सार्वजनिक रूप से बोलने वाला कोई भी व्यक्ति, चाहे वह निष्णात वक्ता हो या फिर साधारण वक्ता, एक मंच पर कुछ तैयारी के साथ पहुंचता है। अगर कोई तैयारी के साथ नहीं आया है तो इसका अंतिम परिणाम एक संकट हो सकता है। लेकिन, किसी भी व्यक्ति के लिए उसके अपने जीवन पर खतरे से बड़ा संकट कोई नहीं होता है। ऐसे क्षण में कोई भी प्रतिक्रिया दिमाग की बजाय दिल से निकलती है।
नरेन्द्र मोदी की पाटलिपुत्र रैली में जो बम फटे थे तो वे वास्तव में भीड़ को निशाना बनाने के लिए ही थे, लेकिन वे उन्हें भी निशाना बनाने के लिए थे। उस समय उनकी त्वरित प्रतिक्रिया थी कि उन्होंने दोनों ही, हिंदुओं और मुस्लिमों से एक जबर्दस्त सवाल पूछा था। यह ऐसा सवाल है जो कि हमारे देश के सामने मौजूद प्रमुख चुनौती का महत्वपूर्ण अंग है और इसी में समाधान भी शामिल है। उन्होंने इन दोनों ही महान समुदायों से पूछा कि एक बात चुन लें। वे आपस में ही लड़ते रहें या फिर साथ मिलकर गरीबी जैसे शर्मनाक शाप को मिटाने का काम करें।
इस बात ने प्रत्येक चीज को संदर्भ और प्राथमिकता में ला दिया। हमें अपने देश में शांति एक नितांत बुनियादी जरूरत के तौर पर चाहिए। इसी से हमें अर्थव्यवस्था को बचाने का अवसर मिल सकता है जिसे पिछले दशक में अस्पताल में पहुंचा दिया गया है और यह मरणासन्न होने के करीब पहुंच गई है। आर्थिक वृद्धि का प्रमुख उद्देश्य यही है कि गरीबतम लोगों को उनकी भीषण गरीबी से उबारें। और इसे तभी सबसे अच्छे तरीके से हासिल किया जा सकता है जब जाति, धर्म के अंतरों को तोड़कर प्रत्येक भारतीय दूसरे के हाथ से हाथ मिलाकर काम करे। हम साथ मिलकर काम करें या फिर कोई भी काम नहीं होगा। यह एक समावेशी वृद्धि की प्रभावशाली परिभाषा है। एक समय पर जब मोदी को भावुक होने के लिए माफ किया जा सकता था, वह पूरी तरह से व्यवहारिक, स्पष्ट रूप से केन्द्रित और एक आर्थिक दूरदृष्टि को लागू करके के लिए दृढ़प्रतिज्ञ दिखे।
यह बात हमारे ढांचे से पूरी तरह तालमेल बैठाती है। पिछले वर्ष 15 अगस्त को उन्होंने भाषण दिया था। इसमें उन्होंने कहा कि जनसेवा के क्षेत्र में प्रत्येक का धर्म भारत का संविधान है। सिद्धार्थ मजूमदार ने उनके विचारों को संग्रहीत किया है, जिसे कुछेक सप्ताहों पहले ही जारी किया गया है। उनका यह संग्रह इस वाक्य से शुरू होता है- 'धर्मनिरपेक्षता का मूल यह है कि सभी धर्म कानून के सामने समान हैं।' इसमें जोर दिया गया कि सर्व धर्म समभाव वह दार्शनिक चुम्बक है जिसने भारत को प्राचीन समय से जोड़े रखा है।
लेकिन, ऐसे सिद्धांतों का गुजरात दंगों से कैसे मेल हो सकता है जिसे ढाल बनाकर उन पर हमेशा ही एक जैसे हमले किए जाते रहे हों? दंगों के समय पर मैंने भी किसी अन्य पत्रकार की तरह से सवाल उठाए थे, लेकिन विरोधाभाषी ढंग से इन प्रश्नों के उत्तर यूपीए सरकार के दस वर्षीय कार्यकाल में दिए गए। स्वतंत्रता के बाद किसी एक मुख्यमंत्री के दोष का पता लगाने के लिए इतनी गहन जांच पड़ताल कभी नहीं हुई और मोदी ने इतनी दृढ़ प्रतिज्ञता से यूपीए सरकार की निष्ठावान संस्थाओं की पूरे एक दशक से अधिक समय तक चली जांचों का सामना किया। इन सभी का निशाना मोदी ही थे। कुछ ना कुछ पाने के इस काम में प्रत्येक महत्वपूर्ण सरकारी मशीनरी को मोदी का अपराध खोजने के काम में लगा दिया गया, लेकिन वे कोई दोष नहीं पा सके।
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