भारत बन रहा यूरोपीय निवेशकों का नया ठिकाना

राम यादव
जर्मनी और यूरोपीय संघ (EU) अभी भी भारत को एक मुक्त व्यापार समझौते (FTA) के लिए मनाने में लगे हैं, पर उनकी दाल गलती नहीं दिख रही। दूसरी ओर, स्विट्जरलैंड और 'यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ' (यूरोपियन फ्री ट्रेड एसोसिएशन EFTA) के देश हैं, जो 100 अरब डॉलर के व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर के साथ एक कदम आगे बढ़ गए हैं। 2025 के अंत या 2026 की शुरुआत में यह समझौता प्रभावी हो जाएगा।

कारों के हिस्से-पुर्जे बनाने वाली स्विस कंपनी 'फ़ाइनटूल' के प्रमुख टोबियास ग्रीस को भारत में बड़ी संभावनाएं दिखती हैं। 'फ़ाइनटूल' पुणे के पास अपना पहला भारतीय कारखाना बना रही है, जिसके अगले साल बनकर तैयार हो जाने पर 200 लोगों को रोजगार मिलने की उम्मीद है। पुणे का संयंत्र कार-सीटों से संबंधित आवश्यक चीज़ों के लिए भारतीय और अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों की मांग पूरी करेगा। 'फ़ाइनटूल' की यूरोप में भी कई शाखाएं हैं।

भारत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है : स्विट्जरलैंड की दूसरी बड़ी कंपनियां भी 'फ़ाइनटूल' का उदाहरण अपना रही हैं। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग कंपनी 'एबीबी' के सीईओ मोर्टेन विरोद भी मानते हैं कि भारत अब वास्तव में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। 'एबीबी' और जर्मनी की 'सीमेन्स' कंपनी एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धी हैं।

पिछले तीन वर्षों में भारत से मिल रहे ऑर्डरों में हर वर्ष औसतन 27 प्रतिशत की वृद्धि के बाद 'एबीबी' और सीमेंस ने भी भारत में अपनी उपस्थिति का विस्तार करना शुरू कर दिया है। बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए 'एबीबी' ने भारत में अपने कई कारखाने, कार्यालय और शोरूम बनाए हैं, जिनमें से आठ 2023 में पूरे हो चुके हैं। उसके कर्मचारियों की संख्या 2020 में 6,000 से बढ़कर अब लगभग 10,000 हो गई है।

वैश्विक स्तर पर भारत इस समय 'एबीबी' का पांचवां सबसे महत्वपूर्ण बाज़ार है। 'एबीबी' के सीईओ मोर्टेन विरोद का मानना है कि भारत कुछ ही वर्षों में अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर पहुंच जाएगा। उन्हें खुशी है कि भारत में 'एबीबी' का निवेश इस प्रगति में सहायक बन रहा है। उनकी कंपनी स्थानीय विनिर्माण, अनुसंधान और विकास के साथ इस प्रगति में हाथ बंटा रही है। 'एबीबी' के लिए हालांकि भारत महत्वपूर्ण ज़रूर होता जा रहा है, पर उसका कहना है कि चीन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता भी बनी रहेगी।

चीन में व्यापार करना आसान नहीं रहा : अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) को उम्मीद है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस साल 7 प्रतिशत और अगले साल 6.5 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। विशेषज्ञ चीन के लिए इस वर्ष 4.8 और अगले वर्ष 4.5 की ही वृद्धि दर संभव मानते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार, यह स्थिति इस दशक के अंत तक बनी रहने की संभावना है।

स्विस-भारतीय वाणिज्य मंडल (चैंबर ऑफ़ कॉमर्स) के अध्यक्ष फिलिप रीश मानते हैं कि चीन में व्यापार करना अब इतना आसान नहीं रहा, क्योंकि वहां की अर्थव्यवस्था डगमगा रही है। चीन के साथ किसी बड़े आर्थिक या अन्य प्रकार के संघर्ष का भी ख़तरा बना हुआ। सभी लोग जानते हैं कि ताइवान को निगलने के लिए चीन कितना अधीर होने लगा है।

स्विस नेशनल बैंक के आंकड़ों के अनुसार, चीन लंबे समय से स्विस कंपनियों के प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करता रहा है, लेकिन 2021/2022 में भारत चीन से आगे बढ़ गया। रीश के अनुसार, लगभग 350 स्विस कंपनियां पहले से ही भारत में सक्रिय हैं और अब उनकी संख्या और अधिक बढ़ने की संभावना है। भारत के साथ हुए 'एफ्टा' समझौते को रीश 'गेम चेंजर' बताते हैं।

टेपा समझौता : ऐसा भी नहीं है कि स्विट्जरलैंड की कंपनियां सिर्फ भारत में ही निवेश कर रही हैं। लेकिन स्विस सरकार और वहां के कारोबारियों को उम्मीद है कि भारत के साथ हुए व्यापार और आर्थिक साझेदारी समझौते (ट्रेड एंड इकानॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट TEPA) से व्यापार और निवेश को बढ़ावा मिलेगा। इस समझौते से सीमा शुल्क और प्रशासनिक बोझों में होने वाली कमी से सभी को लाभ मिलने की संभावना है।

समझौते के तहत, स्विट्जरलैंड और 'एफ्टा' के उसके साथी सदस्य देशों नॉर्वे, आइसलैंड और लिश्तेनश्टाइन ने वादा किया है कि वे भारत की 1.4 अरब जनता के बाजार में अपनी आसान और सस्ती पहुंच से लाभान्वित होने के लिए अगले 15 वर्षों में भारत में 100 अरब डॉलर के बराबर निवेश करेंगे। भारत को आशा है कि इस समझौते से उसकी दवाओं, कपड़ों और मशीनरी के निर्यात में वृद्धि होगी।

इस सौदे की बदौलत स्विट्जरलैंड से आने वाले लगभग 95 प्रतिशत आयात पर भारतीय सीमाशुल्क (कस्टम ड्यूटी) इस समय के औसतन 22 प्रतिशत से घटकर शून्य हो जाने की उम्मीद है। इससे भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते (FTA) की अभी भी बातचीत कर रहे यूरोपीय संघ और ब्रिटेन की तुलना में स्विस कंपनियां लाभ की स्थिति में रहेंगी।

10 लाख नौकरियां पैदा होने की आशा : 'एफ्टा' कंपनियों द्वारा निवेश के बदले में जिससे 10 लाख नौकरियां पैदा होने की आशा है, भारत ने उनके निवेश के लिए एक अनुकूल माहौल का वादा किया है। सीमाशुल्क में कटौती से परे इसका क्या मतलब है, यह इस समझौते में नहीं बताया गया है। लेकिन दोनों पक्ष निवेश के अवसरों की पहचान करने और कंपनियों की समस्याओं को हल करने में सहायता देने पर सहमत हुए हैं। इन्हीं सब कारणों से स्विट्जरलैंड में 'टेपा' समझौते को भारत में 'निवेश के लिए लाल कालीन' बिछाने जैसा बताया जा रहा है।

दूसरी ओर जर्मनी है, जो यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में सबसे अधिक जनसंख्या और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है, तब भी, जर्मनी न तो भारत में अपने पैर ठीक से जमा पा रहा है और न भारतीय कंपनियों को अपने यहां निवेश के लिए आकर्षित कर पा रहा है। अब तक तो जर्मन कंपनियों के कर्ताधर्ता भारत में सर्वशक्तिमान नौकरशाही का रोना रोते रहे हैं, पर अब यही शिकायत भारतीय निवेशकों को जर्मनी से है। जर्मनी का वीसा पाना उनके लिए टेढ़ी खीर बन गया है।

जर्मनी में कठिनाइयों का अंबार : वस्तुस्थिति जानने के लिए 'भारतीय उद्योग परिसंघ (कंफेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री /CII)'  और 'एर्न्स्ट एंड यंग (EY)' नाम की परामर्श संस्था ने मिलकर भारत में एक मत सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण की रिपोर्ट औपचारिक तौर पर अभी प्रकाशित नहीं हुई है, पर उसकी कुछ मूल बातें मीडिया तक पहुंच गई हैं। जो बातें उजागर हो गई हैं, उनसे पता चलता है कि जिन भारतीय उद्यमियों से संपर्क किया गया, उनमें से अधिकांश का यही कहना था कि पिछले कुछ वर्षों से उन्हें जर्मनी में कारोबार करने में बढ़ती हुआ कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। जर्मनी के क़ानून-क़ायदे कड़े हो गए हैं।

74 प्रतिशत भारतीय उद्यमियों एवं निवेशकों ने कहा कि उन्हें स्वयं अपने या अपने कर्मचारियों के लिए जर्मनी का बिजनेस वीसा पाना चुनौती बन गया है। 6 वर्ष पूर्व के ऐसे ही मत सर्वेक्षण की तुलना में यह आंकड़ा 4 प्रतिशत बढ़ गया है।

इतने ही यानी 74 प्रतिशत भारतीय उद्यमी व निवेशकों की दृष्टि से जर्मनी के क़ानून-कायदे उनके लिए समस्या बन गए हैं। इससे पहले के सर्वेक्षण की तुलना में यह आंकड़ा 14 प्रतिशत की वृद्धि के बराबर है। जर्मनी के कर (टैक्स) और सीमा शुल्क (कस्टम ड्यूटी) नियम इस बीच 70 प्रतिशत भारतीय उद्यमियों की राह का रोड़ा सिद्ध हो रहे हैं। 6 वर्ष पूर्व 2018 के मत सर्वेक्षण के समय यह शिकायत करने वालों का अनुपात 50 प्रतिशत था।

जर्मन वीसा बना सिरदर्द : भारतीय उद्यमियों या उनके कर्मचारियों को जर्मनी जाने का बिजनेस वीसा न तो आसानी से मिलता है और न जल्दी। वीसा मिलने में 4 से 6 सप्ताह लग जाते हैं। भारतीय कंपनियों के 50 मालिकों ने कहा कि इतने लंबे समय तक वीसा की प्रतीक्षा भला कौन करेगा! किस के पास इतना फालतू समय है! वीसा मिलने में लगती देर से उन्हें कारोबारी नुकसान भुगतना पड़ता है। जर्मनी की सरकार का कहना है कि वीसा देने की प्रक्रिया 2024 के अंत तक डिजिटल हो जाने से प्रतीक्षा का समय अपने आप घट जाएगा। ऐसा होगा या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा।

2018 के मत सर्वेक्षण के समय 90 प्रतिशत भारतीय उद्यमियों ने कहा कि वे अगले तीन वर्षों में जर्मनी में नए निवेशों द्वारा अपने कारोबार का विस्तार करेंगे। इस बार केवल 70 प्रतिशत ही ऐसा सोच रहे थे। यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में जर्मनी अब भी भारतीय निवेशकों की पहली पसंद है, लेकिन अब वे फ्रांस की तरफ भी झुकने लगे हैं।

नगण्य भारतीय निवेश : जर्मनी के राष्ट्रीय बैंक 'बुन्डेस बांक' के आंकड़े कहते हैं कि जर्मनी में भारतीय निवेशकों द्वारा अब तक लगाया गया धन वास्तव में इतना कम है कि उनके निवेश करने न करने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 2020 में निवेश की कुल धनराशि 51 करोड़ 80 लाख यूरो के बराबर थी, लेकिन 2022 में घटकर 50 करोड़ 10 लाख यूरो हो गई। 2022 के बाद के नए आंकड़े 'बुन्डेस बांक' ने अभी तक प्रकाशित नहीं किए हैं।

भारतीय निवेशकों के लिए जर्मनी अब उतना आकर्षक नहीं रहा, जितना पहले कभी हुआ करता था। अब वे जर्मनी में निवेश करने के बदले जर्मनी में अपने यूरोपीय मुख्यालय खोलने की सोचते हैं, ताकि जर्मनी को केंद्र बनाकर यूरोपीय संघ के अन्य  देशों में अपना कारोबार जमाएं और बढ़ाएं। यही उचित भी है।
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