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कारगिल के शहीद पर मार्मिक काव्य रचना
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प्रहलाद सिंह कविया
देखो स्वर्ग की वादी में,
है युद्ध छिड़ा कैसा क्षण ने।
मां भारती की आन बचाने,
है फौजें चढ़ आई रण में॥
दुश्मन पहले ही चढ़ बैठा,
बैठा पर्वत की ओट लिए।
भारत माता है पुकार रही,
जा रहा चोट चोट किए॥
रिपू का नाश करो चढ़कर,
ऐसा फरमान हुआ जारी।
फिर शंखनाद बजा रण का,
गुंज उठी कश्मीरी घाटी सारी॥
चली गोलियां, विस्फोट हुए,
है नरसंहार मचा देखा।
दुश्मन के लहु से रंगने चोला,
मस्तों का चला टोला देखो॥
मानव-मानव का खून बहाये,
यह देखकर मैं दंग हूं।
जो लाशें बिछा बढ़ती जा रही,
मैं उस टुकडी का अंग हुं॥
फिर देख रक्त अपनों का बहता,
मेरा भी खून खौल गया।
क्रोध ज्वाला भरकर सीने में,
दुश्मन पर धावा बोल दिया॥
चीर-चीर पर्वत की चोटी,
मैं चढ़ा दुश्मन पर काल बना।
घायल हुए निज साथी की,
रक्षा करने मैं ढाल बना॥
मां के नाम, बाबा के नाम,
दुश्मन बहुतेरे मारे हैं।
हर हर महादेव गुंज रहा,
भारत मां के जयकारे हैं॥
मां, रिपू था हमसे कई गुना,
टोली मेरी भी बिखर गई।
थे घायल साथी भी लड़ रहे,
फिर उनकी सांसें बिखर गई॥
दुश्मन की गोलियां आ लगी,
मां तेरे सुत की छाती पर।
दीपक कब तक प्रकाशित हो,
जब आन पड़ी हो बाती पर॥
मां उस पल तेरी याद आई,
सर हाथ फेर तुं दुलार रही।
दुश्मन खड़ा था सामने मेरे,
और भारत माता थी पूकार रही॥
बहिना की भीगी आंखें दिखी,
मेरे दिल में गड़ जैसे शूल गया।
जो हाथ पर उसने बांधा था धागा,
आज मैं संग में लाना भूल गाया॥
बाबा भरते थे गोदी में,
कंधों पर बिठाते प्यार करे।
घायल हुआ लहुलुहान मैं,
धूंधली यादों से हैं नैन भरे॥
लेकिन बाबा की सीखों से,
रक्षार्थ देश की अड़ा रहा।
दुश्मन की गोलियों के आगे,
सीना ताने मैं खड़ा रहा॥
गिरा और गिरकर संभल गया,
मैं रेंगकर भी आगे बढ़ता गया।
कैसे दूध लजाता अपनी मां का,
दुश्मन पर आगे चढ़ता गया ॥
दुश्मन को मार-मार कर मैंने,
रण में हाहाकार मचा दिया।
दुश्मन को मिटा विजय पाकर,
स्वर्णिम इतिहास रचा दिया॥
टाइगर हिल पर तिरंगा लहराया,
शोणित से उसकी शोभा निखर रही।
पड़ी मन्द मेरे हृदय की गति,
मां, अब मेरी सांसें बिखर रही॥
मां तिरंगा ओढ़कर तेरे आंचल में,
मै चिर नींद लेने आ रहा हूं।
बाबा के कन्धों पर फिर से,
निज भार देने आ रहा हूं॥
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