Mysore Dussehra and Mahisha festival clash: कर्नाटक के सांस्कृतिक नगरी मैसूर में हर साल दशहरा के मौके पर एक अनोखा वैचारिक टकराव देखने को मिलता है। एक ओर शहर की चमक-दमक से जगमगाती मैसूर दशहरा उत्सव की तैयारियां जोरों पर हैं, जहां देवी चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का जश्न मनाया जाता है। दूसरी ओर, 'महिषा उत्सव' या 'महिषा दशहरा' के नाम से जाना जाने वाला आयोजन उन समुदायों द्वारा आयोजित किया जा रहा है जो महिषासुर को राक्षस नहीं, बल्कि अपना नायक और राजा मानते हैं।
इस वैचारिक भिड़ंत के चलते प्रशासन को चामुंडी पहाड़ी के आसपास धारा 144 लागू करनी पड़ी है, ताकि दोनों पक्षों के बीच कोई हिंसक घटना न घटे। किसी भी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए प्रशासन ने 25 सितंबर की मध्यरात्रि 12 बजे से सुबह 6 बजे तक कर्फ्यू लगा दिया गया है। आदेश दिया गया है कि कोई भी सभा, समारोह या जुलूस आयोजित नहीं किया जाएगा।
क्या है पौराणिक कथा : मैसूर दशहरा, जो दुनिया भर में अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है, हिंदू पौराणिक कथा पर आधारित है। इस कथा के अनुसार, महिषासुर एक शक्तिशाली असुर था जिसने देवताओं को भी अपने अत्याचारों से त्रस्त कर दिया था। देवताओं ने अपनी संयुक्त शक्तियों से देवी दुर्गा (मैसूर में चामुंडेश्वरी के रूप में पूजी जाती हैं) का सृजन किया। नौ दिनों तक चले भयंकर युद्ध के बाद दसवें दिन देवी ने महिषासुर का वध किया। यह विजय ही विजयादशमी या दशहरा के रूप में मनाई जाती है, जहां महिषासुर को बुराई का प्रतीक माना जाता है। लाखों पर्यटक इस उत्सव के लिए मैसूर पहुंचते हैं, जो शहर की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत बनाता है।
हालांकि, इस कथा का एक वैकल्पिक पक्ष भी है, जो दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के बीच लोकप्रिय है। इन समुदायों का मानना है कि महिषासुर कोई राक्षस नहीं, बल्कि 'महिष मंडल' (मैसूर का प्राचीन नाम) के एक बौद्ध या आदिवासी राजा थे। 'महिष' शब्द का अर्थ भैंस से जुड़ा है, और ये समुदाय परंपरागत रूप से भैंस पालन से जुड़े रहे हैं। उनके अनुसार, महिषासुर समता, न्याय और समानता के प्रतीक थे। ब्राह्मणवादी या आर्य व्यवस्था ने अपनी सांस्कृतिक वर्चस्व की खातिर उन्हें 'असुर' का तमगा देकर उनकी छवि खराब की और उनके वध को धार्मिक विजय के रूप में स्थापित कर दिया। महिषा उत्सव इन समुदायों के लिए अपनी खोई हुई पहचान और इतिहास को पुनर्जीवित करने का माध्यम है।
ऐसे हुई शुरुआत : यह आयोजन 2010 के दशक में मैसूर में संगठित रूप से शुरू हुआ। दलित संगठनों और बुद्धिजीवियों ने चामुंडी पहाड़ी पर महिषासुर की विशाल प्रतिमा पर माल्यार्पण कर इसकी शुरुआत की। लेकिन इससे विवाद भड़क उठा। भाजपा और दक्षिणपंथी संगठनों ने इसे हिंदू धर्म और देवी चामुंडेश्वरी का अपमान करार दिया। उनका कहना है कि यह इतिहास की तोड़-मरोड़ है, जो समाज में नफरत फैलाने का प्रयास है। मैसूर के सांसद प्रताप सिम्हा जैसे नेताओं ने भी इसकी कड़ी निंदा की है।
2019 से 2022 तक, जब कर्नाटक में भाजपा सरकार थी, तो महिषा उत्सव पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। आयोजकों को शहर के दलित बहुल इलाकों में छोटे स्तर पर कार्यक्रम करने पड़े। लेकिन कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद स्थिति बदली। आयोजकों को फिर से बड़े पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित करने की छूट मिली, जिससे टकराव और तेज हो गया। इस साल भी चामुंडी पहाड़ी के आसपास भारी पुलिस बल तैनात है, और निषेधाज्ञा के बावजूद दोनों पक्ष सतर्क हैं।
उल्लेखनीय है कि यह विवाद केवल मैसूर तक सीमित नहीं है। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में 'महिषासुर शहादत दिवस' मनाने को लेकर कई बार हंगामा हो चुका है। झारखंड के आदिवासी समुदाय महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं और दुर्गा पूजा का विरोध करते हैं।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala