वैश्विक भूख सूचकांक, क्या दुनिया की आंखों में धूल झोंकने का पश्चिमी हथकंडा है?

राम यादव
हमें पश्चिमी देशों की एमनेस्टी इंटरनेशनल, ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स या ग्लोबल हंगर इन्डेक्स जैसी तथाकथित ग़ैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को सच्चाई का मानक समझना भूल जाना और अपने मानक स्वयं बनाना चाहिए। ये सभी संस्थाएं अंततः अपने-अपने देशों की सेवक हैं।
 
15 अक्टूबर को प्रकाशित 'वैश्विक भूख सूचकांक' भी दुनिया की आंखों में धूल झोंकने का पश्चिमी देशों का एक हथकंडा ही है। इसे जन्म दिया था 2006 में जर्मन कैथलिक ईसाइयों की संस्था, 'वेल्ट हुंगर हिल्फ़े' (विश्व के भूख पीड़ितों की सहायता) और अमेरिका के 'फ़ूड पॉलिसी रीसर्च इंस्टीट्यूट' (IFPRI) ने मिलकर। 2007 में आयरलैंड के कैथलिक ईसाइयों की धर्मादा संस्था 'कंसर्न वर्ल्डवाइड' (दुनिया भर की चिंता) भी इससे जुड़ गई। किंतु 2018 में IFPRI ने इससे अपना हाथ खींच लिया। तब से जर्मन और आयरिश लोग ही इस गोरखधंधे के मुख्य कर्ताधर्ता हैं। 
 
1962 में स्थापित 'वेल्ट हुंगर हिल्फ़े' का मुख्यालय, 1994 तक जर्मनी की राजधानी रहे बॉन शहर में है। बॉन में उसके लगभग 500 कर्मचारी हैं। 'कंसर्न वर्ल्डवाइड' की स्थापना 1968 में हुई थी। उसका मुख्यालय अयरलैंड की राजदानी डब्लिन में है। पर उसके 3900 कर्मचारी दुनिया के 50 देशों में फैले हुए हैं।
 
खूब पैसा मिलता है : इन दोनों ईसाई संस्थाओं को सामान्य और धनी-मानी लोगों से मिलने वाले दानों-चंदों के अलावा उनके अपने देशों की सरकारों, यूरोपीय संघ के आयोग, संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा कई संस्थाओं एवं कंपनियों आदि से भी खूब पैसा मिलता है। उदाहरण के लिए, जर्मनी की 'वेल्ट हुंगर हिल्फ़े' को, 2019 में अकेले जनता के निजी दानों से 5 करोड़ 66 लाख यूरो मिले। जर्मनी के सरकारी मंत्रालयों, यूरोपीय आयोग एवं संयुक्त राष्ट्र खाद्य कर्यक्रम आदि से भी कुल मिलाकर कम से कम 18 करोड़ 95 लाख यूरो मिले। उस समय एक यूरो की विनिमय दर एक डॉलर से भी अधिक थी।
 
दान-दक्षिणाओं के अतिरिक्त अपने न्यासों तथा बैंक खातों से मिले मिले ब्याजों के रूप में भी 2019 में जर्मनी की 'वेल्ट हुंगर हिल्फ़े' को कम से कम 36 लाख यूरो की आय हुई। कोरोनावायरस से फैली महामारी के बाद से हो सकता है कि उसकी आय को कुछ आंच भी पहुंची हो। तब भी, हाथी कितना भी दुबला हो जाएगा, तो क्या हाथी नहीं रहेगा! इसी प्रकार 'कंसर्न वर्ल्डवाइड' को आयरलैंड गणराज्य की सरकार से ही नहीं, ब्रिटिश सरकार, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र से भी नियमित रूप से पैसा मिलता है। 
 
कोई यह नहीं पूछता कि 'वेल्ट हुंगर हिल्फ़े' और 'कंसर्न वर्ल्डवाइड' तो कैथलिक चर्च की संस्थाएं हैं, अतः अपनी धर्मनिरपेक्षता का डंका पीटने वाली सरकारें उन्हें जनता का पैसा कैसे देती हैं? यही बात यदि भारत में होती, तो भारत में धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों सहित सारी दुनिया आसमान सिर पर उठा लेती।
 
उद्देश्य भुखमरी को दूर करना नहीं : 'वैश्विक भूख सूचकांक' के नाम से 'वेल्ट हुंगर हिल्फ़े' और 'कंसर्न वर्ल्डवाइड' ने अपना जो अभियान छेड़ रखा है, उसका उद्देश्य दुनिया से भुखमरी को दूर करना नहीं, यह दिखावा करना है कि सारी सुख-सुविधाओं से संपन्न पश्चिम के हम इसाई देश कितने दयावान हैं कि बाक़ी दुनिया के अभावों को देख कर धूप में रखी बर्फ की तरह पिघल जाते हैं।
 
भूख मापने के इनके चार मानदंडों में से तीन उन बच्चों को समर्पित हैं, जो केवल 5 साल तक की आयु के हैं। ऐसा चमत्कारिक फ़ार्मूला बनाया है कि 5 साल के बच्चों की लंबाई, दुबले या मोटेपन तथा उनकी मृत्युदर के आधार पर अचूक बता सकते हैं कि किसी देश में बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों तक, सारी जनता का पेट कितना खाली या भरा हुआ है।
 
बच्चों और वयस्कों में मानो कोई अंतर नहीं : 5 साल तक के बच्चों और 50-55 साल के वयस्कों में मानो कोई अंतर ही नहीं होता। यदि 5 साल तक के बच्चों का पेट भरा है, तो पूरा देश अघाया हुआ है, और यदि ऐसा नहीं है, तो पूरा देश भूख से अधमरा हुआ जा रहा है। इस चत्कारिक फ़ार्मूले के अनुसार, कोई बच्चा केवल भूख से ही मर सकता है, किसी बीमारी या दुर्घटना से नहीं।
 
और अधिक गहराई में जाने पर हम पाते हैं कि यह सारा सूचकांक 'चूं-चूं का मुरब्बा' या 'भानमती का पिटारा' है। सूचकांक बनाने वाले महारथी यह जानने के लिए, कि किसी देश में खाद्य उपलब्धि और पोषण की क्या स्थिति है, संयुक्त राष्ट्र के इटली में रोम स्थित 'खाद्य एवं कृषि संगठन' (फ़ूड ऐन्ड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइज़ेशन (FAO) की वार्षिक रिपोर्ट का सहारा लेते हैं।
 
आंकड़े कहां से आते हैं : 'विश्व में खाद्य सुरक्षा एवं पोषण की स्थिति' नाम की उसकी रिपोर्ट से वे आंकड़े लिए जाते हैं, जिनके आधार पर देशों के 'स्कोर' और सूचकांक में उनके स्थान (रैंक) का निर्धारण होता है। प्रश्न उठता है कि FAO की इस वार्षिक रिपोर्ट के आंकड़े कहां से आते हैं? वे आते हैं संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के प्रकाशनों और उन देशों में तीन हज़ार लोगों के बीच सर्वे से। 
 
छोटे-मोटे और कम जनसंख्या वाले देशों में केवल 3000 लोगों के बीच सर्वे का शायद ही कोई तुक हो सकता है। पर एक अरब 40 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत जैसे एक विशाल देश में इसे केवल मज़ाक ही कहा जाएगा। यह भी नहीं पता कि सर्वे करने वाले स्थानीय लोग होते हैं या बाहरी। वे जो आंकड़े तैयार करते हैं, उनकी प्रामाणिकता क्या है? भूख सूचकांक में पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों के नाम क्यों नहीं मिलते? क्या वहां 5 साल तक के बच्चे होते ही नहीं या होते हैं तो कभी मरते नहीं?
 
अमीर देशों में भी बेघर और भिखारी हैं : इन देशों में भी ग़रीबी और बेरोज़गारी है। दसियों हज़ार बेघर और भिखारी हैं। क्या उनका पेट हमेशा क्या ठसाठस भरा रहता है? उनके बच्चे भी खा-पीकर हमेशा टन्न रहते हैं? मेरी तरह जो कोई लंबे समय से यूरोप में है, 'आंख से अंधा, नाम नयनसुख' नहीं है, वह यही कहेगा कि यूरोप-अमेरिका भी ग़रीबी और भुखमरी से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। लेकिन भारत जैसे देशों के मीडिया वाले पश्चिम की चमक-दमक से हमेशा इतने चौंधियाए रहते हैं, या उस पर इतने फ़िदा हैं की पश्चिमी देशों के अंधरेपन को देखना-जानना ही नहीं चाहते।
 
'वैश्विक भूख सूचकांक' बनाने वालों के छद्म वैज्ञानिक फ़ार्मूले से वास्तव में एक से एक चकरा देने वाले चमत्कारिक परिणाम निकल रहे हैं। यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस का साथ दे रहा बेलारूस, सूची में 17 देशों वाले उस विशिष्ट वर्ग में भी सबसे ऊपर है, जिन्हें धन-धान्य से परिपूर्ण माना गया है। कमाल यह है कि रूस स्वयं दरिद्रनारायण मुस्लिम देश अल्बानिया और शरियतवादी ईरान के बीच 28वें नंबर पर है। यानी, रूसी जनता भी क्षुधावेदना से पूर्णतः मुक्त नहीं है, भले ही रूस भी एक ईसाई देश है। रूस का दोष शायद यह है कि यूरोप और अमेरिका से उसकी पटती नहीं।
 
करोड़ों टन खाद्यान्न का निर्यात, भारत तब भी भूखा! : 'वैश्विक भूख सूचकांक' को यदि सही मानें, तो तालिबान के भूखे-प्यासे अफ़ग़ानिस्तान को 50 हज़ार टन गेहूं और अपूर्व खाद्यान्न संकट से जूझ रहे श्रीलंका को 40 हज़ार टन चावल देने वाला भारत - जिसने 2021-22 में रिकॉर्ड 78 करोड़ 50 लाख टन खाद्यान्न अपने पड़ोसियों और कई अन्य देशो को निर्यात किया है- 2014 में आए मोदी के राज में इतना कंगाल या फिर बेदर्द हो गया है कि अपनी जनता को जानबूझ कर भूख से तड़पा रहा है। 
 
खाद्यान्नों के निर्यात से भारत ने जनवरी 2021 तक 8 करोड़ डॉलर और जनवरी 2022 तक 30 करोड़ 40 लाख डॉलर अर्जित किए। मुख्य आयातक देश क्रमशः बांगलादेश, नेपाल, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), श्रीलंका, यमन, अफ़ग़ानिस्तान, क़तर, इन्डोनेशिया, ओमान और मलेशिया थे।
 
भारत के प्रति पूर्वाग्रहों का पोषण : देश में खाद्यान्नों की यदि कमी या भुखमरी रही होती, तो भारत सरकार को क्या पागल कुत्ते ने काटा था कि वह इतने बड़े पैमाने पर निर्यात करती? लेकिन 'वैश्विक भूख सूचकांक' के लेखक यह सब जानने का कष्ट भला क्यों करते, जब 5 साल तक के कुछेक बच्चों की लंबाई, मोटाई और मृत्युदर से उनका काम आसान हो जाता है। उन्हें तो दुनिया के सामने भारत की सच्चाई नहीं, उसके बारे में पिष्ट-पेषित, जाने-पहचाने पश्चिमी पूर्वाग्रह पेश करने थे। इससे लगे हाथों यदि बीजेपी की 'हिंदू राष्ट्रवादी' सरकार पर निंदा की बौछार होती है, तब तो और भी स्वागत योग्य है।
 
2014 में बीजेपी की सरकार बनी थी। उस वर्ष के 'वैश्विक भूख सूचकांक' में भारत 55वें नंबर पर था। इसके बाद से तो वह नीचे ही नीचे गिरता गया है। 2016 में 97वें, 2018 में 103वें, 2020 में 94वें, 2021 में 101वें और अब 2022 में 107वें नंबर पर पहुंच गया है। ग़नीमत इतनी ही है कि जर्मन और आयरिश कैथोलिकों के वैश्विक भूख-सूचकांक में प्रधानमंत्री मोदी के निरीह भारत को नीचे धकेलते हुए सबसे अंतिम 121वें स्थान पर अभी नहीं गिराया गया है।
पश्चिमी मीडिया : विदेशी, विशेषकर पश्चिमी मीडिया, भारत को घूमा-फिरा एक ऐसा देश बताने में कोई कसर नहीं छोड़ता कि भारत में मुसलमानों, आदिवासियों और निचली जातियों को हमेशा दमन और अत्याचार झेलना पड़ता है। भारत के पितृसत्तात्मक समाज में नारी समनता के लिए कोई स्थान नहीं है। भारत बलात्कारियों का देश है। उसका हिंदू धर्म एक ऐसा दकियानूसी, पुरातनपंथी, विचित्र धर्म है, जिसमें अनगिनत काल्पनिक देवी-देवता पूजे जाते हैं। 
 
स्पष्ट है कि पश्चिमी मीडिया अपने लोगों को कभी नहीं बताता कि भारत में समाज के हर वर्ग के उत्थान के लिए अनेक प्रकार की योजनाएं चल रही हैं। आंगनवाड़ी के बच्चों तथा सरकारी स्कूलों के छात्रों को मुफ्त भोजन दिया जाता है। किसानों को प्रायः मुफ्त बिजली-पानी के अलवा अपने उत्पादों के लिए मूल्य समर्थन अनुदान भी मिलता है। बच्चों, युवतियों और महिलाओं के शिक्षण, पोषण और स्वास्थ्य सुधार के लिए कई योजनाएं चल रही हैं। कई राज्यों में ऐसे ठेले और वैन चलते हैं, जो बहुत सस्ते दामों पर नाश्ता और भोजन देते हैं। गांवों में ग्रामसेवक और ग्रामविकास अधिकारी लोगों के संपर्क में रहते हैं।
 
राशनकार्ड पर बहुत सस्ता अनाज : लगभग सभी ज़रूरतमंद लोगों को सस्ते अनाज पाने के राशनकार्ड मिले हुए हैं। 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम' के अंतर्गत, सरकार मार्च 2020 से, 80 करोड़ लोगों को हर महीने प्रतिव्यक्ति 5 किलो अनाज दे रही है। 391 लाख रुपयों की लागत से अब तक 112 लाख टन अनाज वितरित किया गया है। इस योजना को इस वर्ष के अंत तक बढ़ा दिया गया है।
 
इसी प्रकार कोविड-19 का प्रकोप शुरू होने के बाद से, 6 साल तक के 7 करोड़ 71 लाख बच्चों के पोषण के लिए आंगनवाड़ी सेवा के अंतर्गत तथा 1 करोड़ 78 लाख गर्भवती या स्तनपान कराती महिलाओं को एक पोषण योजना द्वारा 53 लाख टन गेहूं और चावल वितरित किया गया है।
 
भारत को लांछित करने के बहुत-से बहाने : भारत को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लांछित करने और हेठा दिखाने के बहुत-से बहाने गढ़ लिए गए हैं। उदाहरण के लिए, बीजेपी सरकार के साथ पश्चिम का मीडिया 'हिंदू राष्ट्रवादी' विशेषण ज़रूर जोड़ता है। दुर्भाग्य से भारत के वामपंथी भी यही करते हैं। 'राष्ट्रवादी' होने का अर्थ यूरोप-अमेरिका के बुद्धिजीवियों के बीच, हिटलर और मुसोलिनी जैसा, 'फ़ासिस्ट' हो जाना है। हिटलर और मुसोलिनी ने अपने समय में लाखों लोगों को ज़हरीली गैस-भठ्ठियों में ठूंसकर या गोलियों से उड़ा कर मारा। भारत में भी क्या यही हो रहा है? 
  
वास्तव में बीजेपी जिस तेज़ी से भारत को आत्मनिर्भर बना रही है, उसे एक उभरती हुई महाशक्ति का रूप दे रही है, पश्चिम के ईसाई देशों को आंखें दिखाती है और विश्वगुरु बनने का सपना देखती है, यह सब पश्चिम की आंखों में चुभता है। उसके पेट में ऐंठन होती है। भारत से चिढ़ने वाले सोचते हैं कि रूस और चीन पहले ही कुछ कम सिरदर्द नहीं हैं कि अब भारत भी पश्चिम के लिए एक नई चुनौती बनने की राह पर चल पड़ा है। (यह लेखक के अपने विचार हैं)
 

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