ब्रिक्स देशों की असल समस्याएं क्या हैं ?

संदीप तिवारी
हालांकि आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक पंडित कुछ भी समझ लें लेकिन एक 'विकासशील' अर्थव्यवस्था से 'वास्तविक' ताकतवर अर्थव्यवस्था बनने और होने में बड़ा अंतर होता है। ब्रिक्स देशों की असल समस्या यह है कि इससे ज्यादातर विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं जुड़ी हैं और ये अर्थव्यवस्थाएं ऐसी आर्थिक नीतियों और हितों से ग्रस्त हैं जिनके चलते ये किसी भी तरह की स्पष्ट नीतियां बना पाने की स्थिति में नहीं हैं। वास्तव में, आर्थिक मामलों पर नीतिगत फैसलों और इन्हें क्रियान्वित करने को लेकर इन देशों की सरकारें एक नीतिगत लकवे (पॉलिसी पैरालिसिस) से ग्रस्त हैं। इसके चलते ये देश अपनी पूरी क्षमताओं को साकार करने में असमर्थ हैं।
 
ब्राजील, ब्रिक्स देशों का एक अहम सदस्य है लेकिन यह एक लम्बे समय से अरक्षणीय व अस्थायी  (अनसस्टेनेबल) और कहीं गहरे तक अन्यायपूर्ण पेंशन व्यवस्था का शिकार है। लैटिन अमेरिकी देशों में ब्राजील एक सबसे बड़ा देश है लेकिन यहां पेंशन व्यवस्था का संकट सार्वजनिक वित्त को तहस-नहस किए है। साथ ही, अर्थव्यवस्था को लेकर राजनीतिक संघर्ष भी गहराता रहा है जिसके चलते देश के सबसे बड़े कार्यकारी-राष्ट्रपति- का पद भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। इस देश में आमतौर पर एक नागरिक 54 वर्ष की आयु में रिटायर हो जाता है। लेकिन देश के लोक सेवकों, प्रशासनिक अधिकारियों, सेना के अधिकारियों और राजन‍ीतिज्ञों के एक ऐसी व्यवस्था बना रखी है जिसके तहत वे कई तरह की पेंशन एक साथ हासिल कर लेते हैं। 
 
कभी-कभी यह पेंशन राशि प्रति वर्ष 1 लाख डॉलर से भी अधिक होती है। इसके जब इन लोगों की मौत हो जाती है तो तमाम तरह की गड़बडि़यों के चलते इन लोगों के पति, पत्नियां, बेटियां या बेटे भी पेंशन की रकम को आजीवन लेते रहते हैं और यह योजना सरकारी खजाने में पलीता लगाए रखती है। ब्राजील में यह प्रवृत्ति इतनी आम है कि इसे प्रशासन में ' वियाग्रा इफेक्ट' के नाम से भी जाना जाता है। यहां रिटायर्ड ‍प्रशासनिक, लोकसेवा अधिकारी साठ वर्ष से सत्तर वर्ष से अस्सी वर्ष के बीच की उम्र में अपने से बहुत युवा लड़कियों से शादी कर लेते हैं। जब इनके पति नहीं रहते हैं तो इन महिलाओं को पत्नी होने के कारण दशकों तक पूरी पेंशन मिलती रहती है। 
 
अब ब्राजील में इस पेंशन व्यवस्था की गड़बडि़यों को दूर करना और इसे व्यवहारिक, टिकाऊ बनाने के लिए जो सुधार करने की जरूरत है, वह देश की राजनीति में किसी क्रांति से कम नहीं है। अन्य ब्रिक्स देशों की तरह से ब्राजील भी ऐसा देश नहीं है जहां पर ऐसी क्रांतियां होती रहती हों। उल्लेखनीय है कि पेंशन व्यवस्था तो देश की समूची व्यवस्था का एक हिस्सा मात्र है जो‍क‍ि दशकों से इस देश को तकलीफ में डाले हुए हैं। इसे बनाए रखने में जिन लोगों के निजी हित शामिल हैं वे इसमें किसी तरह का कोई बदलाव नहीं चाहते हैं और ऐसे लोगों में देश की नीतियां बनाने और इन्हें क्रियान्वित करने की मशीनरी को लकवाग्रस्त बना रखा है। 
 
इस व्यवस्था ने बहुत सारे राजनीतिक दलों को पैदा कर दिया है जोकि विभिन्न तरह के गठबंधन बनाते हैं, जिनके मध्य इस बात को लेकर लड़ाई होती है कि देश के संसाधनों की लूट में कैसे ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हासिल किया जा सके। राजनीतिक दल और नेता निजी हितों से प्रेरित होकर ऐसी नीतियां बनाते हैं जोकि उनके लिए सबसे ज्यादा लाभदायी हों। इस तरह देश में वास्तविक सुधारों का तो नंबर ही नहीं आ पाता है, सारी उठापटक तो कुर्सी पर काबिज होने और खजाने पर कब्जा करने को होती है।
 
भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और अन्य देशों की कमोवेश स्थिति इस मामले में एक जैसी ही है। सभी देशों में विकास की प्रक्रिया ऐसे ही विध्वंसक और गहरे तक समाई बाधाओं की बंधक बनकर रह गई है। इन विकासशील देशों में से ज्यादातर में राजनीतिक व्यवस्था ऐसे है जिसमें राजनीतिक दल 'गठबंधनों' के नाम पर गिरोह बना लेते हैं और देश के संसाधनों की चोरी करते हैं। विकासशील देशों की समस्या यह भी है कि लोग कालान्तर सरकारी सहायता के आदी हो जाते हैं और इसे अपना अधिकार समझने लगते हैं। कंपनियां भी ऐसा बिजनेस मॉडल बनाती हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा सरकारी संरक्षण, नीतियों और सहायता राशियों को हह़प सकें। अंत में यह ढांचा पूरी तरह से अनुपयोगी साबित होता है और इसमें सुधार की बहुत कम गुंजाइश रहती है। भारत में क्रोनी कैपिटलिज्म, इसी विकृति का नमूना है जोकि चुनावों की व्यवस्था से जुड़ा है।   
 
ब्रिक्स को जी-20 के बाद सबसे महत्वपूर्ण मंच कहा जा सकता है। वैसे तो संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर चल रहे सामूहिक प्रयासों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। लेकिन सहस्रताब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) की दुनिया में जिस तरह से उपेक्षा हुई है तथा जिस तरह संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद दुनिया के महत्वपूर्ण हिंसक विवादों में विश्व समुदाय की ओर से कोई सार्थक हस्तक्षेप करने में असफल हुई है। अब तो पूरी दुनिया यह मानने लगी है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधारों की नहीं वरन व्यापक पुर्नसंरचना की जरूरी हो गई है। लेकिन ब्रिक्स इस उद्देश्य के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध दिखलाई नहीं देता क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ में न तो ब्रिक्स देशों की एक आवाज सुनने को मिलती है और न ही वह दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण निकाय को प्रभावशाली बनाने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाता दिखाई दे रहा है। फिर ब्रिक्स में चीन जैसे देश भी शामिल हैं जोकि अपनी विस्तारवादी रवैए के कारण कुख्यात हैं और दुनिया के किसी नियम-कानून की चिंता नहीं करते हैं।
 
ब्रिक्स द्वारा अब तक दो बैंक न्यू डेवलपमेंट बैंक तथा एआईआईबी गठित किए गए हैं जिनका मकसद दक्षिण के देशों को विकास के लिए आवश्यक राशि उपलब्ध करवाना है। भारत सहित पांचों देशों में कुछ परियोजनाओं को स्वीकृति भी मिली है। सवाल यह है कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों की तुलना में ब्रिक्स द्वारा गठित बैंकों की शर्तें कितनी अलग हैं और ये नए ‍बैंक इन देशों की परियोजनाओं  के कितने सहायक सिद्ध होंगे?  ब्रिक्स देशों में राज्य (स्टेट) की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं?  सरकारों की परियोजनाओं की कमियों को उजागर करना सरकार विरोधी कार्य तो माना ही जाता है अब उसे राष्ट्र विरोधी भी माना जाने लगा है। 
 
ब्राजील में विद्रोह हुआ और चुने हुए राष्ट्रपति को खदेड़ दिया गया। चीन में विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं है। दक्षिण अफ्रीका में श्वेतों की जगह अश्वेतों की सरकार जरूर बनी है लेकिन नई सरकारों का रवैया भी जनविरोधी ही है। रूस लगातार जनता की आवाजों को दबाने के लिए जाना जाने लगा है। ऐसी स्थिति में राज्य की दमनकारी स्वरूप को बदलने के बारे में ब्रिक्स में विचार होना अति महत्वपूर्ण है लेकिन इस दिशा में अब तक हुए सात सम्मेलनों में कोई कदम नहीं उठाया गया है,   पर क्या गोआ सम्मेलन के एजेंडे में यह मुद्दा होगा?  
 
ब्रिक्स के पांचों देशों के पड़ोसी देशों से संबंध दुनिया की शांति और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। भारत का पाकिस्तान के साथ रिश्ता लगातार तनावपूर्ण होते हुए युद्ध की दिशा में अग्रसर हो रहा है। इस टकराव में चीन स्पष्ट तौर पर पाकिस्तान के साथ खड़ा नजर आता है। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद अभी तक सुलझा नहीं है। चीन ने अरूणाचल प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा तथा स्वतंत्र तिब्बत को हड़पा हुआ है। यह हर भारतीय के मानस में दर्ज है। एक समय था जब हिंदी रूसी भाई-भाई का रिश्ता भारत और रूस के नागरिकों के बीच में विशेष आत्मीय संबंध बनाता था आज वह स्थिति नहीं है क्योंकि भारत सरकार लगातार अमेरिका से प्रभावित होती जा रही है जिससे भारत और रूस का रिश्ता प्रभावित हो रहा है। चीन, उत्तर कोरिया के साथ तथा ताइवान के खिलाफ खड़ा है। क्या इन मुद्दों पर ब्रिक्स में संवाद की कोई गुंजाइश दिखाई देती है? 
 
पांचों देशों के आम नागरिकों के लिए गरीबी एक बड़ा सवाल है। 130 करोड़ के हमारे देश में तीस प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं जिसका मतलब है कि उन्हें दोनों समय का पौष्टिक भोजन उपलब्ध नहीं है। भारत में बीस करोड़ लोग रोज भूखे सोते हैं। दूसरी तरफ एक लाख 94 करोड़ टन अऩाज खराब हो जाता है। हंगर इंडेक्स (भुखमरी क्रमांक) में भारत 118 देशों में 97वें क्रमांक पर आता है। दुनिया की कुल टीबी ग्रस्त मरीज में से 26 प्रतिशत भारत में हैं। भारत के चालीस से पचास प्रतिशत बच्चे और महिलाएं कुपोषित हैं तथा बेरोजगारों की संख्या 20 करोड़ से अधिक है।

भारत की गिनती दुनिया के भ्रष्टतम देशों में होती है। महंगाई और बेरोजगारी पांचों देशों के लिए अहम समस्या बनी हुई है इसलिए इन समस्याओं को हल करने में ब्रिक्स देशों की ओर से कोई पहल की जाएगी? अगर इन मुद्दों को लेकर ब्रिक्स में कोई ठोस कार्य योजनाएं बनाई जाएं तो ही इस सम्मेलन को सार्थक कहा जा सकता है।
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