जलाने का नहीं कमाई का जरिया बने पराली

ऋतुपर्ण दवे
-ऋतुपर्ण दवे
 
नासा की ताजा तस्वीरें भारतीयों को जरूर चौंका रही होंगी लेकिन सरकारी तंत्र को नहीं। दरअसल ये जंगल नहीं कई राज्यों में धधकते खेतों की हकीकत है। गेहूं कटने के बाद बचे ठूठों और धान की बाली से दाना निकालने के बाद बचे पुआल जिसे पराली या कहीं पइरा भी कहते हैं को जलाने का नया रिवाज शुरू हो गया है। इससे वायुमण्डल में प्रदूषण के साथ ब्लैक कार्बन भी बढ़ता है जो ग्लोबल वार्मिंग भी बढ़ाता है। नतीजा सामने है गर्मी शुरू होते ही झुलसन ने झुलसा दिया।
 
पराली की आग उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ समेत दक्षिण के कई राज्यों में भी जगह-जगह दिख रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि कभी पंजाब और हरियाणा के खेतों तक सीमित यह चलन अब पूरे देश में है। यकीनन हालात चिन्ताजनक हैं और आलम बेफिक्री का। कहीं कोई पुख्ता रोक-टोक नहीं है। कई बार खेतों की आग सटे जंगल तक तबाह करती है तो करीबी शहरों की हवा बिगाड़ती है। सालों से दिल्ली पंजाब, एनसीआर और करीबी राज्यों की खरीफ और रवी की फसल कटने के बाद लगाई जाने वाली आग से गैस चेम्बर में तब्दील जाती है। अमूमन ऐसे हालात पूरे देश में दिखने लगे हैं।
 
इधर नासा धधकते खेतों की तस्वीर खींच रहा था उधर बीते 24 अप्रेल को ही हरियाणा, पंजाब में खेतों में पराली जलाने के मामले में हाईकोर्ट कड़ा रुख अपनाकर प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड को नोटिस जारी कर जवाब मांग रहा था। हालांकि 2015 में ही एनजीटी ने पराली जलाना प्रतिबंधित किया था ताकि निकला दमघोंटू धुंआ स्वास्थ्य और पर्यावरण पर बुरा असर न डाल सके। खुद पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष कहान सिंह पन्नू का हालिया बयान चौंकाता है जो अकेले पंजाब में 60 लाख एकड़ में धान की फसल उगाने और एक एकड़ में तीन टन पराली निकलने की बात कहते हैं। यकीनन स्थिति भयावह ही होगी जब 180 लाख टन पराली जलेगी। वहीं नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल 2016 की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली से उत्तर दिशा में 100 मील दूर पंजाब में धान की कटाई के बाद करीब 320 लाख टन भूसी और ठूंठ जलाए गए जिससे दिल्ली और आसपास करीब 20 लाख लोग प्रभावित हुए और प्रदूषण में खासा इजाफा हुआ। दूसरी ओर सरकार का दावा है कि किसानों का चालान काटने के साथ पराली निपटान के लिए जरूरी साजो-सामान के लिए सब्सीडी भी दी जा रही है जो कि 2016-17 में 1500 लाख रुपयों से ज्यादा की थी।
 
समस्या का एक पहलू फसल की ठूठ निपटान का है। लेकिन सवाल यह कि क्या इसे जलाने वालों पर मामले दर्ज करने से रोका जा सकता है? आर्थिक सर्वेक्षण 2018 पर गौर करना होगा जो बताता है कि खेतों के आधुनिकीकरण के चलते मशीनी उपयोग बढ़ा है। 1960-61 के दशक तक 90 फीसदी खेती में पशुओं का तथा मेकैनिकल व इलेक्ट्रिकल मशीनरी का केवल 7 प्रतिशत इस्तेमाल होता था। अब आंकड़े उलट हैं 90 प्रतिशत मशीनों और 10 प्रतिशत पशुओं का उपयोग होता है। पशुधन में कमीं के लिहाज से स्थिति अलग चिन्ताजनक है।
 
 पंजाब में पराली जलाने पर 100 से अधिक किसानों के खिलाफ दर्ज एफआईआर पर सरकार को आड़े हाथों लेते हुए पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट पूछ चुका है कि पहले सरकार यह बताए कि किसानों पर किस कानून के तहत जुर्म दर्ज हुआ? राज्य में किसानों की स्थिति पहले ही बदहाल है और सरकार है कि मदद के बजाय किसानों पर मामले दर्ज कर उन्हें और परेशान कर रही है। 100 से अधिक पन्नों के जवाब में सरकार ने कई योजनाओं का तो जिक्र किया लेकिन पराली जलाने वाले किसानों पर दर्ज एफआईआर का कोई भी सीधा जवाब नहीं दिया। जाहिर है पेंच अभी फंसा हुआ है जिस पर याचिकाकर्ता भारतीय किसान यूनियन का कहना है कि वह मामले की अगली सुनवाई पर सरकार के इस जवाब पर अपना पक्ष रखेंगे। मप्र में इस वर्ष अब तक अकेले सीहोर में 10 किसानों को हिरासत में लिया गया है।
 
पुआल फायदेमंद भी है। एक टन में 5.50 किलो नाइट्रोजन, 2.3 किलो फॉस्फोरस, 1.30 किलो सल्फर और 25 किलो पोटैशियम होता है। इससे गैस संयत्र भी बन सकता है जिससे खाना बनाना और गाड़ी चलाना संभव है। गैस के अलावा खाद भी बन सकती है जिसकी बाजार में कीमत 5,000 रुपए प्रति टन है और ऑर्थोसिलिक एसिड भी तैयार होगा। इस तरह केवल जलाकर ही निपटान के प्रति जागरूकता की जरूरत है। इससे खासकर भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण में कमी तो लाई जा सकेगी साथ ही खाद व गैस का बेहतर विकल्प भी तैयार हो सकता है। सभी राज्य सरकारों व केन्द्र को इसके लिए व्यव्हारिक और प्रभावी तौर पर जमीनी कार्य योजना तैयार करनी होगी ताकि जहां पर्यावरण की रक्षा तो हो ही साथ ही किसानों की मानसिकता भी बदले और आगे चलकर बेहतर नतीजे दिखें जिससे हम अपनी प्यारी धरती के साथ इंसाफ भी कर सकें।

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