- गुवाहाटी से संजय वर्मा और दीपक असीम
एनआरसी असम के लिए एक डरावना ख्वाब साबित हुआ। सैकड़ों जानें गईं। लाखों लोग अपना काम धंधा छोड़कर महीनों अपने भारतीय होने का सबूत जुटाते रहे। टैक्सपेयर्स का करोड़ों रुपया इस कवायद में फूंकने के बाद अब जो कागज हासिल हुआ है, वह सब के गले की हड्डी बन गया है, जिसे ना उगला जा सकता है ना निगला!
अब तो शायद वे लोग जिन्होंने इस जिन्न को बोतल से बाहर निकाला था वह भी पछता रहे होंगे, कि इसे ना छेड़ा होता तो बेहतर था।
एनआरसी ने असम को जिस तरह उलझाया है, उसे समझने के बाद लगता है इंसानी जिंदगी के सामने ये तमाम सवाल बेमानी हैं कि कौन कहां का रहने वाला है या था। जी चाहता है इन तमाम सवालों को दफन कर आगे बढ़ा जाए। पर क्या सचमुच इस सवाल से बचा जा सकता है!
हम एनआरसी के विचार के खिलाफ अपना मन बना चुके थे, तब अचानक दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन जुलूस ने हमें हाथ पकड़कर वहां ले जाकर खड़ा कर दिया जहां से यह विचार शुरू हुआ होगा। मंगलवार कल रात गुवाहाटी की सड़कों पर विसर्जन के लिए ले जा रहीं दुर्गा प्रतिमाओं का एक लंबा जुलूस था। हजारों लोग सड़कों पर थे। हर प्रतिमा के पीछे उस मोहल्ले के लोगों का समूह था। तेज रोशनी थी। डीजे का कानफोड़ू संगीत था जिस पर पंजाबी भोजपुरी और हिंदी फिल्मों के गीत बज रहे थे, जिनमें कई सेक्सी और दोहरे अर्थ वाले भी थे।
इन गीतों पर लड़के शर्ट उतारकर बेहूदा मुद्राओं में नाच और हुड़दंग के बीच की कोई चीज कर रहे थे। यह सेलिब्रेशन की संस्कृति थी, जो 31 दिसंबर, होली और दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन के बीच के तमाम फर्क मिटा देना चाहती थी। वहां अगर कोई चीज नहीं थी तो वह थी असम के गीत, उसका बिहू नृत्य और मधुर असमिया संगीत! असमियों का असम कल बंगाल था, बिहार था, उत्तर प्रदेश था, बस असम नहीं था!
ग्लोबलाइजेशन की आंधी में कोई संस्कृति अपने कौमार्य को बचा पाए यह एक अव्यावहारिक और रोमांटिक जिद है, पर अपनी भाषा संस्कृति से प्यार करने वाले के लिए यह स्वीकार कर पाना इतना आसान भी तो नहीं! यह तब और भी मुश्किल हो जाता है जब बिहू के मोहक हस्त संचालन की जगह कोई बाबूजी जरा धीरे चलो... पर कमर मटकाए।
अपनी ज़मीन और संसाधनों को पराए लोगों के साथ बांटने का डर वह अकेली वजह नहीं है, जिसकी वजह से कोई बाहरी लोगों का विरोध करता है। अपनी कला, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति को बचाए रखने का मोह भी कभी किसी आंदोलन की वजह बन सकता है। क्या ऐसे ही किसी फूहड़ नाच-गान या जुलूस से उपजी वितृष्णा ने पहली बार किसी असमी के मन में उस आंदोलन के बीज बोए होंगे जो बड़ा होकर एनआरसी नाम का पेड़ बना! (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)