‘दिल्ली-जयपुर-आगरा’ जिस प्रकार से ‘गोल्डन ट्राएंगल’ के रूप में पर्यटकों के लिए खास पहचान रखता है, ठीक उसी प्रकार शेख सलीम चिश्ती की फतेहपुर सीकरी स्थित दरगाह, 'ख्वाजा' मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह ‘अजमेर शरीफ’, हजरत निजामुदीन औलिया की नई दिल्ली स्थित दरगाह का ‘सूफी सर्किट’ मुस्लिम धार्मिक यात्रियों के लिए ही नहीं, हर उस आम आदमी के लिए खास महत्व है, जो कि 'उसूलों पर चलने वाले बंदे' के रूप में ‘नेक नियति’ से भरपूर जिंदगी जीने की तमन्ना रखते हैं।
इन तीनों ही स्थानों से इबादत के उस संगीत का खास ताल्लुक है जिसे कि दुनिया ‘सूफी संगीत’ के नाम से अधिक जानती है। अमीर खुसरो के द्वारा 800 साल पूर्व सूफी औलियाओं की दरगाहों से निकलने वाली इस परंपरा की बयार मारवाड़, मेवात और उत्तरप्रदेश के बृज क्षेत्र से सदियों से रची-बसी रही है।
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दो दशक पूर्व तक सूफी संगीत सुनने-सुनाने के मौके तलाशे जाते थे, लेकिन समय के साथ ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब की जमीं पर अब आम जनता के इस संगीत के स्वर धीमे पड़ते जा रहे हैं। शौकीनों के स्थान पर पेशेवरों की पकड़ इस पर मजबूत होती जा रही है। खुली और आम आदमियों के लिए सजने वाली महफिलें चारदीवारी से घिरी छत्तब के नीचे की होकर रह गई है।
पटियाली में भी कम ही जानते हैं खुसरो को : बदले हालातों का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि अमीर खुसरो के एटा स्थित पटियाली कस्बे में शायद ही कभी सूफी संगीत का बड़ा आयोजन होता हो। यही नहीं, स्थिति यह है कि इस शख्सियत के संगीत से हमकदम होने वाले मुंबई, दिल्ली, लाहौर, कोलकाता और ढाका में तो तमाम मिल जाएंगे किंतु आगरा के निकट के ही कस्बे पटियाली (जिला एटा) जन्मस्थान होने के बावजूद खुसरो को जानने वाले कम ही रह गए हैं। सूफी सर्किट में पड़ने वाले बड़े शहरों में जहां परंपरागत आयोजनों का स्वरूप नकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ है, वहीं संख्या में भी भारी कमी आई है।
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पेशेवर आयोजनों का अक्स : यह बात नहीं कि धार्मिक संगीत के प्रति लोगों में लगाव कम हुआ हो या फिर इबादत की इस विधा के प्रति उदासीनता बढ़ी हो। दरअसल पेशेवर आयोजनों के शुरू हुए दौर में कव्वाली, गजल, शायरी के उन कार्यक्रमों की संख्या में तेजी से कमी आई है जिनके कारण इसकी जमीं सदियों से मजबूत होती रही थी।
इबादत के संगीत को जहां पहले मधुर सुर, मार्मिकता और समर्पण का भाव ही पर्याप्त था, वहीं अब सजावट, मंच, गेस्ट और आयोजन के लिए प्रशासनिक अनुमतियां जैसे झमेलों और बढ़े खर्च से नकारात्मक स्थितियां बढ़ी हैं।
‘बड़े मियां’ के नाम से अपने समय के विख्यात एत्मामद-उल-मुल्क जिन्हें अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने ‘तानरस’ के खिताब से सम्मानित किया था, के वारिस नजीर अहमद खान वारसी का कहना है कि गंगा-जमुनी तहजीब सूफी संगीत को जो तासीर देती है, वह अन्यत्र कहां?
सूफी संगीत इबादत का माध्यम है। समय रहते इस पर चांदी की चमक का असर रोकने की कोशिशें शुरू की जाएं। आगरा के प्रख्यात शायर असलम ‘सलीमी’ का कहना है कि सूफी संगीत हमेशा से इंसान के दिल और दिमाग के लिए है, रहीसी-गरीबी और ओहदों के बीच में आ जाने से इसकी रुहानियत पर ही प्रतिकूल असर पड़ा है।
सूफी संगीत को आज की ऊंचाई पर पहुंचाने में अहम भूमिका निर्वाह करने वाले नुसरत फतह अली खान हों या फिर आगरा घराने का नाम रोशन करने वाले उस्ताद विलायत हुसैन खान, उस्ताद यूनस हुसैन खान हों या फिर बॉलीवुड गायक कैलाश खेर हों या फिर राजा हसन हों- सभी का मानना है कि जीवन-यापन के लिए पेशागत मजबूरियां अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं किंतु इबादत के संगीत पर पहला हक उसी बंदे का है जिसके लिए ईश्वर पर विश्वास और आराधना ही जीवन जीने का मुख्य आधार है।