शायरी का घराना हैं राहत इंदौरी...

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- रमण रावल 
एक ऐसा नाम जिसके जुबां पर आते ही बेचैनी बढ़ जाती है। एक ऐसी शख्सियत, जिसके सामने आते ही यकीन नहीं होता कि यह इतनी अजीमुश्शान हस्ती है। एक ऐसा शायर, जो मंच पर जब  अपनी खास नजाकत-ओ-अंदाज में अपने फन का मुजाहिरा करता है तो जैसे सांसें रुक जाती हैं, लेकिन जैसे ही पीठ फेरकर जाने लगता है तो पूरी महफिल गूंज उठती है-वंस मोर, वंस मोर के गगनभेदी शोर से। 
बस ये नाम को ही राहत हैं, वरना तो जहां ये होते हैं, वहां हर आम-ओ-खास के दिलों की धड़क़नें उछलती-गिरती रहती हैं कि इन्होंने अब ये क्या कहा और तब क्या कहा? बावजूद इसके इस बंदे ने जो जब कहा, ताल ठोंककर कहा, मुंह आगे कहा। फिर वह अपने मुल्क भारत की भूमि हो या गैर मुल्क पाकिस्तान की कोई अटाटूट भरी हुई महफिल। अपनी शायरी में जिस व्यवस्था के लिजलिजे अंगों पर वार करते हैं उनके लिए आफत इंदौरी और शेष तमाम चाहने वालों के लिए राहत इंदौरी समय की तल्ख भट्टी में तपा वो कुंदन है जिसे जौहरी और अनगढ़ एक समान रूप से खूब अच्छे-से पहचान लेते हैं। 
        
वक्त का दरिया अपनी लहरों में किस कचरे को उठाकर किनारे फेंक दे और किस सितारे को किनारे से उठाकर सातों समंदर की सैर करा दे, कोई नहीं जानता। एक वक्त था जब मिल मुलाजिम पिता रफ्तुल्लाह कुरैशी के बेटे राहत महज दस बरस की उमर में ही दुकान-दफ्तरों के साइन बोर्ड रंगने लगे थे। यह और बात है कि वहां भी वे अव्वल थे और उनकी बेहद खूबसूरत लिपि और बनावट के कायल लोग बस उन्हीं से बोर्ड बनवाना चाहते थे। पांच भाई-बहनों में चौथे क्रम के राहत निश्चित ही समय से पहले ही जवान हो गए थे। यूं अपनी जवाबदारियों को समझकर पढ़ाई करते हुए काम से लग जाना और क्या था?
        
उनकी पढ़ाई का जरिया अपनी जबान उर्दू थी और तबियत में अदब को लेकर कुलबुलाहट रही तो मन में मचली तुकबंदी को हरफों में ढालने लगे। दसवीं में पड़ रहे होंगे तब ही 1970 के आसपास यह चस्का लग चुका था। मुश्किल यह थी कि कहें किससे और कहें कैसे? लोग यकीन ही न करें कि एक पेंटर का शेरो-ओ-शायरी की तहजीब से क्या लिजे-दीजे? अलबत्ता यारों की महफिल तो लूट लिया करते थे ही। ऐसे ही एक बार रानीपुरा में मुशायरा चल रहा था और राहत साहब भी श्रोता थे। तभी एक दोस्त ने मंच से सिफारिश कर दी कि इन्हें भी एक मौका तो दीजिए। 
          
उस दिन हिंदुस्तानी शायरी के समृद्ध इतिहास में एक सुनहरी पन्ना जुडऩा मुकर्रर हो चुका था, इसमें दो राय नहीं। झट से बुलावा आ गया और राहत साहब हिम्मत जुटाकर जा पहुंचे। इस बंदे में एक खासियत तो शुरू से ही रही कि अपनी बात हर हाल में कहना और सामने कोई भी हो, झिझकना नहीं। मंच लूटने के लिए फन के साथ जो जरूरी मिर्च-मसाला होता है, वह अपने ठेठ भीतर तक कुदरतन होने का अहसास भी उन्होंने पहली बार में ही करवा दिया। इसके बाद न तो राहत साहब को सुनाए बिना चैन, न सुनने वालों को सुने बिना राहत। 
 
उसी दरम्यान एक ऐसा वाकया हुआ कि उनका हौसला आसमान पर जा बैठा। एक कार्यक्रम के सिलसिले में मशहूर शायर और फिल्मी गीतकार जां निसार अख्तर इंदौर तशरीफ लाए थे। राहत साहब उनसे मिलने जा पहुंचे और ऑटोग्राफ मांगे। अब संयोग देखिए कि आपके अवसरों के किले का दरवाजा खुलना हो तो कैसे अनुकूल हालात पेश आते हैं। राहत साहब के इसरार पर जां निसार अख्तर साहब ने ऑटोग्राफ में एक शेर की पहली पंक्ति लिखनी शुरू की और राहत साहब ने दूसरी तत्काल पढ़ दी। इतना काफी था अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए। अख्तर साहब ने शायरी के शौक का पूछा तो हां कहकर लगे हाथ दरयाफ्त किया कि वे मंच से शायरी करने के लिए क्या करें? अख्तर साहब ने सहज ही कहा कि पहले पांच हजार शेर याद कर लो तो अपने भी अपने आप पढ़ने आ जाएंगे। तब राहत साहब ने जो कहा, उसने इस महान शख्सियत की गर्दन एक बार फिर उस नौजवान की ओर घुमा दी। राहत साहब ने कहा कि पांच हजार शेर तो उन्हें अभी ही याद हैं। तब अख्तर साहब ने कहा कि फिर देर किस बात की, शुरू हो जाओ।
 
और सचमुच में राहत साहब शुरू हो गए। रानीपुरा में जलवागार हो ही चुके थे, सो आसपास से उनके नाम की फरमाइशें आने लगी थीं। हैरत इस बात की है कि मंच का सिलसिला शुरू करने के एकाध बरस में ही वे मंच की जान बन चुके थे। इसमें दो बातों ने सबसे ज्यादा असर किया। एक उनकी शायरी का दर्शन, दूसरा उनका बेमिसाल और एकदम नया, अनूठा और आक्रामक पेश-ए-अंदाज। उस वक्त तक शायरी और कविता में प्यार-मोहब्बत, देशभक्ति का ही बोलबाला ज्यादा था। दूसरा जो शायर तरन्नुम में पढ़ता था, वह छा जाता था। इन दोनों ही विधाओं के बरखिलाफ राहत इंदौरी ने अपनी शायरी में सियासत, नया जमाना, नए सोच, नए मानकों को तवज्जो दी। व्यवस्था पर सीधे चोट की, बिना लागलपेट के। सबको लपेटा, सबको उधेड़ा। फिर बुलंद आवाज, पहाड़ी सोज, हिमालयी इरादों का इजहार। उनके लहजे में एक-एक शब्द के भाव को चेहरे की लकीरों से प्रकट कर जो अद्भुत संप्रेषण संसार रचा, लोग उसके कायल हो गए। यह कहना मुनासिब होगा कि मुशायरों की महफिल में शेर पढ़ने का राहत इंदौरी स्टाइल शुरू हो गया। राहत साहब की शोहरत बढ़ने के साथ ही तब के नामचीन करीब एक दर्जन से अधिक शायरों ने आहिस्ता-आहिस्ता तरन्नुम छोड़कर राहत घराना अपना लिया।
 
हर दौर में मुशायरे और कवि सम्मेलनों की शोहरतजदा शख्सियतों को फिल्मी दुनिया वाले हाथोहाथ लेते रहे हैं। राहत इंदौरी पर भी डोरे डालने शुरू हो गए, लेकिन जैसा कि होता आया है कि हिन्‍दी या उर्दू अदब के निखालिस लोगों को चकाचौंध की दुनिया ज्यादा आकर्षित नहीं करती। सो राहत साहब भी टालमटोल करते रहे। एक बार इंदौर के एक ट्रांसपोर्ट कारोबारी गुलशन कुमार का संदेश लेकर आए। राहत साहब ने नंबर लेकर रवाना कर दिया। उन दिनों राहत साहब एमए उर्दू करने के बाद इस्लामिया करीमिया कॉलेज में उर्दू के व्याख्याता हो चुके थे। एकाध हफ्ते बाद वे फिर आ धमके। जब उन्हें बताया कि वे मास्टरी और मुशायरों से खुश हैं, इसलिए नहीं जा सकते तो ट्रांसपोर्टर ने अपनी जबान का हवाला देकर कहा कि एक बार बात भर कर लें, फिर जो आपकी मर्जी हो करना। 
         
राहत साहब ने एक दिन यूं ही फोन लगा लिया तो गुलशन कुमार छूटते ही बोले कि आप तो जितना जल्दी हो सके मुंबई आ जाओ। उन्हें भी राहत साहब ने मना कर दिया कि वे नौकरी और मंच से पर्याप्त कमा लेते हैं, इसलिए मुंबई आने का वक्त नहीं निकाल सकते। तब गुलशन कुमार ने कहा कि आप एक बार हफ्ते-दस दिन के लिए आ जाओ और नौकरी व मुशायरों में न जाकर जितना नुकसान होगा उससे कहीं ज्यादा वे आपको दे देंगे। इस तरह राहत साहब जानबूझकर अपनी  अलोकप्रिय रचनाओं की डायरी लेकर मुंबई पहुंचे। इरादा साफ था कि गुलशन कुमार के मुगालते दूर हो जाएंगे और वे लौट आएंगे। 
      
बावजूद इसके गुलशन कुमार उन्हें अपने घर ले गए और रास्ते में पूछा कि आप हमें क्या दे सकते हो? तब राहत साहब ने कहा कि आप क्या चाहते हो, वह बताओ तो मैं कोशिश कर सकता हूं। कुछ मसले बताए गए, एकाध हफ्ते की यात्रा में राहत साहब ने उन पर काम किया और इसी दरम्यान एक एलबम अनुराधा पौडवाल की आवाज में रेकॉर्ड भी कर लिया गया। राहत साहब तो पलटकर इंदौर आ गए। इस बीच किसी दिन संगीतकार अनु मलिक गुलशन कुमार के दफ्तर पहुंचे तो टेबल पर राहत इंदौरी की डायरी देखकर उठा ली, जिसमें मंच से वाहवाही न लूट सकी रचनाएं ज्यादा थीं। अनु मलिक ने वहीं से फोन कर राहत साहब से अपनी एक फिल्म के लिए एक गीत लेने का अनुरोध करते हुए मुंबई बुलाया। 
      
बस इसके बाद जो सिलसिला चला तो करीब सात साल में चालीस फिल्मों में सौ से अधिक गीत उन्होंने लिखे, जो ज्यादातर लोकप्रिय भी हुए। बावजूद इसके वे फिर इंदौर लौट आए और मंच को अपना सबकुछ बना लिया। राहत इंदौरी शायरी से इतर अपने को कहीं सहज महसूस नहीं करते, इसलिए कोई पंगा भी नहीं करते। जिस तरह से शास्त्रीय संगीत में इंदौर घराना प्रसिद्धि पा चुका है, उसी तरह से शायरी में राहत इंदौरी घराना शबाब पर है। आज मुशायरे के मंच से राहत अदायगी एक जरूरी हिस्सा हो चुकी है। तमाम नए शायरों ने तो यह मान लिया है कि शायरी में अल्फाज, तुकबंदी और संदेश की मौजूदगी के साथ-साथ यदि अंदाज राहत इंदौरी वाला रहा तो महफिल लूट लेना आसान हो जाता है। जाहिर-सी बात है-संपूर्ण राहत इंदौरी तो केवल एक ही हो सकता है और वो अभी मौजूद है। जब तक शायरी और मुशायरों की महफिलें रहेंगी, तब तक वह मौजूद रहेगा ही।
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