ज़ाकिया जाफ़री को अब क्या करना चाहिए?

श्रवण गर्ग
ज़ाकिया जाफ़री अब आगे क्या करने वाली हैं? वे और कितना पैदल चल पाएँगी? इंसाफ़ के लिए लड़ते रहने के लिए तिरासी साल की उम्र कोई कम नहीं होती! ज़ाकिया पिछले सोलह साल से बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) में जन्मे और अहमदाबाद के लोगों की बेइंतिहा मोहब्बत पाने वाले अपने पति एहसान जाफ़री और अन्य निर्दोष नागरिकों की निर्मम तरीक़े से की गई हत्या के दोषियों के ख़िलाफ़ न्याय पाने के लिए अदालती लड़ाई लड़ रहीं थीं।

अट्ठाईस फ़रवरी 2002 को उत्तरी अहमदाबाद में मेघानीनगर की उच्च-मध्यमवर्गीय मुस्लिम बस्ती गुलबर्ग सोसायटी में दंगाइयों ने एहसान जाफ़री की हत्या करने के बाद उनके शरीर को आग में झोंक देने के साथ ही उनके बंगले में शरण लेने वाले अड़सठ लोगों को ज़िंदा जला दिया था।

ज़ाकिया लड़ाई हार गईं हैं! देश की सर्वोच्च अदालत में भी उनकी प्रार्थना अस्वीकार हो गई है। न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणी को आधार बनाकर उनकी क़ानूनी मदद में बहादुरी से जुटीं सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार तीस्ता सीतलवाड़ को गुजरात पुलिस के आतंकवाद-निरोधी दस्ते द्वारा मुंबई से गिरफ़्तार कर लिया गया।(सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी लोकुर ने यह जानने/स्पष्टीकरण की अपील की है कि क्या न्यायालय के फ़ैसले में तीस्ता को गिरफ़्तार करने के संबंध में किसी भी तरह का इरादा अथवा सुझाव व्यक्त किया गया है?)

ज़ाकिया अब पूरी तरह से अकेली हैं।उनके साथ सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली वह कांग्रेस भी नहीं है जिसके उम्मीदवार के तौर पर उनके पति एहसान जाफ़री 1977 में उस समय अहमदाबाद से सांसद चुने गए थे जब आपातकाल के बाद हुए चुनावों में पार्टी का गुजरात समेत देश के बाक़ी राज्यों में भी सफ़ाया हो गया था।

ज़ाकिया का इस बुरे वक़्त में एकमात्र सहारा उनकी बेटी निशरीन हैं। गुलबर्ग सोसायटी में एहसान जाफ़री की नृशंस हत्या और बाद में अड़सठ लोगों को आँखों के सामने ज़िंदा जला दिए जाने के बाद तब तिरसठ साल की ज़ाकिया दंगाइयों की नज़रों से किसी तरह अपनी जान बचाती हुईं अहमदाबाद से गाँधीनगर स्थित अपने भाई के ठिकाने तक पैदल पहुँचीं थीं।बताया गया था कि तीस किलोमीटर की यात्रा पूरी करने में ज़ाकिया को तीन दिन लगे थे।

इंसाफ़ की माँग के लिए 8 जून 2006 को की गई ज़ाकिया की पहली शिकायत तिरसठ लोगों के ख़िलाफ़ थी जिसमें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके मंत्रिमंडल के कुछ प्रभावशाली सदस्य, विधायक, भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अफ़सर और राजनेताओं के नामों का उल्लेख था।ज़ाकिया की शिकायत में उल्लेखित आरोपों को निरस्त करते हुए न्यायमूर्तिगण ने टिप्पणी की कि वर्षों से जारी प्रकरण को किसी गुप्त प्रयोजन से गर्मा कर रखा जाना प्रतीत होता है।

मामले के अनुसंधान के दौरान जितनी भी जानकारी एकत्र की गई उससे इस आशय का कोई मज़बूत या गहरा संदेह प्रकट नहीं होता कि अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ पूरे राज्य में सामूहिक हिंसा के लिए उच्चतम स्तर पर कोई षड्यंत्र रचा गया हो अथवा जिन लोगों के नामों का शिकायत में उल्लेख किया गया है उनके किसी भी स्तर पर शामिल होने का संकेत प्राप्त होता हो।न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया कि न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग में शामिल लोगों पर क़ानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।

गोधरा कांड और उसके तत्काल बाद अहमदाबाद सहित गुजरात के अन्य स्थानों पर हुए दंगों के दौरान केंद्र में अटलजी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार थी।अटलजी ने तब गुजरात का दौरा भी किया था।उनकी उस समय की बहु-प्रचारित टिप्पणी है कि राज्य सरकार ने अपने ‘राजधर्म’ का पालन नहीं किया।

किसी ने उस समय या बाद में यह सवाल नहीं पूछा होगा कि अगर प्रधानमंत्री ने अपने राजधर्म का पालन किया होता तो वे गुजरात में क़ानून और व्यवस्था की स्थिति के मुद्दे पर राज्यपाल से रिपोर्ट मँगवाकर मोदी सरकार को बर्खास्त कर सकते थे।(दंगों के समय सुंदर सिंह भंडारी गुजरात के राज्यपाल थे।) तब किसी ने यह आरोप भी नहीं लगाया कि अटलजी में गुजरात के मुख्यमंत्री को नाराज़ करने का साहस नहीं था।

ज़ाकिया द्वारा जून 2006 में दर्ज करवाई गई पहली शिकायत के दौरान दिल्ली में यूपीए की हुकूमत थी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। यह सरकार 2014 तक सत्ता में भी रही।ज़ाकिया को उम्मीद रही होगी कि अपनी ही पार्टी के एक पूर्व सांसद की हत्या से जुड़े प्रकरण में यूपीए सरकार उनकी पूरी मदद करेगी। ऐसा नहीं हुआ।

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद तीस्ता सीतलवाड़ के साथ ही हिरासत में लिए गए गुजरात के तत्कालीन अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक आरबी श्रीकुमार ने ‘द टेलिग्राफ़’ अख़बार को बताया कि मनमोहन सिंह सरकार के दो मंत्रियों (रक्षामंत्री एके एंटनी और गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे) को दंगों की जाँच के लिए उन्होंने दो पत्र लिखे थे।जब दोनों ने कोई रुचि नहीं दिखाई तो उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिखा।प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन्हें सूचित किया कि रक्षा और गृह मंत्रालयों को कार्रवाई करने के लिए कहा गया है।श्रीकुमार के अनुसार, दोनों ही मंत्रालयों ने फिर भी कुछ नहीं किया।

अपनी ही पार्टी की राज्य सरकार के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर दिखाने के पीछे अटलजी की असमर्थता और यूपीए सरकार के मंत्रियों का नैतिक भ्रष्टाचार अपनी जगह इतिहास में दर्ज है, सवाल यह है कि एक बूढ़ी औरत को अदालत से न्याय की माँग पर अंतिम फ़ैसला प्राप्त करने में इतने लंबे अरसे तक प्रतीक्षा करते हुए अपनी बची हुई साँसों में कमी क्यों करना पड़ी? एक ऐसा फ़ैसला जिसकी उन्हें क़तई उम्मीद नहीं रही होगी!

जून 2006 में दर्ज की गई पहली शिकायत पर जब कोई कार्रवाई नहीं हुई तो ज़ाकिया ने हाईकोर्ट से प्रार्थना की कि उनकी शिकायत को ही एफआईआर मान लिया जाए।हाईकोर्ट द्वारा नवंबर 2007 में उनकी प्रार्थना निरस्त कर दिए जाने के ख़िलाफ़ वे सुप्रीम कोर्ट पहुँचीं।

मार्च 2008 में न्यायमूर्ति अरिजित पसायत,पी सथाशिवम् व आफ़ताब आलम की तीन सदस्यीय पीठ ने यह कहते हुए कि सांप्रदायिक सद्भाव लोकतंत्र की कसौटी है, गुजरात सरकार को निर्देशित किया कि वह गुलबर्ग सोसायटी सहित अन्य मामलों की जाँच के लिए सीबीआई के सेवानिवृत्‍त निदेशक आरके राघवन के नेतृत्व में एक एसआईटी के गठन की अधिसूचना जारी करे।

एसआईटी ने अपनी जाँच में पाया कि शिकायत में लगाए गए सभी आरोप बेबुनियाद हैं।फ़रवरी 2012 में एसआईटी ने मामले में क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल करते हुए मोदी सहित सभी 63 लोगों को क्लीन चिट दे दी।एसआईटी की क्लोज़र रिपोर्ट के ख़िलाफ़ ज़ाकिया गुजरात हाईकोर्ट पहुँचीं, जहां 5 अक्टूबर 2017 को उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई।

पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी की रिपोर्ट पर मोहर लगा दी, पर याचिकाकर्ता के वकीलों के आग्रह पर उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने प्रोटेस्ट पिटीशन देने का अधिकार दे दिया। मजिस्ट्रेट ने भी एसआईटी की रिपोर्ट को सही माना। याचिकाकर्ता इससे संतुष्ट नहीं हुए और 2018 में मामले को पुनः सुप्रीम कोर्ट में ले गए, जहां 24 जून को अंतिम फ़ैसला दिया गया।

आठ जून 2006 को गुजरात में की गई पहली शिकायत से लगाकर 24 जून 2022 को नई दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए अंतिम फ़ैसले तक ज़ाकिया जाफ़री की अपीलें हर जगह ख़ारिज होतीं रहीं, पर इस अकेली पड़ती बूढ़ी महिला ने हार नहीं मानी। 2018 से जून 2022 के बीच सुप्रीम कोर्ट में भी अंतिम सुनवाई के लिए मामला अनेक बार स्थगित हुआ।

ज़ाकिया को जानकारी थी कि उनकी लड़ाई ताकतवर लोगों से है, पर वे लड़ती रहीं।उन्होंने गुजरात भी नहीं छोड़ा। 2002 के दंगों के बाद एक बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने भय के कारण गुजरात से पलायन कर दिया था, पर कश्मीर घाटी की तरह उसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं किया जाता।

अब तो क़ानूनी लड़ाई में ज़ाकिया का साथ देने वाली तीस्ता भी गुजरात पुलिस की हिरासत में हैं।आपका क्या सोचना है? ज़ाकिया को अब आगे क्या करना चाहिए? क्या इंसाफ़ प्राप्त करने की अपनी लड़ाई उन्हें बंद कर देना चाहिए? (इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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