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कविता : पसीने की कीमत
Webdunia
निशा माथुर
मंजर बदल-बदल रहा है,
गुजरता वक्त भी थम-सा रहा है।
भागती दौड़ती-सी जिंदगी, पसीने की कीमत को छल रहा है।
समय की बेड़ियों मे जकड़े हौंसले, अब पैर लड़खड़ा रहे हैं,
कितना भी बहाए कोई पसीना,
सब भाग्य का फल चख रहें है।
कुछ धुन के पक्के, मीठे सपने में चूर,
अपने साहस, धैर्य से भरपूर
हंस कर स्वीकारते चुनौतियां, अपनी हठी में तो खुदा में भी मशहूर।
बहा-बहा कर पसीना थामते हैं, अपनी बाजुओं मे ढेरों आंधी तूफान।
मस्तमौला, मनमौजी, अल्हड़ से,
खुद को देते हैं, एक नई पहचान।
फिर एक पल में कैसे मंजर बदल जाता, वक्त भी थम-सा जाता है।
भागती दौड़ती-सी जिंदगी में, पसीने की कीमत को छल जाता है।
कुछ आईने से पूछते सवाल,
बिसर रही उनकी जिंदगी की मशाल।
कलैंडर के पन्नों पर, सौ-सौ गोले लगाए, कैसे समय कर रहा कमाल।
इतने प्रशस्ति पत्र, तमगे, कानों में गूजती वो तालियों की गड़गड़ाहट।
खाली टटोलती जेबें और माथे पर उभरती
पसीने की बूंदों की आहट।
कैसे उनकी जिंदगी का मंजर बदल गया, और वक्त भी थम सा गया,
भागती दौड़ती-सी जिंदगी में उनके, पसीने की कीमत को छल गया।
कुछ भोले मन के आंगन में,
अधरों पर गुलमोहरों-सी रंगत को लिए,
समय की गति को अनदेखा किए, खिलखिलाते, उर में बादल लिए।
दिन रात भाग रहे हैं, शोषित, भूखे पेट के पीछे, बचपन को छल रहे हैं,
मिट्टी के पुतले, हाथों में घर्षण,
सांसों मे स्पंदन, अपनी नीदें मल रहे हैं।
कैसे उनकी जिंदगी का मंजर कभी बदलेगा, क्या ये वक्त कभी थमेगा।
भागती दौड़ती-सी इस जिंदगी में कौन उनके पसीने की कीमत देगा।
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