पीछे हटने की एक सीमा होती है! मंदिर वहीं बनेगा!

सुशोभित सक्तावत
सन् 1528 में मीर बाक़ी ने अयोध्या में बाबरी ढांचा बनवाया था, सन् 1528 में भारत के इतिहास की शुरुआत नहीं हुई थी! कथा इससे बहुत बहुत पुरानी है, बंधु। श्रीराम के मिथक से जुड़े लोक और शास्त्र के संपूर्ण वांग्मय में अहर्निश उल्लेख है अवधपुरी और सरयू सरिता का। पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के अटल साक्ष्य हैं। परंपरा की साखी है। कोई इससे चाहकर भी इनकार नहीं कर सकता।
 
विवाद किस बात पर है :  सन् 1528 में रामजन्मभूमि पर बाबरी ढांचे का बलात् निर्माण ही एक आक्रांताजनित दुर्भावना का परिचायक था। वह स्वयं एक भूल थी। भूलसुधार का तो स्वागत किया जाना चाहिए ना। अदालत कहती है, दोनों पक्ष थोड़ा दें और थोड़ा लें। लेकिन दो पक्ष हैं ही कहां? एक ही पक्ष है। हमलावर का पक्ष कबसे होने लगा? रामायण की रचना क्या अदालत ने की थी? लोकभावना का सृजन अदालत ने किया था? अदालतें इतिहास की पुनर्रचना कबसे करने लगीं?
 
हर चीज़ की एक सीमा होती है। हर बात पर पीछे हटने की भी। आपको सल्तनत की हुक़ूमत भी चाहिए, आपको लूट के ऐवज़ में हिंदुस्तान का बंटवारा भी चाहिए, आपको बदले में भाईचारे की नीयत और सेकुलरिज़्म की शर्त भी चाहिए, आपको कश्मीर और हैदराबाद भी चाहिए, आपको तीन तलाक़ भी चाहिए, आपको बाबरी की निशानी भी चाहिए। हवस की एक हद होती है!
 
वे कहते हैं हज़ार साल पुरानी कड़वाहट दिल में रखकर क्या होगा, आज तो हम एक हैं। मैं कहता हूं ये नेक ख़याल है. तो क्यों नहीं आप ज़ख़्मों को हरा करने वाली कड़वाहट की एक ग़ैरजायज़ निशानी से अपना दावा वापस लेकर नेकनीयती का सबूत देते? भाईचारे की बुनियादी शर्त है, इसका निर्वाह आपने ही करना है। सो प्लीज़, ले-ऑफ़!
 
कुछ लोग कहते हैं वहां हस्पताल बनवा दीजिए। अजब अहमक़ हैं। आप अपने घर की रजिस्ट्री सरेंडर करके उस पर हस्पताल बनवा दीजिए ना। क़ाबा में हस्पताल बनवाइए, यरूशलम में बनवाइए। रामजन्मभूमि पर ही यह मेहरबानी किसलिए?
 
कुछ कहते हैं ये कोई इशू नहीं है, ग़रीबी बेरोज़गारी इशू हैं। हद है! दादरी इशू है, वेमुला इशू है, जेएनयू इशू है, एनडीटीवी इशू है, एक यही इशू नहीं है। दुनिया जहान की चीज़ों पर आप बात करेंगे, इसके उल्लेख पर आपको ग़रीबी बेरोज़गारी याद आ जाएगी।
 
सनद रहे : सवाल मंदिर का है ही नहीं। मैं यूं भी घोर अनीश्वरवादी हूं और देवस्थलों की देहरी नहीं चढ़ता। किंतु सवाल ऐतिहासिक न्याय का है, जातीय अस्मिता का है। कुछ चीज़ों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। यह संदेश देना ज़रूरी होता है कि हम हर बार पीछे नहीं हट सकते। कोई भी स्वाभिमानी क़ौम ऐसा नहीं कर सकती।
 
आप अपना दावा छोड़िए, आपका दावा नाजायज़ है। अवधपुरी का इतिहास 1528 में प्रारंभ नहीं हुआ था, 1528 में तो उस पर कालिख लगी थी। मंदिर वहीं बनेगा।

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