीतिक परिणाम होंगे। उद्धव सरकार का इकबाल अब खत्म मानिए। सारे विवादित और बहुचर्चित मामले एवं पुलिस की कार्रवाइयां संदेह के घेरे में आ गए हैं। यह तो संभव नहीं कि पुलिस और मंत्री के बीच ऐसी या इस तरह की अन्य दुरभीसंधियों की जानकारी महाअघारी के वरिष्ठ नेताओं को बिल्कुल नहीं हो।
पत्र में तो मुख्यमंत्री तक शिकायत पहुंचाने का संकेत है। यह भी सवाल उठता है कि इतनी वसूली अगर हो रही थी तो क्या अकेले देशमुख उसे रख रहे थे? आखिर उसमें और किस किस को हिस्सा मिल रहा था? कोई अकेले ऐसा नहीं कर सकता। गलत तरीके से मुकदमों और गैरकानूनी पुलिस कार्रवाइयां अंधेरे में तो हो नहीं रही थी। इसमें दूसरों की भी संलिप्तता निश्चित रूप से है। जो संलिप्त नहीं थे उनने आवाज क्यों नहीं उठाई? सच कहें तो महाअघारी के किसी नेता या मंत्री के लिए इन प्रश्नों का अब वैसा जवाब देना कठिन है जिससे आम लोग सहमत हो सके।
जाहिर है, उच्च स्तरीय व्यापक दायरों वाली स्वतंत्र जांच से ही कुछ हद तक सच्चाई सामने आ सकती है। हां, महाराष्ट्र में पुलिस, प्रशासन के साथ राजनीति में बहुआयामी सफाई की आपातकालीन आवश्यकता एक बार फिर रेखांकित हुई है। यहां भी प्रश्न वही है कि आखिर इसे कैसे और कौन अंजाम देगा?
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