पैसा बोलता है !

मनोज श्रीवास्तव
अमेरिका में बोलता होगा भाई, इधर तो खामोशी के आलम में है... !!
निपट सन्नाटा है, पैसे की खनक खो गई है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा कि ऐसा भी होता है! कल तक जो खुदा था, वो आज जमीं पर है। कभी सुना था कि पैसा खुदा तो नहीं पर कमबख्त खुदा से कम भी नहीं है लेकिन यह उपमा अब बीती बात लगती है, क्योंकि इस सवेरे में नोट रुपी खुदा अपनी खुदाई को खोकर खुद अपनी रुलाई नहीं रोक पा-रहे हैं। हो न हो यह दुर्दशा इस कारण हुई हो, कि बददुआ की गति दुआ की गति से सौ गुना तेज चलती है। और फिर यह जमी के खुदा को घरों में भरने के लिए लोगों ने दुआ कम और बद्दुआ अधिक इकठ्ठा की है। 

क्या-क्या उल्टे-सीधे जतन करके संजोए थे कड़क-कड़क नोट। साम-दाम-दंड-भेद सब अपनाए इसे पाने को! इसके लिए अपनों को अपना न समझा, भाई को भाई नहीं माना! परिवार को दुश्मन समझा! इसके लिए संयुक्त परिवार में खूब बरतन बजाए और फिर इसके लिए साझा संस्कृति को तार-तार किया, पर नोट को कभी तिरछी दृष्टी से नहीं देखा। 
 
धर्म की मीठी बातों के प्रलोभन में भी इसे अपना बनाए रखा। धर्म से दूर होने कि तोहमत पर भी इसे दूर नहीं होने दिया और इसके ढेर पर बैठकर ऊछलते-कूदते हुए तमाम हक-ईमान को दरकिनार किए रखा पर हाय-री किसमत की यही अंत में धोखा दे गया। 
 
नोटों के ढेर पर उछ्लते-कूदते, धमाल मचाते लोग उन्हीं चूहों की तरह हो जाते हैं, जो किसी गरीब के छीके पर रखे हुए सत्तु को चट कर गरीब को आश्चर्य चकित किए रहते हैं। गरीब बहुत परेशान है कि ये चूहे इतनी ऊपर रखे सत्तु को कैसे खा-लेते हैं। आखिर एक दिन एक ज्ञानी पुरुष उन्हें समझाता है कि आप इस चूहे के बिल को खोदिए, हो-न-हो इसके नीचे खजाना है जिसके दंभ मे यह चूहे इतनी जंप लगा रहे है। अंत में यही होता है कि वह गरीब उन चूहों का बिल खोदता है और उसके नीचे गढ़े खजाने को निकाल लेता है। 
 
फिर इसके बाद चूहा पुन: चुहा बन जाता है और गरीब का सत्तु भी सुरक्षित हो-जाता है। अब देखना यह है कि नोटों के खजाने के निकलने के बाद देश का सत्तु सुरक्षित होता है या नही ? जो भी हो पर आशा तो यही है !

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