भारत समेत पूरी दुनिया में आखिर क्‍यों सरकारों से नाराज हैं किसान?

नवीन रांगियाल

Farmers Protest Over the world: भारतीय राजनीति और सामाजिक परिवेश में किसानों की बेहद अहम भूमिका रही है। यूं तो किसान अपने खेतों और खिलहानों में व्‍यस्‍त रहते हैं, लेकिन जब बात अपने अधिकारों की हो तो किसानों के आंदोलन सरकारों की चूलें हिला देते हैं।

भारत में भी अब तक कई किसान आंदोलन हुए हैं। फरवरी 2024 में एक बार फिर से किसानों ने अपनी मांगों को लेकर राजधानी दिल्‍ली और हरियाणा के नजदीक सिंघु बॉर्डर, टिकरी और शंभु बॉर्डर पर किसान आंदोलन Farmers Protest 2024 शुरू किया है।

बता दें कि फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की कानूनी गारंटी देने समेत अन्य मांगों को लेकर 2 केंद्रीय नेताओं के साथ बैठक बेनतीजा रहने के बाद पंजाब से किसानों ने मंगलवार को सुबह अपना ‘दिल्ली चलो’ मार्च शुरू किया। मंगलवार को जिस तरह से सरकार और किसानों के बीच गतिरोध देखा गया,उससे जाहिर है ‘दिल्ली चलो’ मार्च भी एक बडे आंदोलन के रूप में उभरा है। सवाल यह है कि आखिर दुनियाभर के किसान अपनी सरकारों से क्‍यों नाराज हैं? 

क्‍यों नाराज हैं Indian Farmers भारतीय किसान : किसानों की मुख्य मांग फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कोई समाधान नहीं निकला। किसानों का कहना है कि हम अपनी मांगों को पूरा करवाकर ही जाएंगे। हम 6 महीने का राशन लेकर आए हैं। सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी, किसानों के कर्ज माफ करना और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करना किसानों की मांगों में शामिल हैं।

फ्रांस France में क्‍यों नाराज हुए किसान : पिछले महीने फ्रांस के किसानों का विरोध प्रदर्शन (Farmers Protest) पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। सैकड़ों किसान सरकार की नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतर आए थे। प्रदर्शनकारियों ने ट्रैक्टरों से चक्का जाम किया। सरकारी कार्यालयों के बाहर बदबूदार कृषि कचरा भी फेंका गया। नाराज प्रदर्शनकारी राजधानी पेरिस के आसपास के ट्रैफिक को ब्लॉक किया। किसानों का यह आंदोलन फ्रांस यूरोपीय संघ का सबसे बड़ा कृषि उत्पादक है और फ्रांसीसी किसानों का विरोध जर्मनी, पोलैंड और रोमानिया जैसे बाकी यूरोपीय देशों में भी फैल रहा है।

कृषि डीजल पर सब्सिडी खत्‍म कर रही सरकार : सरकार ने कृषि क्षेत्र में पर्यायवरण अनुकूल नीतियों को तरजीह दी है। इनमें से एक है ईंधन को कम करने की योजना। इसके तहत सरकार डीजल ईंधन पर किसानों को मिलने वाली सब्सिडी को धीरे-धीरे समाप्त करने की योजना बना रही है। जर्मनी और फ्रांस में इस फैसले का कड़ा विरोध हो रहा है। जर्मनी में कृषि डीजल पर किसानों को मिलने वाली सब्सिडी इस साल 40% कम कर दी जाएगी। इसके बाद 2025 में सब्सिडी 30% कम कर दी जाएगी और 2026 से समाप्त हो जाएगी। सब्सिडी खत्म होती है, तो किसानों की आय और कम हो जाएगी।

उपजाऊ जमीन पर खेती नहीं करने के निर्देश : फ्रांस और कुछ यरोपियन यूनियन के देशों में बायोडायवर्सिटी को बरकरार रखने के लिए किसानों से उनकी उपजाओं जमीन के कुछ हिस्सा पर खेती ना करने के लिए कहा जा रहा है। इन देशों में कृषि योग्य भूमि का 4% हिस्सा गैर-उत्पादक सुविधाओं जैसे हेजेज, ग्रोव्स और फैलो लैंड को समर्पित करना जरूरी है। इस तरह के नियमों से किसानों की उपज में गिरावट आई है।

यूरोपीय देशों में क्रोध में किसान : यूरोपीय देशों में किसान संगठन नाराज (Farmers Protest) चल रहे हैं। किसानों का आरोप है कि उन्हें खेती के लिए अच्छे पैसे नहीं मिल रहे हैं। साथ ही उन पर टैक्स लादे जा रहे हैं। पर्यावरण संबंधी प्रतिबंधों ने उन्हें और परेशान कर दिया है। यूरोप के किसानों की ये भी शिकायत है कि उन्हें विदेश से कड़ी प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ रहा है। खासकर यूक्रेन से आने वाले सस्ते आयात से उनकी परेशानी कई गुना बढ़ गई है। बता दें कि रूस यूक्रेन युद्ध के चलते यूरोपीय देशों ने यूक्रेन से आने वाले कृषि आयात को कई छूट दी हैं, जिससे यूक्रेन समेत अन्य देशों से सस्ती कृषि उपज यूरोप के बाजारों में आ रही है, जिससे स्थानीय किसानों को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है इससे वे नाराज हैं।

क्‍या चाहता है यूक्रेन Ukraine का किसान : रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से यूरोपियन यूनियन ने यूक्रेन से आयात में कई छूट दी है। इसके अलावा निर्यात में मदद करने के लिए यूरोपियन यूनियन ने यूक्रेन के लिए सॉलिडेरिटी लेन की शुरूआत की है! मार्च 2022 और नवंबर 2023 के बीच, 58 मिलियन टन से ज्यादा अनाज, तिलहन और संबंधित उत्पाद इस लेन के माध्यम से यूक्रेन के बाहर निर्यात हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक युद्ध की शुरुआत के बाद से यूक्रेन का लगभग 60% अनाज सॉलिडेरिटी लेन से निर्यात हुआ है। सॉलिडेरिटी लेन से यूक्रेन को तो काफी फायदा मिला, लेकिन इससे यूरोपियन यूनियन में सस्ते अनाज की सप्लाई बढ़ गई। जिससे फ्रांस के बाजार में अनाज का दाम गिर गया। किसानों की मांग है कि आयात होने वाले समान को यूरोपीय संघ के किसानों पर लगाए गए पर्यावरण मानकों को भी नहीं पूरा करना होता।

भारत की आजादी में किसान : Role of indian Farmers in freedom fighting : देश में आजादी के पहले और आजादी के बाद किसानों के कई आंदोलन हुए, जिनसे सरकारें हिल गईं। महात्मा गांधी के आंदोलन की शुरुआत चंपारण के नीलहा किसान और गुजरात के खेड़ा के किसानों की समस्याओं से हुई। बिहार के चंपारण के नीलहा आंदोलन से ही महात्मा गांधी का भारत की आजादी की लड़ाई में पदार्पण भी हुआ। भारत के स्वाधीनता आंदोलन में किसानों का योगदान खास रहा।

भारत के बड़े किसान आंदोलन
भारत 1859 : किसान आंदोलन की शुरुआत
History of Farmers Protest In India: भारत में किसान आंदोलनों की शुरुआत 1859 से हुई। अंग्रेजों की नीतियों से सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी कृषि नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली। वर्ष 1857 के सिपाही विद्रोह विफल होने के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। भारत में जितने भी किसान आंदोलन हुए, उनमें से ज्यादातर अंग्रेजों या फिर देश के हुक्मरानों के खिलाफ हुए।

छापामार आंदोलन : देश में आंदोलनकारी किसानों ने छापामार आंदोलन को तवज्जो दी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को देसी रियासतों की मदद से अंग्रेजों द्वारा कुचलने के बाद विरोध की राख से किसान आंदोलन की ज्वाला धधक उठी। इन्हीं में पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आंदोलन शामिल हैं। 1918 के दौरान गांधी के नेतृत्व में खेड़ा आंदोलन की शुरुआत की गई। 1922 में 'मेड़ता बंधुओं' (कल्याणजी तथा कुंवरजी) के सहयोग से बारदोली आंदोलन शुरू हुआ। इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया। अंग्रेजों की नींव हिलाने वाले आंदोलनों में सबसे ज्‍यादा असरकारी किसानों का आंदोलन नीलहा किसानों का चंपारण सत्याग्रह रहा।

दक्कन किसान आंदोलन : आजादी के पहले का किसानों का यह आंदोलन देश के कई भागों में पसरा। दक्षिण भारत के दक्कन से फैली यह आग महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर समेत देश के कई हिस्सों में फैल गई। इसका एकमात्र कारण किसानों पर साहूकारों का शोषण था। 1874 के दिसंबर में एक सूदखोर कालूराम ने किसान बाबा साहिब देशमुख के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई।

उत्तर प्रदेश : एका आंदोलन : होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा-निर्देश में फरवरी 1918 में उत्तर प्रदेश में 'किसान सभा' का गठन किया गया। 1919 के अंतिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने 'एका आंदोलन' नामक आंदोलन चलाया।

मोपला विद्रोह : केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा 1920 में विद्रोह किया गया। शुरुआत में यह विद्रोह अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ था। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने इस आंदोलन में अपना सहयोग दिया। इस आंदोलन के मुख्य नेता के रूप में अली मुसलियार उभरकर सामने आए। 1920 में इस आंदोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लिया और जल्द ही यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया।

कूका विद्रोह : कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए कूका संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। 1872 में इनके शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। बाद में उन्हें कैद कर रंगून भेज दिया गया, जहां पर 1885 में उनकी मौत हो गई।

रामोसी किसानों का आंदोलन : महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह, आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो 1879 से लेकर 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।

झारखंड : टाना भगत आंदोलन : विभाजित बिहार के झारखंड में भी आजादी के दौरान टाना भगत ने 1914 में आंदोलन की शुरुआत की थी। यह आंदोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध था। इस आंदोलन के मुखिया जतरा टाना भगत थे, जो इस आंदोलन के साथ प्रमुखता से जुड़े थे। मुंडा या मुंडारी आंदोलन की समाप्ति के करीब 13 साल बाद टाना भगत आन्दोलन शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आंदोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए 'पंथ' के निर्माण से जुड़ा आंदोलन था। यह एक तरह से बिरसा मुंडा के आंदोलन का ही विस्तार था।

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