"हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम"

सुशोभित सक्तावत
दंभ को श्रेष्ठता का साक्ष्य मानने वाले ऑस्ट्रेलियाइयों के साथ यह पहली बार हुआ है कि उन्होंने सौजन्यवश मित्रता का हाथ बढ़ाया हो और उसे ठुकरा दिया जाए। स्टीव स्म‍िथ ने सीरीज़ ख़त्म होने के बाद भारतीय टीम को "बीयर पार्टी" के लिए बुलाया, अजिंक्य रहाणे जाना चाहते थे लेकिन विराट कोहली ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। 
 
स्टीव स्म‍िथ ने सीरीज़ के दौरान हुई बातों के लिए सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगी और विराट कोहली ने कह दिया, कंगारूओं से फिर से दोस्ती करने का सवाल ही नहीं उठता। पेशेवर दुनिया में ऐसी ढिठाई भरी "एरोगेंस" कम ही देखी जाती है। आश्चर्य नहीं कि अब कोहली की तुलना स्कूली बच्चों से की जा रही है। ऑस्ट्रेलियाइयों का अंदाज़ ऐसा है मानो उन्होंने मैत्रीपूर्ण रवैया दिखाकर कोई अहसान किया हो।
 
आज विराट कोहली ऑस्ट्रेलिया की आंखों में कांटे की तरह खटक रहा है। आज वह ऑस्ट्रेलिया में सर्वाधिक घृणास्पद व्यक्त‍ि बन गया है और ऑस्ट्रेलियाई मीडिया उस पर विशेषणों की बौछार कर रहा है। एक-एक अख़बार में कोहली के ख़िलाफ़ पांच-पांच लेख लिखे जा रहे हैं। उनकी थ्योरी है : स्म‍िथ की खेलभावना और उसके बरअक़्स कोहली की बचकानी अकड़। ऑस्ट्रेलिया वाले आज सचिन तेंडुलकर को बहुत मिस कर रहे हैं, जो मैक्ग्रा की गालियां चुपचाप सुन लेते थे और उन्हें महेंद्र सिंह धोनी की भी याद आ रही है, जो किसी भी घटना पर प्रतिक्रिया नहीं देना चाहते थे। कोहली उसको दूसरी अति पर ले गए हैं।
 
लेकिन मैं दावे से कह सकता हूं, कोहली को इसमें एक "मॉर्बिड" क़िस्म का सुख मिल रहा होगा। घृणास्पद होने का भी एक सुख होता है। और छवि को साफ़ रखने की स्वाभाविक मानवीय वृत्त‍ि को एक बार लांघ जाने के बाद आप उत्तरोत्तर घृणास्पद और विवादास्पद होने में आनंद लेने लगते हैं। वह एक "ट्व‍िस्टेड" क़िस्म की "एरोगेंस" है। "एरोगेंस" के कई रूप होते हैं जैसे कि एक भद्र और शालीन चुप्पी। जैसे कि ख़ुद से यह कहना, "आई एम टू गुड टु बी बैड एंड इफ़ यू आर बैड देन मे बी यू आर नॉट गुड इनफ़!"
 
दूसरे, जो परंपरागत रूप से आक्रामक रहे आए हों, वे आक्रामकता को अपना विशेषाधिकार समझ लेते हैं और दुनिया भी एक समय के बाद फिर उनसे वैसी ही उम्मीद करने लगती है। वहीं जो ऐतिहासिक रूप से विनयशील रहे आए हों, उनसे एक समय के बाद जैसे विनयशीलता की मांग की जाने लगती है। उनके द्वारा आक्रामकता के उसी प्रदर्शन को अभद्रता मान लिया जाता है, जो पहली वाली आक्रामकता के प्रदर्शन में स्वाभाविक था।
 
मनुष्यता का मनोविज्ञान अद्भुत है। सापेक्षता की बाध्यता ने मनुष्य को मतिमंद बना दिया है। बात केवल स्म‍िथ और कोहली की नहीं है, इसे आगे बढ़ाकर जीवन के दूसरे आयामों पर आरोपित करके देखिए। मसलन आक्रामक नस्लों और विनयशील नस्लों के प्रति दुनिया के रुख़ में। किसी को रियायत तो किसी को नसीहत के अंदाज़ में। वो शे'र यूं ही नहीं कहा गया था : "हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम/वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।"
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