कश्मीर में आतंक को जवाब, विकास को वोट

सुरेश एस डुग्गर
श्रीनगर। किश्तवाड़ के 69 साल के आलमद्दीन किसी भी कीमत पर मतदान में हिस्सा लेना चाहते थे। अपने दो बेटों को आतंकी हिंसा में गंवा चुके आलमद्दीन का मतदान करने का मकसद यही था कि लोकतंत्र की जीत हो ताकि आतंकवाद का खात्मा हो। कश्मीर के कंगन के युसूफ के लिए मुद्दा आतंकवाद नहीं, न ही कश्मीर की आजादी था बल्कि वह गांव के विकास के लिए सरकार को चुनने का मकसद लेकर आतंकी धमकी के बावजूद मतदान के लिए ठंड की परवाह किए बिना पोलिंग बूथ तक आया था।
 
पांच चरणों में होने जा रहे चुनावों के पहले चरण के मतदान में आज शामिल हुए वोटरों की चाहे अलग-अलग कथाएं थीं, लेकिन सबका मकसद एक ही था। वे सभी बिना किसी खौफ के मतदान प्रक्रिया में शामिल हुए तो आतंकियों के दिलों पर सांप जरूर लोटा होगा। आखिर लोटे भी क्यों न, 25 सालों के आतंकवाद के बावजूद वे राज्य की जनता को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से विमुख नहीं कर सके।
 
बांडीपोरा की निगत भी पहली बार वोट डालने आई तो उसके दिलोदिमाग पर कोई खतरा नहीं था। उसके दिलोदिमाग पर बस एक ही बात छाई थी कि उसे बेरोजगार नहीं रहना है। ‘अगर राज्य में चुनी हुई सरकार आती है तो रोजगार के साधन मुहैया करवाए जाएंगे। न ही आतंकवाद और न ही चुनाव बहिष्कार से कुछ बनने वाला है,’ वह वोट डालने के बाद पत्रकारों से बात करते हुए कहती है।
 
लद्दाख क्षेत्र के  लेह, नुब्रा, जंस्कार और करगिल विधानसभा क्षेत्रों में कंपकपाती ठंड के बावजूद विभिन्न मतदान केंद्रों पर सुबह से ही मतदाताओं की लंबी कतारें लगनी आरंभ हो गई थीं। वहीं अन्य जगहों में तेज ठंड के कारण शुरुआत में मतदान की प्रक्रिया अपेक्षाकृत धीमी रही थी। शून्य से 10 डिग्री सेल्सियस कम तापमान के बावजूद लद्दाख क्षेत्र के चार विधानसभा क्षेत्रों में बड़ी संख्या में मतदाता अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए मतदान स्थलों पर जुटे थे। कई मतदान स्थलों के बाहर तो पुरुषों से अधिक महिलाएं दिखाई दी थीं।
 
राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर से 20 किमी उत्तर में सोनावरी विधानसभा क्षेत्र के एक मतदान केंद्र पर सुबह से ही मतदाताओं ने जुटना शुरू कर दिया था। एक सरकारी माध्यमिक स्कूल भवन में बने मतदान केंद्र के सामने एकत्र लोगों के रूख से क्षेत्र के अन्य मतदाताओं की सोच का अंदाजा लगता है। बहिष्कार का लोगों पर कोई खास असर नहीं पड़ा था।
 
मुहम्मद अफजल नाम के 45 वर्षीय मतदाता ने कहा कि बहिष्कार हमारी कोई सहायता नहीं करेगा। हमारे पिछले विधायक ने भी कुछ नहीं किया। हमारे यहां सड़कें, पेयजल और स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं, हम इस बार ऐसा प्रतिनिधि चुनेंगे जो वास्तव में हमारे लिए कार्य करे और यही कारण था कि आतंकी और अलगाववादी धमकी व आह्नान गांववासियों को मताधिकार का प्रयोग करने से नहीं रोक पाया था।
 
हुर्रियत के बहिष्कार की हवा निकली : फिलहाल गंदरबल के ’गदर’ से अलगाववादी नेता परेशान इसलिए हो उठे हैं क्योंकि उसका चुनाव बहिष्कार सिर्फ मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचने के सिवाय कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया है। पहली बार गंदरबल में देखी गईं लम्बी-लम्बी कतारों ने न सिर्फ राजनीतिक पंडितों को बल्कि हुर्रियत समेत अन्य अलगाववादी नेताओं को भी हतप्रभ कर दिया है। 
 
हालांकि यह तो समय ही बता पाएगा कि गंदरबल के ’गदर’ से किस उम्मीदवार को फायदा होता है पर सर्दी की परवाह किए बिना मतदान के लिए घरों से बाहर निकली भीड़ को देख कहीं नहीं लगता था कि हुर्रियत के चुनाव बहिष्कार के आह्वान का कहीं कोई असर हो। गंदरबल में इस बार नेकां के इशफाक जब्बार और अमरनाथ जमीन विवाद के जनक पीडीपी के नेता काजी मुहम्मद अफजल के बीच मुख्‍य मुकाबला है।
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