लंबे दौर की बोरियत और 16 मई की बेसब्री

विभूति शर्मा
बुधवार, 7 मई 2014 (11:50 IST)
चुनाव का अंतिम चरण नजदीक है। 16 मई का बेसब्री से इंतजार है। अब लाख टके का सवाल है- मोदी या राहुल! बहुसंख्य जुबानें मोदी नाम बोल रहीं हैं। सोशल साइट्‍स भी मोदी के पक्षधरों से अटी पड़ी हैं। भरोसे की इंतेहा देखिए- राहुल की जुबानी कहा जा रहा है- अच्छे दिन आने वाले हैं, हम नानी के घर जाने वाले हैं।
 
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कांग्रेस ऊपर से कुछ भी कहे, लेकिन अंदर खाने हार मान चुकी है। मोदी लहर के नाम पर भाजपा का बहुमत मिलने का भरोसा लाजिमी है, लेकिन विरोधी पक्ष ने आस नहीं छोड़ी है। अभी भी खबरें आ रही हैं कि किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिलने वाला है। 16 मई से परंपरागत जोड़तोड़ की राजनीति प्रारंभ होगी।

जोड़तोड़ की राजनीति करने वालों के लिए राहुल गांधी का वह बयान एक झटके के समान है, जिसमें उन्होंने कहा कि हमें बहुमत नहीं मिला तो हम विपक्ष में बैठेंगे। किसी को समर्थन नहीं देंगे। इस कथन का एक संदेश यह भी निकाला जा रहा है कि कांग्रेस अब किसी अलते-भलते की सरकार बनवाने के पक्ष में नहीं है। वह यही अपेक्षा करेगी कि 1991 की नरसिंहराव की सरकार की तरह बाकी दल कांग्रेस को समर्थन देकर सरकार बनवाएं। इसके पीछे तर्क यही रहेगा कि अल्पमत की सरकार चलाने का दम सिर्फ कांग्रेस में है। अन्य तो बनती ही गिरने के लिए हैं।

आंकड़ों की बात करें तो 272+ का लक्ष्य लेकर चली भाजपा कथित मोदी लहर के चलते अब 300+ के सपने देखने लगी है। हालांकि अभी भी अंदरखानों में संदेह सांस ले रहे हैं। दूसरी ओर कांग्रेस विपक्ष में बैठने की बात करने लगी है। इस सबके बीच एक नया ख्वाब पनप रहा है तीसरे मोर्चे का, कुछ सर्वे और कुछ कयास तीसरे मोर्चे के घटक दलों को उम्मीद बंधा रहे हैं कि स्थितियां उनके पक्ष में करवट ले सकती हैं। बस उन्हें अपने पुराने जोड़तोड़ के हथियार को आजमाना होगा। उसकी धार अभी से तेज कर ली जाए। इस मोर्चे को कांग्रेस की हार के बाद संप्रग से छिटकने वाले दलों, जिनमें शरद पवार की राकांपा सबसे ऊपर है, से भी काफी आशा है। हालांकि यह ख्वाब शेख चिल्ली के ख्वाब जैसा ही है। क्योंकि भाजपा और कांग्रेस के बिना कोई भी गणित 272+ तक नहीं ले जाता। सारे गणित भाजपा को 200+ बता रहे हैं तो कांग्रेस को 100 के अंदर ला रहे हैं।

इन सारी स्थितियों और कयासों पर ‍विराम तो 16 मई को ही लगेगा। एक बात जरूर है कि इस बार चुनावों ने शुरुआत में जितनी उत्सुकता जगाई थी अंत आते-आते उतनी ही बोरियत भर दी है। चुनावों को इतना लंबा खींचना बड़ा ही उबाऊ हो गया है। दो माह से ज्यादा का समय चुनावों को देना केवल समय की ही बर्बादी नहीं है। एक तरह से देश की गति को रोकने की वजह भी है। आशा की जानी चाहिए की चुनाव आयोग इस चुनाव को भविष्य के लिए एक सीख के रूप में लेगा।

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