इस बार सर्दी से चिल्ला नहीं पाए कश्मीरी

चिल्लेकलां, चिल्लेखुर्द और चिल्लेबच्चा खत्म हुआ

सुरेश एस डुग्गर
श्रीनगर। ‘चिल्लेकलां’ जिसका नाम सुनते ही कश्मीरियों की कंपकंपी छूट जाती थी और दांत ठंड के मारे बजने लगे थे। ऐसा करीब 40 दिनों तक होता था, लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि चिल्लेकलां सिर्फ नाम का ही था इस बार कश्मीर में। कश्मीरी सर्दी के कारण तो नहीं लेकिन बर्फ के न होने पर जरूर चिल्लाए थे। इस बार चिल्लेकलां, चिल्लेखुर्द और चिल्लेबच्चा सूखा रहा है। ऐसा वर्ष 2005 तथा 2010 में भी हुआ था और फिर उसके बाद स्नो सुनामी का कहर बरपा था कश्मीर पर।
हर साल 21 दिसंबर को चिल्लेकलां शुरू होता है और अगले 40 दिनों तक बारिश तथा बर्फबारी का कश्मीरी स्वागत करते थे। बाद में 20 दिनों तक चिल्लेखुर्द होता था और उसके बाद 10 दिनों का चिल्लेबच्चा। इस बार सिर्फ कुछ दिन बारिश और मामूली सी बर्फबारी के ही दर्शन हो पाए। जनवरी में हुई बर्फबारी ने इस बार चिल्लेकलां का नाम भी बदनाम कर दिया क्योंकि सूखे और बढ़ते तापमान से कश्मीरी चिंतित हो उठे हैं।
 
यह चिंता वर्ष 2005 तथा वर्ष 2010 की पुनर्रावृत्ति की शंका के कारण भी है जब चिल्लेकलां यूं ही गुजर गया तो अगले कुछ दिनों बाद स्नो सुनामी के कहर ने कश्मीर में लाशों के अंबार लगा दिए थे।
 
हालांकि चिल्लेकलां के गुजर जाने पर कश्मीरी खुशी नहीं मना पाए हैं। बुजुर्ग कश्मीरियों का मानना था कि अगले 20 दिनों के दौरान, जिसे चिल्लेखुर्द के नाम से जाना जाता है, सिर्फ मुसीबतें लेकर आएंगे क्योंकि चिल्लेकलां के दौरान बर्फ ही नहीं गिरी तो खेतों की प्यास कैसे बुझेगी। पर ऐसा भी नहीं हुआ।
 
60 वर्षीय रहमान मीर का कहना था कि वर्ष 2005 तथा वर्ष 2010 की ही तरह के हालात फिर से बन गए हैं। तब भी चिल्लेकलां यूं ही गुजर गया था और पीछे मुसीबतों का भार छोड़ गया था। वह दुआ के लिए हाथ उठाते हुए कहता था: ‘या खुदा अब फिर से स्नो सुनामी कहर न बरपे।’
 
दक्षिणी कश्मीर के इलाके में मीर के धान के खेत हैं, लेकिन वहां सूखे के हालात इसलिए हैं क्योंकि बर्फ के लिए अता की गई नमाजे इस्ताशका सुनी तो गई थी लेकिन खुदा ने उनकी झोली में गिनी-चुनी खुशियां ही डालीं अर्थात उतनी बर्फ नहीं गिरी जितनी की जरूरत थी। उसे चिंता इस बात की थी कि ऐसे में उसके खेतों में धान सूख जाएगा और पीने के पानी की भी किल्लत हो जाएगी।
 
वैसे कश्मीर में मौसम चक्र में भी जबरदस्त बदलाव आ चुका है। जो कड़ाके की शीतलहर कभी 21 दिसंबर से शुरू होने वाले चिल्लेकलां के दौरान महसूस की जाती थी, उसकी ठंडक इस बार नवम्बर से ही आरंभ हो गई थी और चिल्लेकलां के आते-आते ठंड गायब होने लगी थी और गर्म रातें आरंभ हो गईं जिसने किसानों और मौसम विज्ञानियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दीं।
 
इस बार के मौसम चक्र का एक ओर पहलू यह था कि इस बार कश्मीर में सुखाई  गई सब्जियों की मांग बहुत ही कम इसलिए थी क्योंकि न ही इतनी तादाद में बर्फ गिरी और न ही अधिक दिनों के लिए जम्मू-श्रीनगर नेशनल हाईवे बंद हुआ। नतीजतन कश्मीरियों को लगता है कि उन्हें सब्जियों को सुखाने के क्रम को भुला देना चाहिए। यही नहीं बर्फ से लदे पहाड़ और खेतों में बिछी बर्फ की कथाएं अब कहानियों में ही नजर आने लगी हैं।
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