भगत की छपरी

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- सतमीत कौर
 
एक बार श्री गुरु नानक देव जी एक गाँव में गए, उनके साथ उनके प्रिय सिक्ख भाई मरदाना भी थे। उस गाँव में एक गरीब आदमी रहता था। उसने जब गुरुजी के दर्शन करें तो गुरुजी को विनती की कि आप मेरे साथ मेरे घर चलिए। गुरुजी ने उसकी विनती को स्वीकार करते हुए उसके घर गए।

वह आदमी बहुत गरीब था, पर गुरु साहिब जी की मन लगा कर सेवा कर रहा था। कुछ दिन गुरुजी उसके घर रुके और जब उसके घर से जाने लगे तो उसके घर का सारा स ामान तोड़ दिया। आदमी सब कुछ देखता रहा पर उसने कुछ नहीं कहा।

फिर वो गुरुजी को गाँव के बाहर तक छोड़ कर उनसे इजाजत लेकर वापस चला आया। भाई मरदाना ने गुरुजी से पूछा- कि उस सिक्ख ने अपनी इतनी सेवा की, पर आपने उसके घर का सारा समान तोड़ दिया आपने ऐसा क्यों किया? मुझे भी समझाइए...।

श्री गुरु नानक देव जी ने कहा कि उस सिक्ख की सेवा परवान हो गई है। जब वो सिक्ख अपने घर पहुँचा तो उसने देखा कि उसकी झोपड़ी की जगह एक सुन्दर महल बना हुआ है। उसके अन्दर बहुत सारा सुन्दर सामान रखा है। वह सिक्ख बहुत खुश हुआ।

गुरुजी की तलाश करते हुए वो उनके पास पहुँचा और कहा- 'महाराज मुझे माफ कर दीजिए! मेरे घर खुद प्रभु चल कर आए और मैं आपको पहचान नहीं सका।' गुरु साहिब जी ने उसे आशीर्व ाद दिया।

इस प्रकार गुरुजी ने ये शिक्षा दी कि भगवान कभी भी अमीर और गरीब नहीं देखता, वो तो सिर्फ श्रद्धा देखता है। जो उसकी दिल से सेवा करता है उसे उसकी सेवा का फल जरूर मिलता है।
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