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देश में पसरे इस विरोध और हिंसा के पीछे कौन है?

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अवधेश कुमार

निस्संदेह, इससे भयावह परिदृश्य देश के लिए शायद ही कुछ होगा। जुम्मे की नमाज के बाद कई राज्यों में एक साथ जिस तरह उग्र हिंसक प्रदर्शन हुए उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। जो कुछ हुआ वह सबके सामने है। इसलिए उसे दोहराने की जरूरत नहीं। जब भी इस तरह का हिंसा होती है तो हर विवेकशील भारतीय सोचता है कि इस समय हमारा दायित्व सबसे पहले देश में शांति स्थापित करना है। निंदा, आलोचना और विरोध बाद में कर लेंगे पहले देश को बचाना जरूरी है।

जाहिर है, ऐसे समय हमेशा शांति, सद्भावना तथा मेल मिलाप की बात को ही प्राथमिकता दी जाती है और यह सही है। किंतु अगर कुछ समूह, संगठन या लोग हर दृष्टि से सक्रिय हो कि यहां अशांति और उपद्रव पैदा करना है तो शांति और सद्भाव की भाषा सफल नहीं होती। यह प्रयास तभी सफल होग जब समूची स्थिति को ठीक से समझा जाए। लोकतांत्रिक देश में सबको किसी मुद्दे पर अपना विरोध प्रकट करने का अधिकार है। किंतु विरोध हमेशा क्यों, कब और कैसे के साथ आबद्ध रहना चाहिए। जुम्मे की नमाज के बाद मस्जिदों से निकलकर किए गए विरोध प्रदर्शन ज्यादातर जगह डरावने थे। अनेक जगह जिस तरह की हिंसा हुई उनसे साफ हो गया कि विरोध नियोजित करने वाले के इरादे कुछ और थे और हैं। धीरे- धीरे सच सामने आ भी रहा है। यह बात सामान्य लोगों के गले नहीं उतरती कि विरोध प्रदर्शन के लिए जुम्मे का दिन और नमाज के बाद का समय ही क्यों चुना गया होगा?

देश के अनेक हिस्सों में एक ही समय एक साथ एक ही तरह के प्रदर्शन स्वतः स्फूर्त नहीं हो सकते। निश्चित रूप से इसके पीछे योजना थी। कुछ समूह, संगठन और लोग निश्चित रूप से इसकी योजना बना रहे होंगे। इतने क्षेत्रों में ये बातें कैसे और क्यों पहुंची होंगी यह प्रश्न भी मायने रखा जाना चाहिए। टेलीविजन डिबेटों में बैठने वाले अनेक मुस्लिम चेहरे बता रहे हैं कि मुसलमान सब कुछ सहन कर लेगा, लेकिन अपने नबी का अपमान नहीं सहेगा। इस तरह की सोच इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि हिंदुओं के अंदर दूसरे मजहब के या उनके संस्थापकों- पैगंबरों के बारे में हमेशा सम्मान का भाव रहा है। अपमान की तो सोच भी नहीं सकते।

टेलीविजन डिबेट में भाजपा की एक प्रवक्ता द्वारा की गई टिप्पणी को इन सबका कारण बताया जा रहा है। किसी सभ्य समाज का तकाजा यही है कि अगर कोई टिप्पणी आपको गलत लगता है तो उसका जवाब तथ्यों और तर्कों से दिया जाए। अगर भारत के कानून का उसमें उल्लंघन है तो कानूनी एजेंसियों को कार्रवाई करने दी जाए। कानूनी एजेंसियां कार्रवाई नहीं करतीं तो आपके पास न्यायालय में जाने का रास्ता खुला हुआ है। न्यायालय भी अंततः कानूनी दायरे में ही कार्रवाई करेगा। यहां समस्या यह है कि एक ओर तो ये संविधान और कानून की बात करते हैं, न्यायालयों में विश्वास प्रकट करते हैं, लेकिन दूसरी ओर स्वयं देश को भयभीत करते हैं। आखिर इस तरह के विरोध प्रदर्शनों का लक्ष्य क्या हो सकता है? यही न कि आक्रामक उग्र प्रदर्शनों से सरकार, पुलिस, प्रशासन और गैर मुस्लिमों को डराया जाए? संदेश दिया जाए कि हमारे विरुद्ध किसी प्रकार की कार्रवाई हुई तो हम देश में उथल-पुथल मचा देंगे?

अगर लोकतंत्र का किंचित भी सम्मान इनके मन में होता तो इस तरह जुम्मे की नमाज के बाद आक्रामक और विरोध प्रदर्शन नहीं होते, आपत्तिजनक नारे नहीं लगाए जाते, हिंसा नहीं होती। लोकतांत्रिक व्यवस्था और कानून के शासन में किसी भी प्रकार के आरोप या अपराध के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की निर्धारित प्रक्रिया है। प्राथमिकी दर्ज हो गई है तो प्रक्रिया के हिसाब से कार्रवाई होगी। गिरफ्तारी का मूल मकसद यही है कि आरोपी बाहर रहा तो वह साक्ष्यों को नष्ट कर सकता है, छेड़छाड़ कर सकता है। इस मामले में सबूत छिपाने, नष्ट करने या छेड़छाड़ करने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि जो बोला गया और लाइव डिबेट का हिस्सा है और उसके वीडियो हर जगह उपलब्ध है। बावजूद पुलिस या न्यायालय को आवश्यक लगा तो गिरफ्तारी भी हो सकती है। कानूनी प्रक्रिया हिंसा के दबाव में तो नहीं बदल सकती।

ध्यान रखने बात है कि अगर मुसलमानों में इतना गुस्सा था तो डिबेट के दो-चार दिनों के अंदर विरोध विरोध प्रदर्शन होना चाहिए। घटना के 17 दिनों बाद प्रदर्शन का मतलब है कि कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाने वाली बात है। डिबेट के बाद दो जुम्मे के नमाज भी निकल गए। साफ है कि भाजपा प्रवक्ता के टीवी डिबेट के उस हिस्से को बहाना बनाया गया। असल मकसद कुछ और है। वास्तव में मुसलमानों के अनेक बड़े चेहरों का अस्तित्व भाजपा, संघ यहां तक कि हिंदुओं से भय बनाए रखने पर टिका है। वे ऐसे अनेक समूहों संगठनों व्यक्तियों से रिश्ता रखते हैं जो सामने नहीं दिखते। पिछले काफी समय से दुष्प्रचार किया जा रहा है कि मुसलमानों की सारी मस्जिदें छीन जाएगी, एक दिन उनके लिए अपने मजहब का पालन करना संभव नहीं रहेगा, नमाज नहीं पढ़ सकेंगे, रोजा नहीं रख सकेंगे आदि आदि। ज्ञानवापी मामला उभरने के बाद हमने देखा कि मजहबी राजनीतिक मुस्लिम नेताओं ने कैसी आग लगाने वाली भाषाएं बोली है।

असदुद्दीन ओवैसी ने सिर पर सफेद कपड़ा बांध लिया जो कफन का प्रतीक है। कानपुर के एक मौलाना ने कहा कि सिर पर कफन बांध कर निकलेंगे। देवबंद में जमीयत ए उलेमा ए हिंद के सम्मेलन में पारित प्रस्ताव व भाषण उत्तेजित करने वाले थे। दुष्प्रचार यह  किया गया है कि मोदी और योगी सरकार जानबूझकर ज्ञानवापी मामले को सामने लाई है जबकि पूरा मामला ही न्यायालयों के कारण आया है। यह भी दुष्प्रचार हो रहा है कि धीरे-धीरे सारे प्रमुख मस्जिदों पर ये दावा करेंगे कि यह पहले हिंदू मंदिर था।

मुसलमानों के अंदर या भावना तीव्रता से पैदा करने की कोशिश हुई है कि अगर उठकर लड़ने मरने को तैयार नहीं हुए तो तुम और तुम्हारा मजहब दोनों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में ये लोग भाजपा के पराजय की कामना कर रहे थे। इसके उलट योगी आदित्यनाथ फिर मुख्यमंत्री बन गए। रमजान के महीने में एक भी नमाज सड़क पर नहीं हुआ। मुस्लिम नेता सड़कों पर नमाज को भी सरकार एवं प्रशासन पर दबाव के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। मुसलमानों को बताया जाता था कि सड़क पर उतरने से तुम्हारी संख्या बहुत ज्यादा दिखती है और इसका असर नेताओं व प्रशासन पर होगा। सड़क से हटाने का मतलब तुमको कमजोर बना देना है। यह समय है कि उठो सड़कों पर उतरो और अपने अस्तित्व बचाने के लिए लड़ाई लड़ो अन्यथा भाजपा की सरकारें हमें कहीं का नहीं रहने देंगी। इससे आम मुसलमानों में भय और आशंका पैदा होना स्वभाविक है।

निश्चित रूप से इस तरह का भाव पैदा करने के साथ कोई संगठन, समूह, व्यक्तियों का समूह इसकी तैयारी में सक्रिय था। एक ही समय में देश के 11 राज्यों में जुम्मे की नमाज के बाद मस्जिदों के बाहर प्रदर्शन बगैर बड़ी तैयारी के संभव ही नहीं थी। जगह जगह पत्थरबाजी और तोड़फोड़ एकाएक हुए प्रदर्शन में संभव नहीं। प्रयागराज में तो बम तक चले। पश्चिम बंगाल में कई दिनों तक हिंसा होती रही है। मुस्लिम समुदाय के अंदर से ही कुछ संगठन और व्यक्तियों के नाम सामने आ रहे हैं। पुलिस की कार्रवाई से भी काफी सच सामने आ रहा है। उत्तर प्रदेश में इनके विरुद्ध कानून की सख्ती से काफी लोग पकड़े गए हैं।

आने वाले समय में इसका भी खुलासा होगा कि किन- किन स्रोतों से इसके लिए धन आया किन्हें किस तरह मिला। या राज्यों के पुलिस प्रशासन की जिम्मेवारी है कृषक सामने लाए और दोषियों के विरुद्ध इस तरह की कार्रवाई हो कि आगे ऐसा अपराध करने की कोई सोचे तक नहीं। इन्हें समझना पड़ेगा कि भारत में मुसलमानों की संख्या 2 देशों के बाद सबसे ज्यादा है लेकिन हम इस्लामी मुल्क नहीं है कि ईशनिंदा जैसा कानून बना दें। हमारे यहां फार्म और पंथ के अंदर भी बाहर और विमर्श की परंपरा है। हिंदू धर्म के देवी देवताओं के विरुद्ध ना जाने कितनी अपमानजनक टिप्पणियां पुस्तकों में भरी है। पता चलने पर उनका विरोध भी होता है पर ऐसी नौबत कभी नहीं आई की भारी संख्या में लोग सड़कों पर उतर कर हिंसा और उत्पात कर दें। लेकिन प्रश्न है कि जो इस तरह के विवेक सम्मत बार किया उत्तर सुनने को ही तैयार नहीं उनके साथ क्या किया जाए?

नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है।

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