सोशल मीडिया क्या वाकई सोशल है?

राकेश शर्मा
आज के वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में यदि फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग से कोई पूछे कि आपने जिस मंशा या जिस उपयोग को सोचकर फेसबुक जैसे सोशल प्लेटफॉर्म का निर्माण किया था, उस पर हम भारतीय कितना खरा उतरते हैं? तो मेरा अनुमान है कि उनका जवाब हमें खुश करने वाला तो कतई नहीं होगा कि फेसबुक नाम क्यों रखा गया इस सोशल साइट का? इससे जुड़े व्यक्ति अपने विचार रख सकें, क्योंकि व्यक्ति के विचार उसका चेहरा बन सकने की काबिलियत रखते हैं।


 

 
 
अपने जीवन के बीते हुए क्षणों को छायाचित्रों के रूप में अपने से दूर बैठे अपनों के साथ साझा कर अपने मित्रों से बांट सकें। पर क्योंकि आजकल जिस तरह फेसबुक का इस्तेमाल अधिकतर भारतीय लोग करते हैं उसकी कल्पना तो कभी भी नहीं की होगी जुकरबर्ग ने। आए दिन किसी भी महिला या लड़की की फोटो डालकर उसका अश्लील प्रोफाइल बनाकर ब्लैकमेल करने की खबरें पढ़ते ही रहते हैं हम सब!
 
परंतु सबसे भीषण और विस्फोटक पहलू यह है कि हम इसके द्वारा बहुत हद तक अधीर और नकारात्मक होते जा रहे हैं। फेसबुक पर दूसरे के फटे में टांग डाल देना आम बात है। फेसबुक पर किसी के पक्ष-विपक्ष में अपनी राय रखते-रखते आप इतने उग्र हो जाते हैं कि आप भद्रता की सीढ़ियों से कितना नीचे लुढ़क गए, ये आपको ही भान नहीं होता। 
 
फेसबुक पर बिना वजह किसी को व्यक्तिगत न जानते हुए और उससे न आपको कोई लाभ या हानि ही हुई है फिर भी आप अपने किसी पसंद के नेता के पक्ष में ऐसी वकालत शुरू कर देते हैं कि जैसे वो आपका कोई घनिष्ठ ही है और यदि उसका कोई विरोधी कोई बात उसके विरुद्ध बोल दे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यदि वो सामने हो तो उसका तिया-पांचा हुआ ही समझिए जबकि उससे आप न कभी मिले हैं और न उससे आपकी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी ही है।
 
'लेना एक न देना दो' की कहावत के अनुसार कोई भी तथ्य न होते हुए भी आप एक-दूसरे को ऐसे गरियाते हो कि यदि अभी फेसबुक पर हथियारों का इंतजाम भी हो तो यहीं सिर-फुटौव्वल हो जाए। न जाने कितने कत्ल रोजाना फेसबुक पर हो जाएं। अरे भाई, ये बताइए जब हम-आप लोगों की फिक्र नेता लोग नहीं करते, तो काहे को आप लोग अपनी ऊर्जा फालतू बातों में नष्ट करके एक-दूसरे के दुश्मन बनते हो? 
 
इस फेसबुक की बीमारी से दो वाकये तो मेरे साथ भी हो चुके हैं जिनमें से एक तो मेरे पड़ोसी मेरे बड़े भाई हैं। उनका नाम लेना उचित नहीं होगा। इन्हीं नेताओं के विरोध के चलते मुझसे उलझ पड़े और मुझे अन्फ्रेंड भी कर चुके हैं। महोदय, उचित तो यही है कि व्यक्ति की नीतियों का विरोध कीजिए, व्यक्ति को केंद्रित करके विरोध कभी मत कीजिए।
 
आजकल जहां देखिए वहां मोदी समर्थक राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के फोटो बनाकर उन पर अश्लील कमेंट कर रहे हैं। प्रत्युत्तर में उनके समर्थक भी ऐसा ही मोदी के लिए कर रहे हैं। इस सब में आप उन लोगों के पद की गरिमा को भी भूल जाते हैं, जो संविधान ने उन्हें दिया है।
 
ये कैसी विरोध लीला है, जो असभ्यता और अश्लील भाषा की ओर इस पीढ़ी को ले जा रही है? क्या आप किसी भी व्यक्ति को बिना जाने राह चलते गाली दे डालेंगे ये कहकर कि यह अच्छा आदमी नहीं है या जो आपको पसंद नहीं है। और अगर यदि वो आपका विरोध करता है तो आप उसे समझिए कि वो ऐसा क्यों कर रहा है? उसकी सुनिए और सुधार कीजिए। यदि इसके बावजूद वो विरोध करता है तो फिर उसे बकवास करने दीजिए, उसे उपेक्षित रहने दीजिए बजाय इसके कि आप भरे समाज में उसके लिए गालियां लिख देते हैं।
 
ऐसे में तब ये प्रश्न उठना लाजमी है कि सोशल मीडिया क्या वाकई सोशल है?
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