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चीन ने तिब्बत हड़प लिया, दुनिया ने भुला दिया, चीन के जुल्म सहने को मजबूर हैं तिब्बती

1950 में चीन द्वारा निगल जाने के बाद से एक देश के रूप में वह नक्शों पर से ग़ायब है

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राम यादव

China occupation of Tibet: 31 मार्च, 1959 वह दिन था, जब तिब्बतियों के धर्मगुरू और नेता दलाई लामा एक शरणार्थी बनकर भारत की भूमि पर पहुंचे थे। तिब्बत का नाम अब धीरे-धीरे विस्मृत होता जा रहा है। 1950 में चीन द्वारा निगल जाने के बाद से एक देश के रूप में वह नक्शों पर से ग़ायब है। तिब्बत की याद उनके बाद भी बनी रहे, संभवतः यही सोच कर, 6 जुलाई को 90 वर्ष के हो रहे दलाई लामा ने एक नई पुस्तक लिखी है-'वॉइस फ़ॉर द वॉइसलेस (जिनकी आवाज़ नहीं, उनकी आवाज)।' 11 मार्च को यह पुस्तक बाज़ार में आ गई। 
 
भारत के हिमाचल प्रदेश में स्थित धर्मशाला में दलाई लामा की निर्वासित सरकार यदि नहीं होती और भारत सहित दुनिया के कुछ देशों में तिब्बती शरणार्थी नहीं रह रहे होते, तो तिब्बत को दुनिया बहुत पहले ही भूल चुकी होती। भारत में क़रीब 84 हज़ार तिबब्ती रहते हैं। मुख्यतः उन्हीं के कारण तिब्बत का नाम ज़िन्दा है; एक स्वतंत्र देश के रूप में उसका अस्तित्व भले ही चीनी विस्तारवाद की बलि चढ़ गया है।
 
जब तक तिब्बत स्वतंत्र था, भारत की चीन के साथ कोई साझी सीमा नहीं थी। साझी सीमा थी तिब्बत के साथ। स्वतंत्र तिब्बत का अस्तित्व मिट जाने से चीन ही भारत का सीमांत पड़ोसी बन गया। दोनों के बीच क़रीब 3500 किलोमीटर लंबी एक ऐसी साझी सीमा है, जिसके साथ हर गाहे-बगाहे छेड़-छाड़ चीन की आदत-सी बन गई है। तिब्बत के रूप में चीन को न केवल उसके अपने क्षेत्रफल के एक-चौथाई जितना बड़ा, 25 लाख वर्ग किलोमीटर का एक अतिरिक्त विशाल भूभाग मिल गया है, अनेक खनिज पदार्थों तथा एशिया महाद्वीप के सबसे बड़े पेयजल भंडार का भी चीन मालिक बन बैठा है। इसी पानी वाली ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन अब दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाकर, जब चाहे तब, पूर्वी भारत को पानी के लिए तरसा सकता है।
 
भारत-चीन हैं दो परमाणु शक्तियां : 75 वर्ष पूर्व चीन द्वारा तिब्बत को हड़प लिए जाने के बाद से भारत और चीन के बीच का सीमा विवाद, आज भी भूस्वामित्व का दुनिया में सबसे बड़ा विवाद है। इस विवाद की आग में पिछले तीन वर्षों से चीन जिस तरह बार-बार घी डालता रहा है, प्रेक्षक उससे एशिया की दो सबसे बड़ी परमाणु शक्तियों के बीच टकराव की कल्पना से कांप जाते हैं। 1962 में दोनों के बीच एक बड़ा सशस्त्र संघर्ष हो भी चुका है। किंतु, उस समय दोनों देशों के पास परमाणु बम नहीं थे। भारत पिट गया था। चीन चहक रहा था। दो साल बाद, 1964 में चीन ने अपने पहले परमाणु बम का सफल परीक्षण किया। 10 साल बाद, 1974 में भारत ने भी अपना परमाणु बम बना लिया।
 
तिब्बती जनता शुरू से ही चीनी आधिपत्य का विरोध करती रही है। चीनी शासक पूरी निर्ममता के साथ इस निरीह जनता का दमन करते रहे हैं। दुनिया तिब्बतियों को भूल ही जाती, यदि भारत तिब्बत का पड़ोसी नहीं रहा होता। भारत ने ही तिब्बतियों के धर्मगुरु व जननायक दलाई लामा को अप्रैल, 1959 में अपने यहां शरण दी। दलाई लामा तभी से दुनिया में घूम-घूम कर सबको बताते रहे हैं कि चीन, तिब्बतियों के साथ कैसे-कैसे दमनकारी अत्याचार कर रहा है। यूरोप-अमेरिका के नेता दलाई लामा का दुखड़ा सुनते हैं, पर करते अपने मन की हैं। हर पश्चिमी नेता अपनी जनता का वोट पाना चाहता है, न कि 60 लाख तिब्बतियों की पीड़ा से पसीज कर चीन से कोई बिगाड़ मोल लेना चाहता है। निरीह तिब्बतियों को इन देशों की चिकनी-चुपड़ी बातों से ही संतोष कर लेना पड़ता है।
  
तिब्बत तीन प्रांतों में बंटा हुआ था : चीनी आधिपत्य से पहले तिब्बत तीन प्रांतों में बंटा हुआ था–  उत्सांग, अमदो और खाम। अपने लंबे इतिहास के दौरान उसे मंगोलों, मंचूरियों और अंग्रेज़ों के शासनकाल झेलने पड़े थे। 1913 में अंग्रेज़ों ने उसे स्वतंत्र देश घोषित किया। आज के 88 वर्षीय 14वें दलाई लामा उस समय मात्र 15 साल के थे, जब 1949 में कम्युनिस्ट चीन के तानाशाह माओ त्सेतोंग ने तय किया कि तिब्बत पर चीन का शासन होना चाहिए। चीन के साथ तिब्बत के हमेशा अस्पष्ट पड़ोसाना संबंध रहे हैं, पर बौद्ध-धर्मी तिब्बती अपने धार्मिक कर्मकांडों में ही मस्त-व्यस्त रहा करते थे। इसी कारण वे समय रहते भांप नहीं पाए कि चीन सहित पूरी दुनिया कब कितनी बदल गई।
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चीन में माओ त्सेतोंग के समय और उनके बाद भी, सत्ता की बागडोर चाहे जिसके हाथ में रही हो, तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग बताकर तिब्बती जनता को सदा कुचला-मसला ही जाता रहा। चीनी शासक सदा यही मानते रहे हैं कि तिब्बत पर भारतीय सभ्यता-संस्कृति की छाप कुछ ज़्यादा ही है। उसे भारत से अलग-थलग करना और लगे हाथ हिमालय से निकलने वाली ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों पर भी चीन का नियंत्रण होना ज़रूरी है। संभवतः यही सोच कर माओ ने भारतीय लद्दाख के उत्तरी भाग पर, जिसे चीन 'अक्साई चिन' कहता है, और पूर्व में आज के अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोंक दिया।
 
दलाई लामा को बंदी बनाने की चाल : अरुणाचल प्रदेश को अंग्रेज़ों ने 1914 में ब्रिटिश भारत का हिस्सा बनाया था। वहां का तवांग शहर तिब्बतियों के लिए आज भी बहुत महत्व रखता है। चीनी अत्याचारों से त्रस्त तिब्बती, तवांग के रास्ते से ही भारत पहुंचा करते थे। 1959 का 10 मार्च आाते-आते चीनी सेना ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा को घेर लिया। दलाई लामा उस समय मात्र 23 साल के थे।

ल्हासा में चीनी सेना के कमांडर झांग जिंग्वू ने उन्हें 10 मार्च की शाम को एक नृत्य समारोह देखने के लिए आमंत्रित किया। दलाई लामा और उनके निकटस्थ सहयोगी तुरंत ताड़ गए कि यह निमंत्रण दलाई लामा को बंदी बनाने की एक कुटिल चाल है। जनता ने भी उन्हें नृत्य समारोह में जाने से रोकने के लिए उनके पोटाला और नोर्बूलिंगका प्रासाद को घेर लिया। इस घेराव ने देखते ही देखते चीन के विरुद्ध तिब्बतियों के प्रथम विद्रोह का रूप धारण कर लिया। 
 
अब क्या होना चाहिए, इसे जानने के लिए तिब्बत के 'राजकीय देववाणी वक्ता' की सेवा ली गई। उसने दलाई लामा को ल्हासा में ही रहकर चीनियों के साथ बातचीत करने का दो बार परामर्श दिया। तीसरी बार उसने कहा कि दलाई लामा को उसी रात ल्हासा से पलायन कर जाना चाहिए। देववाणी वक्ता ने ही उनके भावी मार्ग का एक खाका भी बनाया। उन्हें अपने नोर्बूलिंगका प्रासाद से निकल कर भारतीय सीमा के पास के अंतिम गांव तक जाना था। 10 मार्च, 1959 वाली उसी रात, दलाई लामा चीनी सैनिकों के पहनावे में, अपने सबसे नज़दीकी रिश्तेदारों और कई मंत्रियों की 20 सदस्यों वाली एक टोली के साथ भारत की तरफ चल पड़े।
 
दुर्गम यात्रा : रास्ता दुर्गम था। ऊंचे-नीचे पहाड़ी इलाके और ब्रह्मपुत्र सहित कई नदियां पार करनी पड़ीं। छिप-छिपाकर प्रायः रातों में ही चलना पड़ता था। 26 मार्च को दलाई लामा 'ल्हुंत्से द्ज़ोंग' नाम की एक जगह पहुंचे। वहां से उन्होंने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र भेजा। पत्र में उन्होंने तिब्बत की हालत का वर्णन किया था और भारत से अपने और अपने साथ के लोगों के लिए शरणदान की याचना की थी। इससे 5 दिन पहले, यानी 21 मार्च, 1959 को बाहरी दुनिया को पता चल गया था कि दलाई लामा ल्हासा में नहीं हैं।
 
उसी समय अमेरिकी गुप्तचर सेवा CIA ने भी प्रधानमंत्री नेहरू को एक तार (टेलीग्राम) भेजा था, जिसमें उनसे अनुरोध किया था कि वे दलाई लामा और उनके साथ के लोगों को भारत में आने दें। चीनियों से त्रस्त तिब्बतियों और CIA के बीच पहले से ही अच्छे संबंध थे। कहा तो यह भी जाता है कि उन दिनों अमेरिका ने आश्वासन दिया था कि दलाई लामा के कारण चीन यदि भारत के विरुद्ध को कार्रवाई करेगा, तो अमेरिका भारत का साथ देगा। 3 साल बाद, 1962 में भारत पर चीनी हमले के समय अमरिका ने भारत का साथ दिया, भले ही वह बहुत जोशीला नहीं था।
 
तवांग हो कर भारत पहुंचे : 31 मार्च, 1959 के दिन दलाई लामा और उनके साथ के लोगों ने  भारत और चीन के बीच की अंग्रेजों द्वारा खींची सीमा 'मैकमहोन लाइन (McMahon line)' को तवांग में पार किया। बाद में उन्हें धर्मशाला में बसाया गया। वहीं आज तिब्बतियों की निर्वासित सरकार और उसका मुख्याल भी है। मैकमहोन लाइन, गुलाम भारत की ब्रिटिश सरकार और उस समय की तिब्बत की सरकार के बीच 1914 के शिमला समझौते में तय हुई थी; चीन उसे स्वीकार नहीं करता।
    
माओ 1959 में यह ख़बर पाते ही आपे से बाहर होने लगे कि दलाई लामा भारत पहुंच गए हैं और नेहरू ने उन्हें शरण देदी है। माओ के लिए इसका अर्थ यह था कि नेहरू ने तो उन्हें धोखा दिया ही, दलाई लामा और उनकी सरकार का अब भारत में रहना उनके, यानी माओ के लिए, एक नया और लंबा सिरदर्द बनेगा।
 
दुनिया के समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में दलाई लामा के पलायन और तिब्बतियों पर हो रहे चीनी अत्याचारों की खूब चर्चा होने लगी। धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार के 1 करोड़ 40 लाख डॉलर के बराबर वार्षिक बजट के लिए उसे भारत व अमेरिका की सरकारों सहित, कई विदेशी  परोपकारी संस्थाओं की तरफ से भी हर सहायता मिलने लगी। लगभग 300 कर्मचारी तिब्बत की निर्वासित सरकार के लिए काम करने लगे। पर, संप्रभुता संबंधी मामलों में निर्णय का अधिकार भारत सरकार के पास ही रहा। इसी कारण, भारत सहित दुनिया के किसी भी देश ने तिब्बत की निर्वासित सरकार को आज तक राजनयिक मान्यता नहीं दी है। 
 
(भाग 2 में पढ़िए : तिब्बत के प्रश्न पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने क्या ग़लतियां कीं, चीन ने 20 अक्टूबर, 1962 को ही भारत पर अकस्मात हमला क्यों किया और दलाई लामा के सामने अब क्या मजबूरियां हैं।)

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