उच्च कोटि की गोष्ठी का निमंत्रण

मनोज लिमये
आजकल शहर में गोष्ठियों का चलन है। शहर के हर छोटे-बड़े साहित्यिक भवन से गोष्ठियों की महक निकल रही है और साहित्यकार कस्तूरी मृग-से मगन यहां-वहां घूम रहे हैं। साहित्यकार अपने स्टैंडर्ड (जो वे खुद तय करते हैं) के अनुसार गोष्ठियों में शिरकत करते रहते हैं। रचनाकार का जीवन तब तक सफल नहीं माना जाता है, जब तक कि वह किसी न किसी गोष्ठी में भाग न ले लेंं।
शाम के समय कूरियर वाले की मधुर आवाज जब घर के बरामदे से सुनाई दी तो मैं दरवाजे की ओर लपका। ऐसा करने का कारण यह था कि कुछ करुणा-संपन्न समाचार-पत्रों से मानदेय इसी कूरियर सेवा के माध्यम से प्राप्त होता रहा है।
 
कुरियर वाले के हाथ में मेरे लिए एक श्वेत लिफाफा था तो अवश्य, परंतु वो मुझे कुछ अपरिचित-सा लग रहा था। उत्सुकतावश बरामदे में ही लिफाफे की शल्य-चिकित्सा कर डाली। लिफाफे में मानदेय का कोई चेक नहीं था अलबत्ता रविवार शाम को आयोजित होने वाली किसी साहित्यिक गोष्ठी का निमंत्रण था। ये पांच सितारा होटल में आयोजित होने वाली एक उच्च कोटि की गोष्ठी का निमंत्रण था। 
 
मैंने अपनी नन्ही सोच को कोष्टक में लेकर मनन किया और इस नतीजे पर पहुंचा कि कभी न कभी तो ये साहित्यिक पराक्रम दिखाना ही है तो फिर अभी क्यों नहीं? होटल के भीतर प्रवेश करना शायद उतना कठिन नहीं था जितना यह पता लगाना कि गोष्ठी इस भूल-भुलैया में किधर आयोजित है? 
 
खैर…!पूछताछ का आरंभिक युद्ध जीतकर मैं गोष्ठी स्थल पर पहुंच ही गया। वहां कुछ परिचित तथा कुछ अपरिचित-से चेहरे गोल टेबलों के आस-पास मौजूद थे। सामने की दीवार पर एक बैनर चस्पा था जिस पर विषय लिखा था- 'भाषायी दुर्दशा पर चिंतन बैठक।' 
अनायास दूरस्थ स्थित गोल टेबल पर विराजमान एक वरिष्ठ से लग रहे रचनाकारनुमा सज्जन हाथ में माइक लिए बोले कि जैसा सभी को विदित है कि ये गोष्ठी भाषा की दुर्दशा पर चिंतन हेतु आयोजित है अत: सभी इस दिशा में अपने विचार रखें कि भाषायी दुर्दशा से बचाव कैसे किया जाए?
 
मेरे बाईं ओर की कुर्सी पर विराजमान साहित्यकारनुमा शख्स ने टेबल पर पड़ी प्लेट से पनीर का टुकड़ा उठाकर मुंह के हवाले करते हुए कहा कि देखिए जब सरकार ही अपनी भाषा का सम्मान वर्ष में एक बार करेगी तो हालत ऐसी ही होनी है।
 
मैं अभी इस वक्तव्य से सहमत भी नहीं हो पाया था कि पीछे वाली टेबल पर से आवाज आई कि सब बातें सरकार के भरोसे नहीं छोड़ी जातीं जनाब, कुछ हमारा भी फर्ज बनता है इस दिशा में। इस बात के उठने के बाद मेरी स्थिति दोराहे पर खड़े व्यक्ति जैसी हो गई।
 
मामले की गंभीरता को समझ अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ रचनाकार बोले कि बहस नहीं, परिणाम चाहिए साहब। उपाय बताएं, समस्याएं नहीं। 
 
मैंने बोलने के लिए हाथ उठाया, परंतु किसी ने मेरी ओर देखा नहीं। मेरे समीप पदस्थ कवि व्यक्तित्व वाले सज्जन बोले कि एक ही उपाय है कि साहित्यकारों की इस प्रकार की गोष्ठियां हर माह होती रहें और रोडमैप तैयार किए जाते रहें। 
 
प्रत्येक माह आयोजित होने वाली गोष्ठियों के लिए कमोबेश सभी एकमत से सहमत नजर आए कि 'अच्छे साहित्य को बचपन से स्कूलों में पढ़ाया जाए, जनप्रतिनिधि भाषायी त्रुटियों पर विशेष ध्यान दें तथा गोष्ठी पश्चात आयोजित भोज में नॉनवेज भी सम्मिलित किया जाए', जैसे तीन-चार और सुझावों के बाद धन्यवाद ज्ञापित कर अगली गोष्ठी की तिथि का निर्धारण हुआ तथा मेरे सहित सभी लॉन में आयोजित भोज पर टूट पड़े।
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