वादों में विलुप्त पेयजल

विवेक त्रिपाठी
सोमवार, 13 फ़रवरी 2017 (18:47 IST)
विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्रों में विभिन्न प्रकार के लोक-लुभावन वादे किए। कोई लैपटॉप दे रहा तो कोई बिजली मुफ्त में दे रहा है। लेकिन शायद ऐसा कोई भी घोषणा पत्र हो जिसने साफ पानी देने का वादा किया हो। साफ पानी और हवा के मुद्दे गौण है। पर्यावरण की बातें सिर्फ गोष्ठी या सेमिनार लगाने से संभव नहीं है। उसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी पड़ेगी। लेकिन यह बात शायद किसी को याद रही हो। आज तक इस व्यवस्था के बिना ही घोषणा पत्र बनते रहे हैं। इस बात की चर्चा न तो किसी भाषण में होती है न ही कोई दल इसे मुद्दा मानता है।
जल ही जीवन है। चाहे कितनी भी आधुनिकता की बात कर लें, लेकिन जल के बिना कुछ नहीं कर सकते हैं। राजनीतिक दल को भी इसकी जरूरत है। शहर तो छोड़िए गांव में भी जल की कमी और शुद्ध जल मिलना मुश्किल हो रहा है। वे भी जलस्रोत सूखे जा रहे हैं। पानी की किल्लत से जुझना पड़ता है। फिर भी लोग इसे चुनावी मुद्दा नहीं मानते, यह बहुत दु:ख की बात है। पानी के बिना सब कुछ सूना है। इस पर ध्यान रखने की जरूरत है।
 
पानी को गंदा बनाने में कारखानों से निकलने वाला रसायनयुक्त दूषित जल, खेती-बाड़ी में अत्यधिक खादों का प्रयोग, नदी-नालों में फेंका जाने वाला कचरा बहुत बड़ा सहायक है। साथ ही प्राकृतिक जलस्रोतों की साफ-सफाई न रखना, जंगलों के अंधाधुंध कटान ने शुद्ध जल की मात्रा को घटाया है।
 
स्वतंत्रता पश्चात प्राकृतिक जल संसाधनों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि आज देश की 5.87 लाख बस्तियों में से लगभग 15 हजार बस्तियों में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है जबकि 2 लाख बस्तियों में आंशिक रूप से ही जल उपलब्ध है, दूसरी ओर अन्य 2.17 लाख बस्तियों में जल की गुणवत्ता पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगे हैं। 
 
पर्यावरण स्वैच्छिक संस्था ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट’ के एक अध्ययन एवं गणनानुसार यदि देश की औसत 1170 एमएम वर्षा जल की आधी मात्रा भी प्रत्येक गांव की 1.12 हेक्टेयर भूमि में एकत्रित कर ली जाए तो इस प्रकार संग्रहीत 6.57 मिलियन लीटर वर्षा जल समस्त गांव के पीने एवं खाना बनाने की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगा।
 
वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार पृथ्वी का 72 फीसदी हिस्सा पानी है। धरती पर उपलब्ध 97 फीसदी पानी खारा है। यह मछलियों के लिए अच्छा हो सकता है लेकिन हमारे लिए नहीं। पानी से नमक को अलग करने की प्रौद्योगिकियां बहुत ही महंगी हैं और किसी काम की नहीं है। तो सिर्फ 3 फीसदी जल बच जाता है जिनमें से 2.5 फीसदी अंटार्कटिक, आर्कटिक और ग्लेशियरों में जमा हुआ है।
 
आज भी ज्यादातर क्षेत्रों में ऑर्सेनिक व फ्लोराइड घुला हुआ पानी पीने को मिलता है। इसका स्वास्थ्य पर बहुत खराब असर पड़ता है। इस बात को पेयजल आपूर्ति मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी स्वीकार किया। उन्होंने माना कि आज भी देश के लगभग 67 हजार गांवों में पानी पीने लायक नहीं है, साथ ही उन्होंने यह भी माना कि गांवों के भूजल में खतरनाक ऑर्सेनिक व फ्लोराइड घुला हुआ है जिससे यहां के लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ रहा है। हालांकि उन्होंने सफाई भी दी व कहा कि स्वच्छ पेयजल आपूर्ति के लिए सरकार ने कई कारगर कदम उठाए हैं। इनमें लोगों को घर तक नल से पानी की आपूर्ति शामिल है। पाइप लाइन बिछाने से लेकर पानी को साफ करने का इंतजाम किया जाएगा।
 
देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित 1 लाख स्कूलों में प्रतिदिन 1,000 लीटर पानी साफ करने वाले आरओ संयंत्र लगाने की योजना है। उन्होंने बताया कि वर्ष 2022 तक 80 फीसदी आबादी को पाइपलाइन से स्वच्छ जलापूर्ति का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। लेकिन सवाल उठता है कि ऐसी योजना जमीन पर क्यों नहीं उतरती दिखाई देती, कागजों पर स्वच्छ पानी और वायु की बात तो होती है, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है।
 
उत्तरप्रदेश में भी चुनाव हैं। यहां भी सभी पार्टियों ने अपने-अपने घोषणा पत्र जारी किए लेकिन यहां से भी यह मुद्दा गायब है। यहां भी राजधानी में पानी में बहुत ज्यादा खराब मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है। गर्म करने पर सफेद रंग का कोई पदार्थ आता है। अधिकतर लोगों ने इससे निपटने के लिए घरों में आरओ तो लगा लिए हैं लेकिन गरीब आदमी के लिए यह व्यवस्था अभी भी ठीक नहीं है। पानी जीवन की मुख्य धारा है। जीने के लिए पानी कितना जरूरी यह बात किसी को बताने की जरूरत नहीं लेकिन फिर भी राजनीतिक दलों को यह बात याद नहीं रहती है।
 
अभी हाल में एक इंडियास्पेंड और फोर्थ लॉयन टेक्नोलॉजीज ने एक सर्वे किया जिसमें यूपी में उसे पाया कि पानी की किल्लत और स्वच्छ पानी 87 प्रतिशत वॉटर्स ने मांग की है। साथ इसमें कहा गया है कि सौर ऊर्जा के इस्तेमाल से पर्यावरण प्रदूषण में कमी आती है तो वे सौर ऊर्जा निर्मित बिजली का प्रयोग करना चाहेंगे। 46 प्रतिशत शहरी मतदाताओं ने कहा कि वे जिस हवा में सांस लेते हैं, वह प्रदूषित हो चुकी है जबकि 26 ग्रामीण मतदाता भी ऐसा ही मानते हैं।
 
मनुष्यों के लिए पानी हमेशा से एक महत्वपूर्ण और जीवनदायक पेय रहा है और यह सभी जीवों के जीवित रहने के लिए अनिवार्य है। वसा को छोड़कर मात्रा के हिसाब से मानव शरीर का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा पानी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जल जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण है। 
 
पानी में विभिन्न बीमारियों के कीटाणुओं का होना, हानिकारक रसायनों का होना, कठोरता होना पानी को पीने के अयोग्य बनाता है। अधिकतर आबादी को नदियों से जल आपूर्ति की जाती है। नदियों का जल विषाक्त तत्वों से परिपूर्ण होता है जिसके शुद्धिकरण की कोई नीति हमारी सरकार नहीं बना सकी है। कमोबेश यही हाल गांवों का भी है। आज भी कई गांव दूषित जल पीने को मजबूर हैं।
 
कहने को तो 86 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है, लेकिन पूरे देश में स्वच्छ एवं प्रदूषणरहित पेयजल का उपयोग करने वालों की संख्या 40-45 प्रतिशत के बीच ही है बाकी लोग तो जैसे भगवान भरोसे हैं। प्रदूषित पेयजल का उपयोग करने से लोगों, खासतौर पर बच्चों को डायरिया होने का खतरा मंडराता रहता है, वहीं पानी में घुले अन्य पदार्थों की वजह से हड्डियों के कमजोर होने, टेढ़े होने, पेट संबंधी बीमारियां और कैंसर जैसे जानलेवा रोगों के होने की आशंका रहती है।
 
मेडिकल सांइस के अनुसार अनेक बीमारियां दूषित पेयजल से उत्पन्न होती हैं। देश में अनेक क्षेत्र हैं, जहां के लोग प्यास बुझाने हेतु दूषित, गंदे पेयजल पर निर्भर हैं। इसके लिए उन्हें मशक्कत करनी होती है। यहां के पशु भी पानी के अभाव में अक्सर दम तोड़ देते हैं। इसका नुकसान भी इन क्षेत्र के लोगों को उठाना पड़ता है। इस स्थिति से निपटने की इच्छाशक्ति दिखाई नहीं देती है। जब संकट बढ़ता है, तब आपदा कार्य चलाए जाते हैं लेकिन स्थायी समाधान निकालने का प्रयास नहीं किया जाता है।
 
स्वच्छ पानी कैसे मिले, इस पर हर सरकार को ध्यान देना होगा। सिर्फ नीति बनाने से काम नहीं चलेगा इसके लिए दलगत राजनीति से हटकर कदम उठाने होंगे। पानी बचाना सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी है इसलिए इसे सरकार को मुख्य एजेंडे में शामिल करना होगा। इस पर समाज को भी जाग्रत रहना होगा तभी स्वच्छ पानी मिल सकता है। शुद्ध जल हर व्यक्ति को कैसे मिले इस पर भी कारगर उपाय करने होंगे। इसमें राजनीति का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।
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