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भीड़, भगदड़, मौतों में आखिरकार दोषी कौन?

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हमें फॉलो करें Stampede in Karur Tamil Nadu
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रमण रावल

Stampede in Karur Tamil Nadu: पहली नजर में हम ऐसी किसी भी रैली, सभा, मेले, समागम के आयोजक की तरफ आरोपों की पोटली उछाल देते हैं, जहां भगदड़ मचने के बाद मौतें होती हैं। लोग कुचले जाते हैं, बेतरह घायल होते हैं। मुझे अभी तक यह समझ नहीं आया कि इन लोगों को भीड़ का हिस्सा बनने के लिए उकसाता कौन है? कौन इन्हें बंदूक की नोंक पर रैलियों में ले जाता है। कौन इन्हें किसी दिन व समय विशेष पर स्नान, दर्शन के लिए बाध्य करता है? जब हर जगह स्व प्रेरणा से जाते हैं। भीड़ में शामिल होते हैं। खुशी-खुशी अपने खर्च से यात्रा करते हैं। आस्था और दीवानगी में गिरे-पड़े जाते हैं तो लाख टके का सवाल यह है कि फिर ऐसी किसी भी जगह होने वाले हादसे के लिए कोई आयोजक, कथा वाचक, खिलाड़ी, फिल्मी हीरो, नेता, सरकार जिम्मेदार कैसे हो जाती है? ज्यादा नहीं तो थोड़ा विचार तो कीजिएगा, इस बात पर।
 
पहले हम बात कर लेते हैं तमिलनाडु के करूर की, जहां 27 सितंबर को नेता-सह-अभिनेता विजय थलापथि की रैली में 10 हजार के अनुमान से 5 गुना याने करीब 50 हजार लोगों के आ जाने से भगद़ड मची और 41 लोग मारे गए। वाकई यह बेहद दुखद घटना है। इसकी जांच भी होगी और कोई उलझे-उलझे-से निष्कर्ष भी आएंगे और शायद ही कोई दोषी करार दिया जाए। अभी तक कब ऐसा हुआ? क्या विराट कोहली, रॉयल चैलेंजेस बंगलुरु, उप्र सरकार या कथा वाचक प्रदीप शर्मा पर कोई आंच आई है? नहीं आ सकती।
 
इसलिए कि कोई भी आयोजक किसी को जबरदस्ती तो बुलाता नहीं। लोग अलग-अलग काऱणों से ऐसी किसी भी जगह जाते हैं। कहीं क्रिकेटर की दीवानगी है तो कहीं फिल्मी हीरो का आकर्षण। कहीं धर्म-आस्था का भाव है तो कहीं दु:ख-परेशानी के निदान स्वरूप रूद्राक्ष मिलने की आस। तो फिर दोषी वो क्यों, जहां भीड़ गई? यह ठीक वैसा ही मसला है, जैसे पहले मुर्गी आई या अंडा । आज तक इसका जवाब नहीं आया तो इस साधारण से सांसारिक मसले का कहां से आयेगा कि भगदड़ से हुई मौतों की जवाबदारी किसकी है?
 
ऐसा भी नहीं है कि भगदड़ में मौतें केवल भारत का ही मसला है। यह तो दुनिया में उन तमाम जगहों की कहानी है, जहां किसी कारण से भीड़ जुटती है और हादसे हो जाते हैं। यह ठीक ऐसा ही है कि गरीब की जोरू सबकी भाभी हो जाती है। इस तरह से जिसके लिए भीड़ जुटी हो, प्रथम दृष्टया दोष भी उसी का। विसंगति यह है कि ऐसी किसी भी हस्ती की अपनी छवि होती है, रसूख होता है, लोकप्रियता होती है। समाज के किसी खास तबके पर उसका प्रभाव होता है। एक बड़ा वोट बैंक होता है। उससे हाथ कौन धोये तो सब धीरे-धीरे पल्ला झाड़ लेते हैं। हां, तत्काल लाशों की बोली लग जाती है। यह इस पर निर्भर करता है कि मौका क्या था, किसके लिए था और उसके तात्कालिक प्रभाव या दुष्प्रभाव क्या हो सकते हैं। उस मान से 5-10 लाख तो कभी इक्का-दुक्का मौत होने पर करोड़-पचास लाख की बोली भी लग जाती है। घायलों को कुछेक हजार मिल जाते हैं। अस्पताल में मरहम-पट्‌टी मुफ्त हो जाती है। अखबार, टीवी में फोटू छप जाती है। बस हो गया।
 
तो इसका निदान क्या? सीधी-सी बात है कि न रहे बांस न बजे बांसुरी। यानी ऐसी किसी जगह आप जाएं ही क्यों जहां हजारों की भीड़ जुटना हो और भगदड़ मच सकती हो। भोपाल में तो लोगों ने हेलमेट के लिए भगदड़ मचा दी। वह तो ठीक है कि कोई हादसा नहीं हुआ, वरना क्या मप्र के मुख्यमंत्री जिम्मदार होते? क्योंकि उन्होंने ही सड़क पर मजमा लगाकर हेलमेट बांटे थे, ताकि लोगों में जागरुकता आए कि बिना हेलमेट दो पहिया वाहन नहीं चलाना है। उन्होंने पीठ फेरी और कार्यक्रम स्थल पर लूटपाट, भगदड़ मच गई। इंतिहा देखिए, हेलमेट लूटने में पुलिस वाले भी थे। तस्वीरें छपी हैं। अब यदि भगदड़ मचती, कोई मारा जाता तो पुलिसकर्मी के परिजन को तो अनुकंपा नियुक्ति मिल जाती, कुछ रकम भी मिलती  और जो रास्ते चलते लोग थे, जो हेलमेट न पहनने से दुर्घटनाग्रस्त होने पर तो शायद न भी मरते, लेकिन भगदड़ में मर जाते तो उन्हें क्या मिलता?
 
इसलिए मुझे तो लगता है कि हम लोगों को ही विचार और पहल करना चाहिए कि किसी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक रैली, मेले, स्नान, दर्शन के लिए किसी विशेष मौके पर जाने से बचना चाहिए। आखिरकार पुलिस तो क्या सेना भी तैनात कर दी जाए तो कुछेक सैकड़ा जवान हजारों-लाखों की भीड़ की सुरक्षा कैसे कर पाएंगे? यह अलोकतांत्रिक तो है ही, स्व अनुशासन की भावना के खिलाफ भी है। फिर ऐसी किसी जगह जाने वाले कौन होते हैं? अधिकतर ग्रामीण,धर्म प्रेमी, फुरसती, बेरोजगार, मुफ्तखोर या अंधविश्वासी। केवल श्रद्धावश आप जान जोखिम में क्यों डालते हैं।
 
राजनीतिक रैलियों में भीड़ कपड़े, साड़ी, रुपये के लालच में जाती है। धार्मिक समागमों में लंगर, भंडारे, रुद्राक्ष, भभूत, अंधविश्वास या अंध श्रद्धा के वशीभूत जाते हैं। किसी खास नेता-अभिनेता के लिए ग्लैमरवश जाते हैं। ये लोग आखिरकार आपको क्या देते हैं? क्यों हम जान जोखिम में डालकर उनके दर्शन को उतावले हो जाते हैं। फिर हजारों-लाखों की संख्या में आपको कौन देख पाता है? कितनों के हाथ वे फूल मालाएं पाते हैं। कितनों को इन चमकीली छवि के लोगों के पास सुरक्षा बल फटकने देते हैं। तो मेहरबानी कर अपनी जान की सलामती आप स्वयं करिए। किसी के भरोसे मत रहिए। आपके परिजन को आपकी जरूरत है, चिंता है। (यह लेखक के निजी विचार हैं, वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है।) 
 

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