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अहिंसक आवाज को बंद करने की कोशिश

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अवधेश कुमार

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नवमाओवादियों के भयावह हमले ने केवल देश नहीं, दुनिया का ध्यान खींचा है। दुनिया का इसलिए, क्योंकि इसमें वीडियो पत्रकार भी शहीद हुआ तथा 2 पत्रकारों की जान केवल संयोग से बच गई। वे चूंकि एक गड्ढे में लेटे थे इसलिए गोलियां उनके सिर से निकल जा रही थीं। इन पत्रकारों को स्कॉट कर रहे 3 पुलिसकर्मी भी शहीद हुए।
 
अगर दोनों तरफ से करीब 45 मिनट तक गोलीबारी होती रही तो इसका मतलब साफ है कि हमला बहुत बड़ा था। जिंदा बचे दोनों पत्रकारों संवाददाता धीरज कुमार तथा सहायक वीडियो पत्रकार मोरमुकुट शर्मा ने जो विवरण दिया है, उसे सुनने के बाद दिल दहल जाता है। आतंक और भय का कैसा माहौल हो सकता है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। अपने जीवन का अंत मानकर मोरमुकुट ने मोबाइल पर जो वीडियो शुट किया, उससे भी स्थिति साफ हो जाती है।
 
वास्तव में इनके साथ चल रहे 7 जवानों का साहस व शौर्य तथा उनकी सहायता में पहुंची स्थानीय पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में पुलिस बल की संघर्ष रणनीति ने ही इनकी जीवन रक्षा की अन्यथा उन नवमाओवादियों ने इनको खत्म करने की हरसंभव कोशिश की। देशभर में निंदा और विरोध के बाद इन्होंने बयान जारी कर इस बात से इंकार किया है कि इनका इरादा मीडिया पर हमला करना था किंतु सारी परिस्थितियां इनके झूठ का पर्दाफाश करती हैं।
 
घात लगाकर हमले का अर्थ ही है कि वे वहां इंतजार कर रहे थे कि कब वहां से पत्रकारों की टीम गुजरे और वे हमला करें। इन्हें नक्सली कहना इसलिए उचित नहीं कि नक्सल आंदोलन भी हिंसक और अमानवीय था किंतु उस दौरान किसी आम आदमी या पत्रकार आदि की वे हत्याएं नहीं करते थे। अब तो इनके लड़ाके निर्दोष निहत्थे जनता से भरी बसों को उड़ाने में अपनी विजय मानते हैं।
 
एक मनुष्य के रूप में पत्रकार एवं सर्वसामान्य जनता के बीच कोई अंतर नहीं। जिंदगी की कीमत सबकी एक ही है। फिर भी एक पत्रकार समाज की आवाज बनता है। एक पत्रकार जनता के प्रतिनिधि के रूप में संघर्ष क्षेत्र में भी बिना किसी अस्त्र के अपना काम करता है। वह अपने कलम, कैमरा-माइक या लैपटॉप का अहिंसक सिपाही होता है। पत्रकारों की किसी टीम में कैमरामैन को अग्रिम मोर्चे पर रहना होता है। साहू भी बारूदी सुरंग वाले उस क्षेत्र में सबसे अगली बाइक पर थे, इसलिए वे और उनकी बाइक चला रहे जवान सबसे पहले सीधे निशाने पर आ गए।
 
इन नवमाओवादियों ने विधानसभा चुनाव के बहिष्कार का ऐलान किया हुआ है। हर बार चुनाव में वे ऐसा करते हैं। आगामी 12 नवंबर को छत्तीसगढ़ के नवमाओवाद प्रभावित इलाकों में मतदान है। वे हर हाल में इसे विफल करना चाहते है। पिछले चुनावों में उनके बहिष्कार के बावजूद जनता मतदान करने के लिए निकली। दंतेवाड़ा क्षेत्र में इनके बहिष्कार के बावजूद 2013 में 61.93 प्रतिशत, 2008 में 55.60 प्रतिशत तथा 2003 में 60.28 मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया। इससे साफ है कि जनता का बहुमत उनके विरुद्ध है, भले एक बड़ी संख्या उनके डर से मतदान केंद्र तक न आए। इसका उन्हें अच्छी तरह पता है कि 12 नवंबर को भी लोग मतदान करने निकलेंगे। उन्हें भयभीत करने के लिए वे जितना कुछ कर सकते हैं, कर रहे हैं।
 
कई खबरें आ रही हैं कि कहीं सरपंच को पीटा गया, तो कहीं धमकी दी गई। जगह-जगह ये पोस्टर चिपकाते हैं। इस बार इन्होंने एक पोस्टर और चिपकाया जिसमें पत्रकारों को क्षेत्र में चुनाव बहिष्कार की कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया है। यह पोस्टर क्यों चिपकाया गया? इसके बारे में अलग-अलग बातें हैं। इस घटना के बाद यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या पत्रकारों को अपने जाल में फंसाने के लिए ये पोस्टर लगाए गए थे? उनको यह पता था कि पत्रकार आएंगे और वे बिना सुरक्षा के आ नहीं सकते। जाहिर है, उनके साथ कुछ सुरक्षाकर्मी भी होंगे।
 
यह बिलकुल संभव है कि शिकार करने की रणनीति के तहत उन्होंने यह पोस्टर लगाया हो। यह भी प्रश्न उठ सकता है कि अगर वे पहले से वहां घात लगाकर बैठे थे, तो क्या उन्हें इन पत्रकारों के क्षेत्र में पहुंचने की सूचना मिल चुकी थी? अगर मिली थी, तो उसका स्रोत क्या हो सकता है? निश्चय ही यह जांच का विषय है लेकिन इस संदेह को किसी तरह खारिज नहीं किया जा सकता है। इन पर हमला ठीक उसी जगह हुआ, जहां माओवादियों के पोस्टर लगे हुए थे।
 
वस्तुत: ये उस जगह पोस्टर को शूट करने लगे। वीडियो शूट करने के बाद जैसे ही ये बाइकों पर बैठे तो खेतों में छिपे हथियारबंद झुंड ने हमला कर दिया। तो क्या उन्हें अनुमान था कि पत्रकार यदि गुजरेंगे तो वे पोस्टर को अवश्य शूट करेंगे? अभी तो ऐसा ही लगता है। इसका मतलब है कि उन्होंने यह जानते हुए हमला किया कि यह पत्रकारों का दल है जिसे सुरक्षाकर्मी अपने सुरक्षा कवच में ले जा रहे हैं।
 
पिछले 1 दशक में 12 हजार से ज्यादा लोगों की बलि इस संघर्ष में चढ़ चुकी है जिसमें करीब 2,700 सुरक्षा बलों के जवान हैं, पर इस तरह पत्रकारों के दल पर कभी हमला नहीं हुआ था। ध्यान रखने की बात है कि वीडियो पत्रकार अच्युतानंद साहू को सिर में गोली लगी इसलिए उनकी जान पहले ही जा चुकी होगी। बावजूद इसके माओवादियों ने पीछे से उनकी गर्दन काट दी। उनके हाथ में कैमरा था। यह देखते हुए उन्होंने ऐसा किया तो फिर इसमें कोई संदेह रह ही नहीं जाता कि उनके निशाने पर इस बार पत्रकार ही थे।
 
बचे दोनों पत्रकारों की ओर भी वे लगातार गोलीबारी करते रहे। इनके पास जो पेड था उसे इन्होंने गोलियों से छलनी कर दिया। हथगोले भी फेंके गए। अगर पत्रकारों का बड़ा समूह होता तो न जाने और कितनी जानें जातीं। संयोग से यह केवल 3 लोगों की टीम थी। यह भले ही नई प्रवृत्ति लगे, पर इन नवमाओवादियों की अंधहिंसा को देखते हुए आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
 
सक्रिय पत्रकारों में ऐसे लोग न के बराबर हैं, जो इनकी हिंसा का समर्थन करें। मीडिया ने हाल के वर्षों में इनकी हिंसा की नीति के खिलाफ देश में वातावरण बना दिया। इनके चुनाव बहिष्कार को जनता द्वारा नकारने की बात को हर बार मीडिया पूरा कवरेज देती है। इनकी निंदा करती है। इनके जनसमर्थनविहीन होने की सच्चाई उजागर करती है। इस बार मीडिया दूर से ही सही उनको यह बता रही है कि वर्षों से मतदान न करने वाले कुछ गांवों में भी मतदान होने वाला है। यह टीम भी वैसे ही एक गांव निलवाया जा रही थी, जहां बनाए गए नए मतदान केंद्र के साथ स्थानीय लोगों से बात करने की योजना थी। उस गांव के लोगों ने 1998 के बाद से मतदान नहीं किया है।
 
वास्तव में ऐसे आधा दर्जन गांवों में 2 दशक बाद मतदान कराने के लिए सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त किए गए हैं, जहां के लोग मतदान नहीं कर पाते थे। दंतेवाड़ा जिले में नदी पार के साथ ही कुआकोंडा-अरनपुर क्षेत्र में ऐसे आधा दर्जन गांव हैं, जहां पिछले कई चुनावों में एक भी वोट नहीं पड़ा। इस बार सुरक्षा इंतजाम देखकर गांव वाले मतदान की मानसिकता में दिख रहे हैं।
 
निश्चय ही इस टीम की रिपोर्टिंग के बाद देशभर में इनकी सोच के विपरीत संदेश जाता तथा दूसरे गांवों पर भी इसका असर होता। इन नवमाओवादियों ने इस आवाज को निकलने के पहले ही हिंसा की बदौलत बंद करने की कोशिश की है। वे भूल रहे हैं कि जिन भी शक्तियों ने पत्रकारों की आवाज बंद करने या उनके सामने किसी प्रकार का भय पैदा कर काम में बाधा डालने का यत्न किया, वो या तो उसी दौरान असफल हुए या कुछ समय के लिए उनको सफलता मिली भी तो बाद में ये पराजित हुए।
 
पत्रकारिता चैतन्य प्राणी द्वारा अंजाम दी जाने वाली विधा है। न इस प्रकार के हमलों से पत्रकारों की आवाजें बंद हुई हैं और न ही होंगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारों के खिलाफ हिंसा पर काम करने वाली संस्थाओं का आंकड़ा है कि अपने काम को अंजाम देते समय औसतन हर महीने कम से कम 8 पत्रकारों को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ रहा है जिनमें से आधी संख्या संघर्ष क्षेत्र में काम करने वालों की है। यानी हिंसक शक्तियां एक तरफ तथा पत्रकारों की अहिंसक और नैतिक शक्ति दूसरी तरफ! यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक कि दुनिया के किसी भी कोने में हिंसा करने वाली ऐसी दिग्भ्रमित उन्मादी शक्तियां सक्रिय रहेंगी। नवमाओवादी भी समझ लें कि उन्होंने अहिंसक सिपाहियों को चुनौती दी है।
 
हालांकि इस घटना से पत्रकारों की सुरक्षा तथा उनके जान जाने के बाद उनके परिवार के भरण-पोषण का मुद्दा फिर से सामने आया है जिसका समाधान हमें करना है। परंतु इससे हिंसक शक्तियों के खिलाफ पत्रकारों की आवाज बंद नहीं हो सकती।
 
 
 

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