आईएसआई के जेहाद में झुलसते कश्मीरी...

सुरेश एस डुग्गर
मंगलवार, 5 सितम्बर 2017 (12:53 IST)
श्रीनगर। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा कश्मीर में जेहाद के नाम पर छेड़े गए अघोषित युद्ध में पाक समर्थित आतंकवादी तो मारे ही जा रहे हैं, कश्मीरियों को भी अपनी जान गंवाना पड़ रही है। पाकिस्तानी आतंकियों के इशारे पर ही भटके हुए कुछ कश्मीरी सुरक्षाबलों से टकराव मोल रहे हैं। 
 
बात हो रही है उन नागरिकों की जो मुठभेड़ों के दौरान आतंकियों की जान बचाने के लिए अब सुरक्षाबलों से भिड़ रहे हैं। फर्क आतंकियों और इन नागरिकों की लड़ाई में इतना है कि आतंकी अगर सुरक्षाबलों पर गोलियों तथा हथगोलों से हमला करते हैं तो नागरिक पत्थरों से। हालांकि सुरक्षाबल पत्थरबाजी को गोलियों से अधिक घातक बताने लगे हैं। एक सुरक्षाधिकारी के शब्दों में ‘गोलियां जब दागी जाती हैं तो आवाज करती हैं और हम आवाज सुन बचाव कर सकते हैं, जबकि पत्थर कहां से आएगा कोई नहीं जानता।'
 
सुरक्षाबलों पर पत्थर मारने का खामियाजा भी कश्मीरी ही भुगत रहे हैं। इस साल के पहले आठ महीनों में पत्थर मारने वालों में से करीब 28 पत्थरबाज मारे जा चुके हैं। इनकी मौत उस समय हुई जब सुरक्षाबलों ने आतंकियों को निकल भागने में मदद करने की कोशिश करने वाले पत्थरबाजों पर गोलियां दागीं। नतीजा सामने था।
 
इस साल फरवरी महीने में सेनाध्यक्ष बिपिन रावत द्वारा ऐसे तत्वों को दी गई चेतावनी के बाद तो सुरक्षाबलों की पत्थरबाजों के विरुद्ध होने वाली कार्रवाई में तेजी आई है। यही कारण था कि जहां पहले सेना के जवान ऐसे पत्थरबाजों पर सीधे गोली चलाने से परहेज करते थे, अब वे ऐसा नहीं कर रहे हैं।
 
पिछले आठ महीनों में मारे जाने वाले 28 पत्थबाजों में से 10 तो अप्रैल में मारे गए और जून में भी पांच पत्थरबाजों की मौत हुई। ऐसा भी नहीं है कि 8 महीनों में 28 पत्थरबाजों की मौतों के बाद पत्थरबाजों का मनोबल कुछ कम हुआ हो या उनमें मौत का कोई डर बैठा हो बल्कि वे तो बस उस ‘शहादत’ के लिए आगे ही बढ़ते जा रहे हैं जिसके लिए पाकिस्तान परस्त आतंकी सोशल मीडिया के जरिये उन्हें बरगला रहे हैं। 
 
कश्मीर में पत्थरबाजी की शुरुआत तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के शासन के दौरान हुई थी। फिलहाल गोलियों की बरसात और पैलेट गन भी पत्थरबाजों के कदमों को रोक पाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। दरअसल भारत सरकार कहती है कि पत्थरबजी के लिए युवकों को धन मुहैया करवाया जाता है और नोटबंदी के बाद इनमें जबरदस्त कमी आने का दावा भी किया था, मगर आठ महीनों में पत्थरबाजों की मौत का आंकड़ा तो कुछ और ही बयां कर रहा है। 

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