सुनो.... फांसी का विरोध करने वालों....

स्मृति आदित्य
याकूब मेमन को फांसी दिया जाना ठीक था या नहीं... इस पर कुछ भी कहना सही नहीं है क्योंकि भारतीय संस्कृति हमें नहीं सिखाती किसी की मौत पर मुस्कुराएं लेकिन यह अवश्य सिखाती है कि जो राष्ट्र के प्रति विद्रोही हो, जो मानवता का दुश्मन हो उसे दंडित किया ही जाना चाहिए। यह वक्त उस तरह के हिसाब का नहीं है कि 1303 को फांसी की सजा सुनाई गई लेकिन मात्र 3 को दी गई। 

 
जिन्हें नहीं दी गई उनसे तुलना कर के आप अपने गुनाहों को छोटा या कम नहीं कर सकते। सैकड़ों लोगों के घरों में एक साथ अचानक बिना किसी अपराध के असमय मौत भेजने वाले शख्स को अपराधी क्यों कर न माना जाए?  
 
4 फांसी, कसाब, अफजल गुरु, धनंजय चटर्जी और अब याकूब मेमन को...कहां गलत हुआ? सभी दुर्दांत अपराधी थे, सजा मिली....जिन्हें नहीं मिली उन्हें भी मिलेगी.. अवश्य मिलेगी...  
 
जो लोग आतंकवादी के साथ हैं, आतंकी सोच रखते हैं। देश की शांति भंग करने को बुरा नहीं मानते उन्हें कैसे और किन शब्दों में समझाया जाए? अपराधी का कोई धर्म नहीं होता... जिसने अपनी राह ही बर्बादी की चुनी है वह निश्चित रूप से मारा ही जाएगा... चाहे पुलिस मुठभेड़ में, चाहे खुद फिदायीन बनकर, चाहे उसी विस्फोटक सामग्री से जो उसने किसी और के लिए सहेजी है....या फिर उन्ही हाथों के द्वारा जिसने उनके हाथ में आतंक का खिलौना पकड़ाया है.. यह तो तय है कि मौत स्वाभाविक तो नहीं ही मिलती...फांसी की सजा ने कम से कम उन सैकड़ों परिवारों को तो तसल्ली दी होगी कि अपराध की सजा इस देश में दी जाती है। न्याय की किरण आज भी रोशन है। 
 
इस फांसी से देश की यह नैतिक दृढ़ता भी सामने आई कि धर्म और मजहब से ऊपर इस देश की शांति और सुरक्षा है। एक ही दिन एक राष्ट्रभक्त के लिए यह देश हजार आंसू रो सकता है तो राष्ट्रद्रोही के लिए उतना ही निर्मम भी हो सकता है। 
 
जिसे अपना कर्मक्षेत्र चुनते समय और किसी आपरा‍धिक गतिविधि को अंजाम देते समय मानवता पर दया नहीं आई उसके लिए कैसी दया की दुहाई? 
 
मानवता के दुश्मन के लिए मानवता का वास्ता? भला यह कैसे वाजिब है? इस फांसी से यह संदेश भी स्पष्ट है कि जो इंसानियत के खिलाफ है देश का हर बच्चा उसके खिलाफ है। बाकि जो उसके साथ है 40 से लेकर 400 तक और 400 से लेकर 4000 तक वे भी समझ लें कि उनके स्वर ने देश को यह संकेत तो दे ही दिया है कि उनकी सारी शिक्षा, समझदारी, बौद्धिकता सब छद्म है,दिखावटी है। और कहीं ना कहीं देश की एकता और अखंडता के लिए वे भी खतरा ही है। क्योंकि एक अपराधी से ज्यादा खतरनाक आपराधिक सोच होती है। एक अपराधी तो अपने अपराध के लिए स्वयं जिम्मेदार होकर फना हो जाता है लेकिन आपराधिक सोच से कई-कई अपराधियों के जन्मने, पनपने और पोषित होने का खतरा होता है। इस देश में अपराधियों को फांसी पर चढ़ाना जायज है...  लेकिन ज्यादा कोशिश आपराधिक सोच का खात्मा करने की करनी होगी... 
 
''इसे नहीं दी, उसे नहीं दी... तो मुझे क्यों.... '' किसी भी फांसी के लिए यह दलीलें उतनी ही शर्मनाक और कमजोर है जितनी की देने वाला.... किसी भी एक अपराध की तुलना किसी दूसरे अपराध से और किसी एक फैसले की तुलना किसी दूसरे फैसले से की ही नहीं जा सकती....
 
आप स्वयं को स्वयं के आईने में रखें, अपने दिल पर हाथ रखकर पूछें कि अगर उस बम ब्लास्ट में हमारा अपना कोई असमय मारा गया होता तो आज हम क्या कह रहे होते? एक आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति के लिए दुनिया जहान की दया, ममता और प्यार उमड़ आता है जबकि बिना किसी गुनाह के जानवरों की तरह मार दिए गए इंसानों के लिए हम संवेदनाशून्य हो जाते हैं....
 
अपनी सोच को विस्तार देने के साथ मासूमों के दर्द को महसूस करना सीखना होगा... गुनाहगारों की तरफदारी कर अपनी कुंठित सोच का परिचय देने से बेहतर है एक बार संवेदनशीलता के स्तर पर सोचें - चारों तरफ बिखरा खून, हाथ-पैर के चिथड़े, दहशत और मौत. ...सिहरी हुई मुंबई... परेशान हुए हर धर्म, हर मजहब के लोग... इससे सोच में स्वाभाविक रूप से परिवर्तन आएगा...‍जिसकी सोच में अपराध घर कर चुका है वह देश के लिए हमेशा खतरा है। 
 
इस पूरे प्रकरण में मीडिया को निहायत संयम और समझदारी का परिचय देना चाहिए बजाय औवेसी जैसे लोगों को 'स्क्रीन' देने के उन लोगों को दिखाएं जो मुंबई ब्लास्ट से बर्बाद हो गए, बिखर गए....
 
मीडिया को कोई जरूरत नहीं है कि वह फैसले पर अपनी पंचायत बिठाए और फांसी के पक्ष और विपक्ष में दाने डालकर मुर्गे लड़ाए.... 
 
शांति और सुरक्षा सिर्फ इस देश की दरकार नहीं है... यह हर देश की अवाम चाहती है...यह पूरे विश्व की जरूरत है। मीडिया की अपरिपक्व सोच इस चाहत पर भारी न पड़े.... ध्यान तो इसका भी रखना होगा...   

सच में बुरा लगता है जब कोई भी कैसी भी मौत मरता है पर तब और ज्यादा बुरा लगता है जब किसी ने कई लोगों को मारने का गुनाह किया हो पर वह खुद ‍जिंदा रहना चाहता है... कैसे कर सकता है कोई अपील अपने पर दया की, ना जाने कितनों को मार देने के बाद .... 
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