॥ चण्डिकाष्टकम्‌ ॥

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सहस्रचन्द्रनित्दकातिकान्त-चन्द्रिकाचयै-
दिशोऽभिपूरयद् विदूरयद् दुराग्रहं कलेः।
कृतामलाऽवलाकलेवरं वरं भजामहे
महेशमानसाश्रयन्वहो महो महोदयम्‌॥1॥

विशाल-शैलकन्दरान्तराल-वासशालिनीं
त्रिलोकपालिनीं कपालिनी मनोरमामिमाम्‌।
उमामुपासितां सुरैरुपास्महे महेश्वरीं
परां गणेश्वरप्रसू नगेश्वरस्य नन्दिनीम्‌॥2॥

अये महेशि! ते महेन्द्रमुख्यनिर्जराः समे
समानयन्ति मूर्द्धरागत परागमंघ्रिजम्‌।
महाविरागिशंकराऽनुरागिणीं नुरागिणी
स्मरामि चेतसाऽतसीमुमामवाससं नुताम्‌॥3॥

भजेऽमरांगनाकरोच्छलत्सुचाम रोच्चलन्‌
निचोल-लोलकुन्तलां स्वलोक-शोक-नाशिनीम्‌।
अदभ्र-सम्भृतातिसम्भ्रम-प्रभूत-विभ्रम-
प्रवृत-ताण्डव-प्रकाण्ड-पण्डितीकृतेश्वराम्‌॥4॥

अपीह पामरं विधाय चामरं तथाऽमरं
नुपामरं परेशिदृग्‌-विभाविता-वितत्रिके।
प्रवर्तते प्रतोष-रोष-खेलन तव स्वदोष-
मोषहेतवे समृद्धिमेलनं पदन्नाुमः॥5॥

भभूव्‌-भभव्‌-भभव्‌-भभाभितो-विभासि भास्वर-
प्रभाभर-प्रभासिताग-गह्वराधिभासिनीम्‌।
मिलत्तर-ज्वलत्तरोद्वलत्तर-क्षपाकर
प्रमूत-भाभर-प्रभासि-भालपट्टिकां भजे॥6॥

कपोतकम्बु-काम्यकण्ठ-कण्ठयकंकणांगदा-
दिकान्त-काश्चिकाश्चितां कपालिकामिनीमहम्‌।
वरांघ्रिनूपुरध्वनि-प्रवृत्तिसम्भवद् विशेष-
काव्यकल्पकौशलां कपालकुण्डलां भजे॥7॥

भवाभय-प्रभावितद्भवोत्तरप्रभावि भव्य
भूमिभूतिभावन प्रभूतिभावुकं भवे।
भवानि नेति ते भवानि! पादपंकजं भजे
भवन्ति तत्र शत्रुवो न यत्र तद्विभावनम्‌॥8॥

दुर्गाग्रतोऽतिगरिमप्रभवां भवान्या
भव्यामिमां स्तुतिमुमापतिना प्रणीताम्‌।
यः श्रावयेत्‌ सपुरुहूतपुराधिपत्य
भाग्यं लभेत रिपवश्च तृणानि तस्य॥9॥

रामाष्टांक शशांकेऽब्देऽष्टम्यां शुक्लाश्विने गुरौ।
शाक्तश्रीजगदानन्दशर्मण्युपहृता स्तुतिः॥10॥

॥ इति कविपत्युपनामक-श्री उमापतिद्विवेदि-विरचितं चण्डिकाष्टकं सम्पूर्णम्‌ ॥

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