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सुनहरी यादों के साथ (5) : वो ख्वाबों के दिन, वो किताबों के दिन

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

memories


कागज की ये महक, ये नशा रूठने को है/
ये आखरी सदी है, किताबों से इश्क की।
 
वो जाफरियों वाले बरामदे और कवेलू की छतों वाले हरे-भरे, बड़े-बड़े मैदानों वाले हमारे स्कूल...!
 
यादों का सैलाब थमने का नाम ही नहीं ले रहा। वो बैरी बचपन बवंडर बनकर मेरे आसपास बना हुआ है। अनंत-अखंड यादें मस्तिष्क में उथल-पुथल मचा रही हैं। क्या लिखूं, क्या छोड़ दूं? सभी स्वर्णिम हैं। खट्टी-मीठी यादें। कई शरारतें, शैतानियां, अल्हड़ नादानियां।
 
वो ख्वाबों के दिन, वो किताबों के दिन,
सवालों की रातें, जवाबों के दिन।
 
कई साल हमने गुजारे यहां,
यहीं साथ खेले हुए, हम जवां।
था बचपन बड़ा आशिकाना हमारा।
 
और अब? यहां बैठ चारों तरफ सूनी नजरों से देख रही हूं। इतने बरसों में सब सबकुछ खत्म हो गया था। सीमेंट का राक्षस विकासरूपी रावण का रूप रखकर सारी की सारी सीतारूपी हरियाली को हरकर ले गया। कभी न टूटने वाली नींद के आगोश में रामजी की सेना जा चुकी है। यह हरण कष्टकारी नहीं 'नष्टकारी' था। इक्का-दुक्का पेड़ थे जिनमें अपने साथी-सहेलियों के आहूत हो जाने से उनके अकेलेपन का दर्द मुझे पत्ते-पत्ते में नजर आ रहा था। मानो मुझसे कुछ कहना चाहते हों।
 
जाफरी जिनमें से आती स्वर्ण सिक्कों जैसी धूप को हम मुट्ठी में पकड़ा करते और कवेलू की टपर-टपर छतें अब नहीं रहीं। पक्का स्कूल बन गया। दो मंजिला। कम्प्यूटर वाला। सिर्फ जमीं-आसमां वही था बाकी सब बदल चुका था। आबोहवा भी।
 
कैसी विडंबना है न कि स्कूल जब कच्चे हुआ करते थे, तब विद्यार्थी पक्के निकलते थे। अब भले ही स्कूल पक्के हों, पर विद्यार्थियों के पक्के होने की कोई ग्यारंटी ही नहीं होती। हमारी पूरी पढ़ाई में जितना कुल जमा खर्च हुआ होगा, उसका लाखों गुना खर्च भी आज बच्चों को वैसा कुछ नहीं दे पा रहा, जैसा कि हमारी पीढ़ियों ने पाया।
 
मानवीय संवेदना का पाठ तो कपूर की तरह उड़ता जा रहा है। सरकारी स्कूलों की दिशा और दशा दोनों को दीमक लग गई। गली-गली में खुलते कथित अंग्रेजी 'पिराइवेट' स्कूलों ने कोढ़ में खाज का काम किया। सरकारी स्कूल में पढाई करना हिकारत का विषय बन गया।
 
प्रगति के नाम पर 'कर लो दुनिया मुट्ठी में' का मंत्र मोबाइल के रूप में बच्चों के हाथों में आ गया। उसकी बैटरी हाथों की लकीरों से सृजनात्मकता का हुनर खा गई। हथगोले के रूप में उन्हीं के हाथों में फट गई। नकारात्मकता से हाथ मिलाकर विध्वंस का पाठ पढ़ते, राग-द्वेष व ईर्ष्या को मन में पालते, सफलता का शॉर्टकट ढूंढते-तलाशते जिंदगी जाया करते यहां-वहां भटकते फिर रहे। भटकन की कुंठा को सिगरेट, गांजे व चरस के धुएं में उड़ा रहे या शराब-कबाब में उसे मिलाकर खाने-पीने की कुचेष्टा कर रहे।
 
बचपन को निगल जाने वाले ये टीवी, केबल के काले जहरीले कोबरा से तार, 'असमय वयस्क' कर देने वाले चैनल्स, सोशल मीडिया, नित नए तरीकों से हिंसा व कुकृत्यों को प्रमुखता से बार-बार 'ग्लोरिफाई' करना, फिल्मों में बढ़ती नंगई और हीरो-हीरोइनों के अविश्वसनीय कारनामों का सीधे-सीधे दिलोदिमाग पर असर होना।
 
सामाजिकता से टूट जाना, आधुनिकता का दिखावा करना, 'गर्लफ्रैंड-बॉयफ्रैंड' के फंडे, 'ब्रेकअप', बढ़ते बदन घटते कपड़े, 'स्टैट्स सिम्बॉल', 'हाय-हैलो' कहां से आया ये सब? कैसे आया? कौन लाया? संस्कृति 'कल्चर' हो गई, प्रार्थना करना 'अस्सेंबली' हो गया। 'एक्टिविटी' विषय हो गया। खेल 'स्पोर्ट्स' हो गया। देसी खेल रोज की दिनचर्या से नदारद हो चले, 'को-एजुकेशन' ने जोर पकड़ लिया।
 
सभी मां-बाप अपने बच्चों को श्रेष्ठ बनाना चाहते, सो अंग्रेजी स्कूल की तरफ बढ़ चले। अपनी हैसियत से बढ़कर फीस देकर। 'अंग्रेज भले ही चले गए, पर अंग्रेजीयत का रक्तचूषक जोंक 'चेंटा' गए सबके दिमाग में, जो पीढ़ियों को हम गुणसूत्र में देते चले जा रहे, जो अनियंत्रित हो चुका है। मितव्ययिता को अभाव समझकर शर्मिंदा रहने वाली नस्लें जन्म लेने लगीं। गलाकाट प्रतियोगिता खुलकर तांडव कर रही।
 
शिक्षा दानकर्म नहीं, विशुद्ध व्यावसायिकता में नफे-नुकसान का माध्यम बन गई। भ्रष्टाचार ने योग्यता को नकारकर अयोग्य धनाढ्यों को मौके उपलब्ध कराने शुरू कर दिए। व्यभिचार का बोलबाला ईमानदारी का मजाक बनाने लगा। आरक्षण के नुकीले विषैले कांटे सफलता की राहों में बिछा दिए गए। भारी-भरकम मोटी फीस की रकम अनारक्षित विद्यार्थियों के पांवों को लोहे की जंजीरों के रूप में जकड़ गईं।
 
देखते-ही-देखते शिक्षा व्यवस्था ऐसी ही कई बुराइयों का शिकार होती चली गई। सारा कच्चा चिट्ठा आज हमारे सामने है। कहीं-न-कहीं हम सभी भी तो इसके जिम्मेदार हैं। हमने भी तो अपनी राष्ट्रीय नैतिक जिम्मेदारियों से 'अपने को क्या करना?' वाली मानसिकता के तहत इन बीमारियों का इलाज करने की जगह मुंह ही फेरा। 'बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बहर कर देती है' का सिद्धांत यहां भी लागू हुआ। शिक्षा 'बिकाऊ' हो गई, 'टिकाऊ' नहीं।
 
सरस्वती, लक्ष्मी की गुलामी करने लगीं और हम सब लाचारी से सब-के-सब देखते रह गए। कौन हैं ये सब करने वाले लोग? क्या दूसरे ग्रह से आए? नहीं न? फिर आखिर क्यों? विरोध जरूरी है। जमकर पुरजोर विरोध कीजिए। आसानी से शिक्षा हासिल करना प्रत्येक भारतीय का जन्मसिद्ध अधिकार है।
 
भारत का हृदय मध्यप्रदेश। इसकी धड़कन इंदौर में बड़ा गणपति मंदिर के पीछे बने हुए इन स्कूलों ने जाने कितनी ही कन्याओं का जीवन रिद्धि-सिद्धियुक्त बनाया। आसपास कई सारे स्कूल लड़कों के भी रहे। तब 'क्वांटिटी' नहीं 'क्वालिटी' महत्वपूर्ण थी।
 
सरकारी स्कूल अपने नाम के साथ शिक्षकों और गुणी व मेधावी विद्यार्थियों के नाम से भी जाने जाते थे। प्राइवेट स्कूलों को कड़ी तगड़ी टक्कर देते। पर सभी के आपस में बेहद आदरपूर्वक रिश्ते हुआ करते थे। मुट्ठीभर राशि रकम से, जो कि कई बार इनाम और छात्रवृत्ति की रकम से ही फीस के रूप में पुरा जाती। पढ़ाई खर्च बोझा नहीं होता।
 
और कटा लेते हम सब अपनी जिंदगी के सफर के उम्मीदों का टिकट और आशाओं के स्टेशन पर विश्वास के चिराग को साथ लिए। मुस्कुराहटों की कलियों को चेहरे पे सजाए। संजीदगी की चुनर लहराते। सतरंगी सपनों के रथ पर सवार हो चल पड़े जिंदगी की जंग जीतने। शिक्षा-संस्कारों का कवच पहन, अपने गुणों-अवगुणों को जानते-पहचानते, गलतियों से सीखते व उनको सुधारते। अनुभवों की नई-नई कहानियों से परिचित होते। कई बार अपने-परायों की राजनीति का शिकार भी होते, पर हिम्मत नहीं हारते।
 
आज भी कई शिक्षक पूरे मनोयोग से अपने ज्ञान और ईमान से शिक्षा की अखंड ज्योति के दीप की रक्षा में अपना तन-मन-धन वारने में लगे हुए हैं। आज भी सरस्वती के मंदिर में श्वेत पद्म को कालिख से बचाने की नि:स्वार्थ सेवा में लगे हैं। आज भी वे गुरु हैं इस भारत भूमि में, जो तैयार कर रहे हैं अपने विद्यार्थियों को वेदों-पुराणों, इतिहास में वर्णित पराक्रमी, विदुषी, परम ज्ञानी विद्यार्थियों की ही तरह। एक सच्चे भारत मां के सपूत-सुपुत्री बनकर।
 
कलजुग का ये काला स्याह अंधेरा नहीं निगल पाया उन चमकते चांद-तारों व जुगनुओं की शीतल रोशनी को। बची रही है ऊर्जा इन सरस्वती उपासकों की और फैला रहे हैं उजाला खुद को दीपक की ही तरह जलकर। नमन उन सभी को। वंदन उनके गुणों को जिनके कारण जीवित है आज भी आस्था, मानवीयता व संवेदनशीलता का पाठ, जो हमें इंसान बनाता है।
 
किस्से हैं, बातें हैं, शिकवे हैं, नगमे हैं, यादें हैं। और यादें, याद आती हैं। हम सभी इस दुनिया में यादों के ही तो मारे हैं। इनसे ही हमारी खुशियां और इनसे ही हमारे गम जुड़े हैं। ये हमसे हैं और इनसे ही हम हैं। पर ये जो यादें हैं न, ये उस नटखट बालक श्रीकृष्ण की तरह हैं जिसे मां यशोदा रस्सी से बांध ही नहीं पाई थीं। हर बार रस्सी छोटी हो जाती थी। वैसे ही मेरे शब्द, मेरी सोच, मेरा लेखन सब कुछ उस रस्सी में तब्दील होता जा रहा है। नए-नए रूप में नए-नए किस्सों और बातों के साथ लगातार मेरे दिलो-दिमाग के दरवाजों में दस्तक देता ढीठ मेहमान की तरह पसर जाता है और जो जाने का नाम ही नहीं लेता।
 
पर थोड़ा विराम भी जरूरी है और आराम भी। अभी इतना ही। स्मृतियों के घोड़े दौड़ाते यादों के सफर में फिर मिलेंगे सुनहरी यादों के अभूतपूर्व किस्सों के साथ। शब्द भी हार जाते हैं कई बार जज्बातों से।
 
कितना भी लिखो... कुछ-न-कुछ बाकी रह ही जाता है...! 

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