यादें बचपन की : पांचे कनेर के...

डॉ. छाया मंगल मिश्र
childhood memory


-डॉ. छाया मंगल मिश्र
 
घर के बाहर की क्यारी में मेरे बचपन की हसरत को पूरा करने के लिए मैंने कनेर का पेड़ लगा रखा है। जिंदगी हमेशा वहीं लौटना चाहती है, जहां दुबारा जाना मुमकिन नहीं होता। बचपन, मासूमियत, पुराना घर, पुराने दोस्त, पुरानी हसरतें, पुरानी यादें। उनमें से ही एक है ये पांचे कनेर के। चटाक-चटाक, टकाक-टकाक की आवाज के साथ जब घर में दोपहरी को गूंज मचाते थे तब हमेशा हमें डांट पड़ा करती थी कि 'क्या दिनभर पांचे चटकाते रहते हो? कोई और काम नहीं तुम लोगों को?'
 
हम लड़कियों के लिए तो समय काटने के लिए तो कई 'इंडोर गेम' हुआ करते थे। वो भी बिना किसी खर्चे के। सारे के सारे घरेलू। अधिकतर तो धरती मां की गोद में नाजों की पली प्रकृति का दिया तोहफा होते। फूल, पत्तियां, बीजे, पत्थर, डंडियां, दाने। और भी कई ऐसी चीजें जो काम में नहीं आतीं हों या आ रही हों, उनके ही खेल-खिलौने बना लिए जाते थे। खिलौने वो जो मन को भाएं, बहलाएं, न कि उनकी कीमत से आंके जाएं।
 
कनेर के झाड़ पर जैसे ही फूल आने शुरू होते हैं, मन आज भी बचपन में जी उठता है। फूल फल में बदलते। चमकदार। हरे कच्च फल। छोटे, बड़े, मध्याकार लिए हुए। कुछ तो पेड़ पर ही लगे-लगे काले पड़कर सूखते, कुछ हरे ही तोड़कर छील लिए जाते, बशर्ते कि वे पक गए हों। छीलने पर अंदर से भूरे रंग के सुंदर बीज निकलते, जो कि कड़क खोलदार होते। बड़ी बहनें बड़े-बड़े भारी एकसमान पांचे छांटकर खुद अंटी कर लेतीं, छोटे हमें देतीं। पांचे सूखने पर हल्का-सा तेल का हाथ फेरते थे ताकि चमक बनी रहे।
 
सबके अपने खजाने में कम से कम एक सेट तो पांचे का होता ही था। पांचे खेलने के लिए कम से कम 2 लोगों का होना जरूरी होता। बाकी कितने भी लोग खेल सकते हैं। सभी जगह अपने-अपने नियम और उसूल अलग-अलग होते। यदि कनेर नहीं तो पांचे गोल चिकने समान नाप के पत्थरों से भी खेले जा सकते हैं। कहीं-कहीं 5 तो कहीं 7 और 9 की संख्या के पांचों से खेल होता। दाम लगता।
 
हवा में हाथ घुमाकर सारे पांचे बड़ी अदा और नजाकत से जमीन पर बिखराए जाते। जिस एक पांचे से खेलना होता, उसका चुनाव सामने वाला पक्ष खेल रणनीति को ध्यान में रखकर करता। एकम से ले कर नवम तक खेल इस तरह खेला जाता- 1-1, 2-2, 3-2-3, 4-4, 5-3, 6-2, 7-1 फिर पूरे। 8 एकसाथ।
 
पर इन्हें इस जोड़ी में खेलने के लिए खेल शुरू होने के पहले ही नियम तय कर लिए जाते। जैसे 'थप्पी मरना' उसमें भी 'डबल थप्पी-सिंगल थप्पी', साथ ही जब ये जोड़ियों में पांचे उठाए जा रहे हों तब बाकी के पांचे न तो हिलना चाहिए न ही हाथ से छुआना चाहिए। यदि इनमें से कोई भी हरकत होती है तो आउट माने जाते और दूसरे खिलाड़ी को मौका दिया जाता।
 
और थप्पी का मतलब होता है, जब आप चुना हुआ पांचा हवा में उछालकर जमीन पर बिखरे हुए जोड़े उठा रहे होते हैं, इसी दौरान आपको अपनी मुट्ठी से जमीन पर तय की हुई थाप भी देनी होगी। ये सब आपके कौशल के कमाल पर निर्भर करता है कि पांचा हवा में उछालना, जोड़ियां हथेली में समेटना, थप्पी देना और फिर हवा से नीचे आते हुए पांचे को लपकना।
 
इन सभी कार्यक्रमों के बीच तगड़ी कुशलता के साथ क्रम सामंजस्य बैठाना अनूठे अनुभव पर ही आधारित होता है। कभी-कभी तो खेल को कठिन और रोमांचक बनाने के लिए नियमों में 'पूरे खेल को एक हाथ से ही खेलना है' तय कर लिया जाता था। नवम के बाद शुरू होते हैं अजीबोगरीब चालों वाले खेल जैसे 'मक्खी, कुत्ता, कछुआ, घर।' जिनमें हथेली उलटी करके उस पर पांचे संतुलित करके, दूसरी हथेली को गुफा जैसे रखकर उनमें बाकी पांचे अंदर करने, उंगली में पांचा फंसाकर बाकी को उठाने जैसे कई कारनामे शामिल होते। जहां तक मेरा ख्याल है ये खेल स्थान बदलने के साथ-साथ थोड़े-थोड़े बदलाव लेते जाते रहे होंगे, पर हमने लगभग ऐसे ही खेला है।
 
फिर हमें हमारे बाबूजी ने लकड़ी और लाख के रंग-बिरंगे चिकने चट्ट बड़े सुंदर पांचे लाकर दिए जिनसे हम खेलते कम, उन्हें संभालते ज्यादा थे। डरते थे कहीं टोंचे न पड़ जाए। टूट न जाए, खराब हो जाएंगे। रंग उखड़ जाएंगे। जान से ज्यादा प्यारे जो होते थे वो प्यारे पांचे।
 
आज अब पता नहीं कितने बच्चों को इनके बारे में पता होगा। कहां सीखते होंगे वो सामंजस्य का पाठ? और कैसे उठा पाएंगे बिना खर्चे के खेल से मिलने वाले असीम व असीमित आनंद की अनुभूति? अब तो सब मशीनी खिलौने और डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक युग है। संवेदना और भावना से विहीन। प्रकृति से विलगाव का पाठ पढ़ाता। स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रकृति को नष्ट करने से कभी न चूकने वाला युग। धिक्कारती प्रकृति के श्राप को भोगता युग!
 
पर मैं आज भी, अभी भी जीती हूं उस सुनहरे दौर को और बांटती हूं उन खुशियों को अपनों के बीच। उनके साथ कनेर के पेड़ पर उगते सुंदर फूलों को देखते हुए, उन्हें पल्लवित होते और फल में तब्दील होते देखते हुए। उसकी 2 पत्तियों को आपस में जोड़कर बाजा बनाकर उनमें से निकलती 'पिट-पिट' आवाज के साथ घर के द्वार पर बिखरे हुए अपने बचपन की अनमोल यादों को अपनी गोद की झोली में बीनकर भरते हुए। लगता है जैसे अपने आंचल में मैंने आसमान से टूटे तारे समेटकर सहेज लिए हैं।
 
ये सोच कर कि... 
 
'हाय रे वो दिन फिर न आए। जा-जा के रुत फिर-फिर आए।।'
 

सम्बंधित जानकारी

Show comments

ग्लोइंग स्किन के लिए चेहरे पर लगाएं चंदन और मुल्तानी मिट्टी का उबटन

वर्ल्ड लाफ्टर डे पर पढ़ें विद्वानों के 10 अनमोल कथन

गर्मियों की शानदार रेसिपी: कैसे बनाएं कैरी का खट्‍टा-मीठा पना, जानें 5 सेहत फायदे

वर्कआउट करते समय क्यों पीते रहना चाहिए पानी? जानें इसके फायदे

सिर्फ स्वाद ही नहीं सेहत के लिए बहुत फायदेमंद है खाने में तड़का, आयुर्वेद में भी जानें इसका महत्व

इन विटामिन की कमी के कारण होती है पिज़्ज़ा पास्ता खाने की क्रेविंग

The 90's: मन की बगिया महकाने वाला यादों का सुनहरा सफर

सेहत के लिए बहुत फायदेमंद है नारियल की मलाई, ऐसे करें डाइट में शामिल

गर्मियों में ये 2 तरह के रायते आपको रखेंगे सेहतमंद, जानें विधि

क्या आपका बच्चा भी चूसता है अंगूठा तो हो सकती है ये 3 समस्याएं

अगला लेख