भूख और गरीबी के बिना दुनिया

स्वरांगी साने
‘गरीबी में आटा गीला’ की कहावत वर्ष 2022 में कइयों ने महसूस की होगी। गेहूं के आटे की कीमत 12 सालों के उच्चतम स्तर पर है और खाने के तेल का भाव जायका ख़राब करने पर तुला हुआ है। 
 
बीता वर्ष विश्व में खाद्यान्नों की कीमतों के सबसे अधिक उछाल का वर्ष रहा है। यूक्रेन पर रूस के हमले को इस किल्लत का एक कारण और दाम वृद्धि का कारक ठहराया जा सकता है। वैश्विक कृषि क्षेत्र में रूस और यूक्रेन का बड़ा योगदान है। रूस और यूक्रेन में दुनियाभर के गेहूं का 29 प्रतिशत उत्पादन होता है। 
 
संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) ने अंतरराष्ट्रीय कीमतों को दर्शाते हुए कहा है कि वर्ष 2022 में जरूरी खाद्य सामग्री की दर में विश्व स्तर पर 143.7 अंकों का इजाफा हुआ है जो वर्ष 2021 की तुलना में 14.3 प्रतिशत ज्यादा है। इस एजेंसी का गठन सन् 1990 में हुआ था और तब से अब तक का यह उच्चतम आंकड़ा है। इस एजेंसी का गठन भूख को हराने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के नेतृत्व के लिए हुआ था। इसका नारा है कि भूख और गरीबी के बिना दुनिया बनाने में हमारा साथ दें। क्या भारत यह साथ देने के लिए तैयार है, कभी तैयार था, कभी तैयार हो सकता है?
 
ये सारे सवाल उठाना इसलिए लाजमी है क्योंकि कुछ आंकड़े हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं। आंकड़ों को ही देखें तो वे बताते हैं कि भारत में भूखे लोगों की संख्या 20 करोड़ से ज्यादा है और FAO की रिपोर्ट बताती है कि भारतीय रोजाना 244 करोड़ रुपए यानी पूरे साल में करीब 89,060 करोड़ रुपए का भोजन बर्बाद कर देते हैं। इतनी राशि से 20 करोड़ से भी अधिक लोगों का पेट भरा जा सकता है, जबकि सरकार की आर्थिक समीक्षा 2021-22 में कहा गया है कि भारत दुनिया के सबसे बड़े खाद्य प्रबंधन कार्यक्रमों में से एक का संचालक है।
 
 
मिनिस्ट्री ऑफ कंज्यूमर अफेयर्स से मिली जानकारी कहती है कि 7 मई 2022 को गेहूं के आटे की औसत कीमत 32.78 रुपए प्रति किलोग्राम थी। उससे ठीक सालभर पहले 7 मई 2021 को यह 30.03 रुपए थी। यूक्रेन दुनिया में गेहूं का सबसे बड़ा वितरक है, वह जंग से जूझ रहा है, इस वजह से आपूर्ति में कमी आई है। हमारे देश में भी इस साल गेहूं की पैदावार कम रही जिससे कीमतों में उछाल आया।
 
खाद्य पदार्थों की कीमतों में दस प्रतिशत उछाल आता है तो निर्धन परिवारों की आय में पांच प्रतिशत कमी हो जाती है। आसमान छूती महंगाई के अलावा…और भी ग़म हैं जमाने में। लोगों पर कर्ज बढ़ रहा है, ऊर्जा की कीमतें बढ़ रही हैं और करोड़ों लोगों को जीवन यापन के संकटों से गुजरना पड़ रहा है। अपने खर्चों में कटौती करने के लिए यदि सस्ते मगर असुरक्षित पदार्थ खरीदते हैं तो वह उनके लिए और महंगे साबित हो जाते हैं। 
 
संयुक्त राष्ट्र की व्यापार एवं विकास एजेंसी UNCTAD के आंकड़े कहते हैं कि केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में ख़राब गुणवत्ता वाले उपभोक्ता पदार्थों से हर साल 43 हजार लोगों की मौत हो जाती है और चार करोड़ लोग बीमार पड़ जाते हैं। मतलब अब दुनियाभर के देशों की सरकारों के लिए अपने उपभोक्ताओं को सुरक्षित रखना शीर्ष प्राथमिकता है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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