-बीजू कुमार, केरल से
पश्चिम बंगाल में ही भाजपा के सपने नहीं टूटे, दक्षिणी राज्य केरल में भी भगवा पार्टी की उम्मीदों के तगड़ा झटका लगा है। भाजपा को यहां कम से कम 10 सीटें जीतने की आशा थी, लेकिन वह एक सीट भी नहीं जीत पाई। पार्टी का प्रदर्शन पिछले बार से भी खराब रहा। हालांकि यहां 35 सीटें जीतने की रणनीति बनाई गई थी।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के. सुरेन्द्र ने इस बार दो सीटों- मंजेश्वर और कोनी से किस्मत आजमाई थी। चुनाव प्रचार के लिए उन्होंने हेलीकॉप्टर से उड़ानें भी भरी थीं, लेकिन वे दोनों सीटों से हार गए। मंजेश्वर में वे दूसरे स्थान पर रहे, जबकि कोनी में तीसरे स्थान पर खिसक गए। कार्यकर्ताओं का यह भी मानना है कि यदि वे किसी एक सीट पर ध्यान केन्द्रित करते तो शायद जीत भी जाते। वर्ष 2016 में भाजपा ने केरल में 1 सीट जीती थी।
अपनी उम्मीदवारी के चलते राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरने वाले मैट्रोमेन ई. श्रीधरन भी अपनी पलक्कड़ सीट नहीं बचा पाए, जबकि उनका नाम तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में भी सामने आया था। ऐसा माना जा रहा है कि श्रीधरन अपनी व्यक्तिगत छवि के कारण अच्छे वोट जुटा सकते थे, लेकिन कार्यकर्ताओं में समन्वय की कमी और भीतरघात के कारण वे चुनाव हार गए।
मतदाताओं की नब्ज नहीं पहचान पाई भाजपा : भाजपा का केन्द्रीय और स्थानीय नेतृत्व लोगों के मन को पढ़ने में नाकाम रहा। भाजपा ने सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश को बड़ा मुद्दा माना था, लेकिन मतदाताओं ने इसे खास तवज्जो नहीं दी। यही कारण है मोदी के भाषणों का भी लोगों पर विपरीत असर पड़ा।
यह भी माना जा रहा है कि कई क्षेत्रों में भाजपा उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार ही देर से शुरू किया था। भाजपा की हार के लिए संगठन की कमजोरी को भी एक बड़ा कारण माना जा रहा है। चुनाव में प्रचार देरी के चलते ही कजाकुट्टम सीट से सोभा सुरेन्द्र चुनाव हार गईं। इसी तरह त्रिशूर में सुरेश गोपी भी अपनी सीट नहीं बचा पाए।
दरअसल, भाजपा ने केरल में सत्ता हासिल करने के लिए सपने तो बड़े देखे थे, लेकिन सपनों को साकार करने के लिए प्रयास पूरी मजबूती के साथ नहीं किए गए। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यदि यदि भाजपा नेताओं में आपसी तालमेल और मजबूत संगठन होता तो शायद केरल 'भाजपा मुक्त' नहीं होता।...और सबसे बड़ी बात इस हार के लिए भाजपा नेता अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।