मौत तो हुई है ... एक बचपन की भी ....

गरिमा संजय दुबे
मैं नहीं जानती मारने वाला किस जाति का था और मरने वाला किस जाति का, लेकिन मौत तो हुई है, ऐसी हर घटना के बाद मौत होती है इंसानियत की, तथाकथित सभ्य समाज की। सारी दुनिया बात कर रही, मौत पर राजनीति हो रही है , हो भी क्यों न एक मौत पर पूरा देश असहिष्णु हुआ था और दूसरी मौत पर निर्लिप्त तो सवाल तो पूछे ही जाएंगे, लेकिन इन सबके बीच क्या किसी ने उस मासूम बच्चे की मासूमियत उसके बचपन की मौत पर चर्चा की।









एक औरत हूं ना सबसे पहले बच्चे का ही ध्यान आया। सोचिए क्या कभी वह बच्चा उस भयानक मंजर को भूल पाएगा? वह अपने हंसते मुस्कुराते पापा के साथ क्रिकेट खेल रहा था। खुश था, बाप के साथ कभी बेटे को खेलते देखा है आपने, दुनिया का सबसे अमीर आदमी समझता है वह अपने आप को उस वक्त, उसकी आंखों की चमक, चेहरे की मुस्कराहट और पापा के साथ होने का सुरक्षा भरा सुकून होता है उसके साथ। उसी बच्चे की आंखों में हमेशा के लिए एक डर, एक असुरक्षा एक अजीब सी उदासी भर दी गई।

क्या कभी वह सामान्य हो पाएगा, क्या कभी वह क्रिकेट खेल पाएगा। उसके सामान्य विकास की संभावनाएं समाप्त कर दी गई। उसकी मासूमियत, उसके बचपन की हत्या की जिम्मेदारी कौन लेगा? एक अंतिम सवाल जो लोग मूक दर्शक बने हुए थे क्या वे डॉ नारंग की मदद नहीं कर सकते थे? क्या उन्हें अपने घरों में चैन की नींद आ रही होगी? 15 लोग तांडव करे तो 200 लोग एक साथ उस बुराई को क्यों नहीं रोक सके?क्या कारण है कि बुराई संगठित होती है और अच्छाई हमेशा बिखरी हुई।

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