हिन्दी कविता : पिता हूं

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संजय वर्मा "दृष्टि"
पिता बेटी की आंखों में देखता 
सपने, कल्पनाएं 
अन्तरिक्ष में उड़ानों के 
पंख संजोता सपनों में। 
 
मन ही मन बातें करता 
बुदबुदाता 
मेरी बेटी का ध्यान रखना 
जानता हूं अन्तरिक्ष में 
मानव नहीं होते 
इसलिए हैवानियत का 
प्रश्न नहीं उठता। 
 
पिता हूं 
फिक्र है मुझे 
बड़ी हो चुकी बेटी की 
छट जाते हैं, जब भ्रम के बादल 
तब दूर से सुनाई देती है
भीड़ भरी दुनिया में 
उत्पीडन की आवाजें 
उन्हें रोकने का बीड़ा उठाती 
बेटी की आक्रोशित आंखें। 
 
देती चीखों के उन्मूलन का 
देखता हूं विस्मित नज़रों से 
फिर से संजोए सपनों को 
बेटी की आंखों में 
उडान 
उत्पीडन से निपटने की 
हौसलों,कल्पनाओं के साथ। 
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