भ्रम से बाहर आकर सनातन मार्ग पर वसीम की वापसी

विजय मनोहर तिवारी
मैं लंबे समय से वसीम रिजवी को सुन और पढ़ रहा था। उनका लिखा भी और उनके बारे में लिखा गया भी। मुख्य धारा के मीडिया यानी अखबार और टीवी चैनलों से ज्यादा सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर वे छाए हुए थे।

यूट्यूब चैनलों में उन्हें अपनी बात खुलकर और विस्तार से रखने के अवसर मिले। अखबार और चैनल इसीलिए अप्रासंगिक हो रहे हैं कि वे समाज की धड़कन से दूर हैं। लाखों की फालोइंग वाले कई अच्छे यूट्यूब चैनल सामयिक और ज्वलंत विषयों पर विश्वसनीय कंटेंट पूरे साहस से दे रहे हैं।

वसीम रिजवी को मैंने ऐसे ही चैनलों पर देखा और सुना। पैगंबर मोहम्मद पर लिखी उनकी किताब की पीडीएफ फाइल व्हाट्सएप की टेबल पर घूम रही है, जिसे मैंने पूरा नहीं पढ़ा है। मुझे कभी नहीं लगा कि वह सिर्फ सुर्खियां बटोरने के लिए ऐसा कर रहे हैं। ऐसी सुर्खियां कोई संजीदा और समझदार इंसान नहीं चाहेगा। वह एक ऐसे बिरले शख्स हैं, जो निडर होकर अपना पक्ष रखते हैं। हो सकता है कि वसीम जैसे हजारों मुसलमान हों, जो उनसे सहमत भी हों लेकिन वे मुखर नहीं हैं। इसीलिए वसीम बिरले हैं कि वे मुखर हुए।

वे अलग हैं, क्योंकि इस्लाम के प्रति अपने दृष्टिकोण को तर्कपूर्ण ढंग से समाज के सामने रखते आए हैं। भारत में इस्लामी हुकूमत के दौरान असंख्य मंदिर ढहाए गए, उन्हें या तो नष्ट करके छोड़ दिया गया या उन पर इबादतगाहें बना दी गईं, यह सत्य किसी से छिपा नहीं है। गांव-गांव में और देश के कोने-कोने में इसके प्रमाण हैं।
बलपूर्वक पहचानें बदली गईं, इसके विवरण दस्तावेजों में चप्पे-चप्पे पर मौजूद हैं। कब्जे, कत्लेआम और लूटमार की घटनाओं से भारत के मध्यकाल का इतिहास भरा हुआ है। वसीम जैसे स्कॉलर इन सबसे अच्छी तरह वाकिफ हैं। वसीम जैसे कम लोग हैं, जो अतीत के इन अध्यायों पर खुलकर बोलते हैं और तब वे अयोध्या के ढांचे की जगह मंदिर की वापसी की पैरवी करते हैं।

कुरान के कंटेंट में 26 आयतों को सुप्रीम कोर्ट के सामने रेखांकित करने वाले वसीम रिजवी अकेले नहीं हैं। दुनिया भर में दानिशमंद मुस्लिमों में इस पर गहरा मंथन जारी है।

ईरानी मूल के अली सीना से लेकर पाकिस्तान मूल के हारिस सुलतान को पढ़िए और सुनिए तो जान पाएंगे कि वसीम ने नया कुछ नहीं कहा, जिसे सुनने से सुप्रीम कोर्ट ने इंकार ही कर दिया जबकि ये आवाजें पूरी दुनिया में जमकर सुनी जा रही हैं। इस्लाम के भीतर पहली बार एक खदबदाहट है। इंटरनेट ने कुकर में वह सीटी दे दी है, जो बज रही है।

बेईमान भारतीय मीडिया ने सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के उस इंटरव्यू पर कुछ नहीं कहा, जिसमें उन्होंने यह कहकर हदीसों की प्रमाणिकता पर ही सवाल उठाए हैं कि इनका संकलन मोहम्मद के ढाई सौ साल बाद हुआ और आज के दौर में उन बातों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस्लामी जगत की यह सबसे बड़ी खबर थी, जिसे पूरी तरह दबा दिया गया।

अफगान मूल की डॉक्टर फौजिया रऊफ और बंगाल की सारा खान अब क्रमश: सरस्वती दासी और काली दासी के रूप में सनातन मार्ग से आ जुड़ी हैं, किस अखबार ने बताया? कराची के आरिफ अजाकिया को सौराष्ट्र के पुरखों की याद आती हैं और मरने के पहले सोमनाथ के समक्ष साष्टांग दंडवत होना चाहते हैं, किस चैनल ने यह खबर दी? ये सारी आवाजें दुनिया के हर उस देश में इंटरनेट पर बुलंद हैं, जहां इस्लाम है और जाहिर है कि इनमें किसी हिंदूवादी संगठन का हाथ नहीं है।

दिलीपसिंह जूदेव के चर्चित घर वापसी अभियान में वापस घर आने वाले जनजातीय भाई-बहनों के वे समूह थे, जो ईसाई मिशनरियों के असर में धर्मांतरित कर दिए गए थे। जूदेव सबके चरण पखारकर सनातन धारा में स्वागत करते थे। उन दिनों कांग्रेस के एक मुस्लिम नेता से घर वापसी पर बात हुई तो उन्होंने यह माना था कि छह पीढ़ी पहले वे हिंदू ही थे। मुस्लिम परिवारों में यह कोई ऐसी बात नहीं है, जो लोग न जानते हों। लेकिन उनका सवाल था कि आज अगर कोई वापस आना भी चाहे उसे कौन सा हिंदू बनाया जाएगा-ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ?

वसीम रिजवी के मामले में गाजियाबाद के डासना देवी मंदिर पीठ के चर्चित स्वामी नरसिंहानंद सरस्वती के सामने भी यही सवाल आया।

स्वामी की पारिवारिक पृष्ठभूमि त्यागी ब्राह्मण समुदाय से है। उन्होंने अपने समुदाय के असरदार लोगों से इस बारे में बात की और धूमधाम के बीच सनातन मार्ग से त्यागियों के ठिकाने पर आकर वसीम रिजवी जितेंद्र नारायण सिंह त्यागी हो गए।

स्वामीजी ने उनका गोत्र वत्स रखा। सनातन विचार के विशाल छत्र के नीचे कौन किधर विचर रहा है, किसे समस्या है? यहां मजहब के एक घेरे में सख्ती से हांकने वाले पहरेदार कट्टरपंथियों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। कोई मूर्ति पूजे, न पूजे, शास्त्र पढ़े, न पढ़े, दाढ़ी रखे, न रखे, टोपी पहने या टोपा या पगड़ी, कोई फिक्र नहीं, ध्यान लगाए या योग करे या कुछ न करे, चार्वाक को माने या वात्सायन को, वह सनातनी ही है। विचारों की स्वतंत्रता है, स्वच्छंदता नहीं इसलिए नैतिक मूल्यों की कड़क कसौटियां सनातन धर्म को एक मजबूत ढांचा देती हैं, जिनका उल्लेख वसीम रिजवी बार-बार कर रहे हैं।

लखनऊ के ही जाने-माने सैयद रिजवान अहमद ने अपने ताजा वीडियो में कहा कि वसीम ने उन बेहूदे मुसलमानों के गाल पर तमाचा मारा है, जो सिर्फ गालियां देना जानते हैं। वसीम को अपने ही समुदाय में इतना हतोत्साहित कर दिया गया कि उनके पास कोई चारा ही नहीं बचा। ये वो लोग हैं, जो पैगंबर या कुरान के बारे में किसी भी टीका-टिप्पणी पर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं, जबकि यह कोई सभ्य तरीका नहीं है। अगर कोई पैगंबर की शान में कुछ कह-सुन रहा है तो आप वहां से उठकर जा सकते हैं। अगर किसी ने किताब का अपमान किया है तो आप आस्थापूर्वक पन्ने बटोरकर सहेजकर घर में रख सकते हैं। गले रेतने की क्या जरूरत है?

जिस तरह धर्मांतरण होते रहे, उसी तरह मोहभंग होने पर घर वापसी भी उतनी ही पुरानी परंपरा है। मोहम्मद तुगलक का समकालीन कलमनवीस है जियाउद्दीन बरनी। उसके दस्तावेजों में ऐसे मुसलमानों के जिक्र हैं, जो इस्लाम को अलविदा कहते हैं। बरनी ने ऐसे लोगों को मुरतद ही कहा है और एक कट्टर मुसलमान की तरह मुरतद की सजाएं भी मजहब के कायदे से लिखी हैं।

मजहब का ऐसा कायदा वसीम रिजवी जैसे लोग हजम नहीं करते। वे स्वस्थ समाज के लिए समय के अनुकूल विचारों में ताजगी के पक्षधर हैं। चारों तरफ से बंद खिड़की, दरवाजे और रोशनदान घुटन ही पैदा करते हैं और वह या तो जानलेवा होती है या एक दिन बर्दाश्त के बाहर होती ही है।

किसी भी मुस्लिम देश में सुधार की सबसे महान पहल सौ साल पहले कमाल मुस्तफा पाशा ने तुर्की में की थी। किसी राष्ट्र में व्यापक सुधारों का वैसा दुनिया में दूसरा उदाहरण नहीं है। पाशा ने कुर्सी पर आते ही अपने इस्लामी देश को सेक्युलर घोषित किया। अब एक सच्चे सेक्युलर देश में किसी मजहबी रहनुमा की जरूरत नहीं थी, इसलिए सबसे पहले इस्लाम के खलीफा को दफा किया। तुर्की भाषा से अरबी और फारसी के मिश्रण को हटाया गया। शुक्रवार की बजाए रविवार साप्ताहिक अवकाश हुआ। नई मस्जिदों के निर्माण पर रोक लगा दी। पुरानी मस्जिदों को नेशनल मॉन्युमेंट घोषित कर दिया, जहां सबका स्वागत था। दाढ़ी, टोपी, छोटा पजामा, बड़ा कुरता, हिजाब, बुरका घर में, घर के बाहर सभ्य सेक्युलर की तरह आने को कहा गया।

और तो और पहली बार कुरान को अरबी की बजाए तुर्की में पढ़ना अनिवार्य किया गया। पाशा ने अल्लाह तक का तुर्की में अनुवाद कर दिया। वे अल्लाह को तानरी कहते हैं, जिसका तुर्की में अर्थ है-परमेश्वर। मुल्ले कुरान के अनुवाद पर भड़ककर बोले कि कुरान तो अरबी में ही पढ़ी जाएगी। पाशा ने तर्क दिया कि वो कैसा अल्लाह है, जो वही बात तुर्की में नहीं समझेगा?

सिर्फ दस साल में बिना इस्लाम को छोड़े कमाल ने अपने देश की शक्ल बदल दी। जब पाशा ने अंतिम सांस ली तो तुर्की के कृतज्ञ नागरिकों ने उन्हें अपना अतातुर्क कहा। अतातुर्क का मतलब राष्ट्रपिता, फादर ऑफ नेशन।
और जब तुर्की का महान अतातुर्क अपने राष्ट्र का ऐसा रूपांतरण कर रहा था तब 1920 में ‘भारत के अतातुर्क’ खिलाफत आंदोलन के जरिए इस्लाम के खलीफा की पैरवी करते हुए भारत की राजनीति में अवतरित हो रहे थे!

बदकिस्मतियों ने भारत का पीछा कभी नहीं छोड़ा। हिंदुओं का तो भगवान ही मालिक था, खिलाफत आंदोलन की उस भयावह शुरुआत ने मुसलमानों का भी कम नुकसान नहीं किया। दूषित सेक्युलर राजनीति ने अल्पसंख्यकों के नाम पर मुसलमानों की ऐसी बाड़ेबंदी कर दी, जहां किसी भी किस्म के सुधार की बात नहीं की जा सकती थी। घावों पर कॉस्मेटिक क्रीम लगाकर सेहतमंद होने का भ्रम पाला गया। भारत आज तक उसके दुष्परिणाम भोग रहा है।

वसीम रिजवी का मतलब हर प्रकार के भ्रम से बाहर आ जाना है। शाम को घर लौटे किसी भी सुबह के भूले का स्वागत ही किया जाना चाहिए।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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