किसी औरत को सताया जाता है तो वो पुरुष के पास जाती है। कोई पुरुष किसी औरत को सताता है तो वो अदालत की शरण लेती है। वहीं, ज्यादातर पुरुष अपने दुख-दर्द के लिए आमतौर पर किसी औरत (अपनी मां, पत्नी, बहन) का आंचल तलाशता है। लेकिन, अगर कोई औरत ही पुरुष के दर्द की वजह बन जाए तो वो कहां जाए? ऐसे मामलों में भारतीय कानून में अदालत के रास्ते भी पुरुष के लिए उतने सहूलियत से भरे नहीं हैं, जितने महिलाओं के लिए हैं। इन कानूनों के दुरुपयोग के कई उदाहरण राष्ट्रीय अखबारों में दर्ज हैं।
ऐसे में सब जगह से थका-हारा और कभी न रोने वाला मर्द मुक्ति चाहता है, जिंदगी के उस ट्रैप से मुक्ति चाहता है, जिस ट्रैप को हल करने के लिए वो दिन- रात लगा रहता है। अपने परिवार में सुख के ग्राफ को कुछ थोड़ा और ऊंचा करने के लिए वो क्या- क्या जतन नहीं करता। एक पिता, एक पति, बेटा और एक भाई की भूमिका के अलावा भी पुरुष की अपनी एक अनजान भूमिका होती है, जिसके बारे में शायद खुद उसका परिवार भी नहीं जानता। उस भूमिका को बगैर किसी के सामने जाहिर किए वो जिये चला जाता है— लेकिन एक दिन ऐसा आता है जब वो अपनी सारी भूमिकाओं से हार जाता है।
अपनी इन्हीं तमाम भूमिकाओं से हारा हुआ आदमी अतुल सुभाष, मानव शर्मा या निशांत त्रिपाठी बन जाता है। उसके पास कोई रास्ता नहीं बचता और वो फांसी का फंदा लगाकर जिंदगी के इस ट्रैप से एग्जिट लेता है।
पिछले कुछ महीनों में अपनी पत्नियों या निकट संबंधियों के सताए ऐसे ही इन तीन पुरुषों ने आत्महत्या की, जिनके नाम अतुल सुभाष, मानव शर्मा या निशांत त्रिपाठी थे। ये तो वे पढे लिखे पति थे, जिन्होंने अपने दर्द की कहानी वीडियो में दर्ज की। ऐसे कितने ही पति या पुरुष होंगे जो जाने से पहले अपनी व्यथा दर्ज नहीं कर सके।
दुखद पहलू यह है कि इस तरह की घरेलू हिंसा या मानसिक हिंसा के मामलों में पतियों (पुरुषों) की आत्महत्या का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। हंसते खेलते नजर आते परिवारों में एक पुरुष अंदर ही अंदर किसी अनजान पीड़ा का दंश झेलता हुआ मौत की गली तक पहुंच रहा है। पीछे छोड़ जाता है दुखी मां-बाप और पिता की मौत का दंश झेलने वाले मासूम बच्चे।
सवाल यह है कि ये जो पुरुष जिंदगी से हारकर मौत को गले लगा रहे हैं, ये कितना साहस से भरा काम है? माना कि कानून की गलियां पुरुष के लिए इतनी सरल और सुविधाजनक नहीं है, माना कि वो जिंदगी की तमाम दुश्वारियों से लड़ और जूझ रहा है, लेकिन क्या आत्महत्या ही उसके पास अंतिम विकल्प है? क्या खुद की आत्महत्या से वो पीछे छूट जाने वाले सभी लोगों की तकलीफों से निजात दिला सकता है? जिंदगी के तमाम कठोर फैसले लेने वाला और कई मुश्किलों को अपने बूते हल कर देने वाले पुरुष के पास क्या इतनी भी ताकत नहीं बचती है कि वो अपने अवसाद से दो मिनट के लिए दूर हो जाए और उस क्षण को टाल दे जो उसकी जान लेने वाला है? इस सारी बातों का दरअसल यही मतलब है कि एक पुरुष की आत्महत्या से कोई स्थाई हल नहीं निकलने वाला। पुरुष को खुद अपनी आत्महत्या के खिलाफ खड़ा होना होगा। वहीं दूसरी तरफ पुरुषों के जीवन की सहभागी बनने वाली महिलाएं हर वक्त अपनी आजादी और फैमिनिज्म की बात नहीं कर सकतीं। वे यहां सिर्फ बधाई लेने नहीं आई हैं।
दुनियाभर से महिला दिवस की बधाई लेने वाली महिलाओं को पुरुषों के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझना होगी। उसे समझना होगा कि इस सामाजिक तानेबाने में पुरुषों की सहभागिता के बगैर उनका अपना भी कोई अस्तित्व नहीं है। अगर महिलाओं को पुरुष दिवस की तारीख याद नहीं रहती तो कम से कम वे पुरुषों को उस संघर्ष की बधाई तो दे ही सकती है जो वो हर दिन कर रहा है।