बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया

गिरीश पांडेय
Rupee symbol of socialism: समाजवाद का प्रतीक। यह सबका होता और सब इसके। इसका कोई जाति, धर्म या मजहब नहीं होता। यह छुआछूत से भी अछूत होता है। मंदिर से लेकर मटन की दुकान तक यह बेरोक टोक चलता है। रंक हो या राजा। भिखारी हो या धन्ना सेठ यह सबके लिए समान रूप से महत्वपूर्ण होता है। 
 
नोट या रुपैया हर चीज के खिलाफ प्रभावी ओट है। नोट है तो घर परिवार और समाज में आपकी पूछ है। जब तक नोट है तो यह पूछ हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ती जाएगी। नोट में खोटे को भी खरा करने की ताकत होती है। यह जजमेंट से लेकर एफआईआर तक उन सारी चीजों को बदलवा या खरीद सकता है जो बिकाऊ है। अब कौन बिकाऊ नहीं है, उसे तलाशना आज के दौर में भूसे में सुई तलाशने जैसा है। कुछ कैश में बिकते हैं कुछ उसी कैश के बदले खरीदी गई कंसीडरेशन से। अपवाद को छोड़ दें तो यहां सब बिकाऊ हैं। कीमत काम के अनुसार अलग हो सकती है। इसीलिए कहा गया है कि, 'बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया'।
 
रखने में जोखिम है, चलाते रहिए : इस रुपैया की कुछ और भी खूबियां हैं। मसलन जलाना, जलना इसकी फितरत होती है। जिसके पास ज्यादा होता है, उससे लोग जलते हैं। जिसके पास नहीं होती वह इसे पाने के लिए खुद को जलाता है। अगर किसी ने नोट को लेकर रख लिया तो वो कुंठित होकर खुद को आग भी लगा लेता है। या किसी के साथ भाग लेता है। अब घर की लक्ष्मी चाहे खुद को आग लगाए या किसी के साथ रफूचक्कर हो जाए तो बात बेइज्जती की होती है। बेइज्जती से बेहतर है कि उसे चलाते रहिए। क्योंकि चलना उसकी फितरत है। हर जगह चल भी जाती है। फिर रखने का जोखिम ही क्यों लेते हैं।

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