आजम खां ने कहा कि देश को तोड़ने वाले तथा धार्मिक वैमनस्यता की खाई को बड़ा करने वाले ऐसे राष्ट्र विरोधी बयानों की केवल निंदा ही नहीं की जानी चाहिए, बल्कि सुधीजनों, धर्मनिरपेक्ष सियासी पार्टियों और देश से प्रेम करने वाले हर बुद्धिजीवी की जिम्मेदारी है कि वे इस पर गंभीरता से विचार भी करें।
इन बयानात से एक सच सामने निकलकर आया है, जो यह पूरी तरह साबित करता है कि भाजपा और फासिस्ट ताकतों का यही एजेंडा है। जो बात नरेन्द्र मोदी खुद नहीं कहना चाहते या कह नहीं सकते तो, उन लोगों से जो उनके हाथ-पैर कहे जाते हैं, उनसे इस प्रकार के बयान दिलवाकर, नया भारत कैसा होगा, यह बताना चाहते हैं। अपने इस छुपे हुए एजेंडे में मोदीजी को काफी हद तक कामयाबी भी मिली है।
फासिस्टों में वह लोग जिन्हें नरेन्द्र मोदीजी की सिखावन है, उनमें से एक कहता है कि मोदी विरोधी पाकिस्तान चले जाएं, तो दूसरे का कहना है कि पाकिस्तान का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा। इन हालात में पूरे देश को यह बताने की और एक सवाल खड़ा करने की आवश्यकता हो गई है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के विरोधियों को जब हिन्दुस्तान में रहने ही नहीं दिया जाएगा और पाकिस्तान का नामोनिशान बाकी नहीं छोड़ा जाएगा, तो वे जाएंगे कहां?
गिरिराजजी ने तो यह भी कह डाला है कि वे आजम ख़ां नहीं हो सकते। उनको यह जानना चाहिए कि नासमझी में ही सही, लेकिन उन्होंने एक जिंदा सच कह दिया है, क्योंकि वह हरगिज आजम ख़ां नहीं हो सकते, और न बन सकते हैं, इसलिए कि राजनीति का इतना लम्बा इतिहास रखने वाले व्यक्ति का, जिसका विधानसभा के सचिवालय के अलावा दुनिया के किसी बैंक में दूसरा व्यक्तिगत एकाउंट नहीं है, जिसके दोस्त तो क्या दुश्मन भी यह जुर्रत नहीं कर सकते कि बेईमानी का एक छोटा सा इल्जाम भी लगा सकें, गिरिराजजी न तो आप खुद उसकी मिसाल बन सकते हैं, न दूसरी कोई मिसाल ढूंढकर ला सकते हैं।
आजम ने कहा कि मेरा 40 साल का बेदाग़ सियासी इतिहास उन तथाकथित देशभक्तों के लिए खुली चुनौती है जो कालाधन विदेशी बैंकों से बाहर लाने का ढोंग तो कर रहे हैं, मगर अपने गिरेबान में मुंह नहीं डालते कि उस धन में उनका खुद का कितना हिस्सा है।
गिरिराजजी के साथ-साथ तमाम फासिस्टों को यह जानना चाहिए कि हम तो आज भी उसी मकान के मालिक हैं जिसमें कभी हमारे पूर्वज रहा करते थे, आज जो लोग हमसे यह कह रहे हैं कि हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान चले जाओ, यही इस मुल्क के गद्दार हैं।
गुजरात के अली असगर जावेरी, जो एक सज्जन और सम्पन्न व्यक्ति हैं, उन्हें अपने ही मकान में घुसने से रोक दिया गया। क्या यही इंसाफ़ है? क्या फासिस्ट ऐसा ही भारत बनाना चाहते हैं जिसमें मालिक मकान के बाहर खड़ा रहे और अपराधी मालिक बनकर अन्दर बैठें। यह दुःखद है कि राजनीति ने धर्म की आड़ ले ली है और दो मजहबों को आमने-सामने खड़ा कर दिया है, लेकिन इसका जिम्मेदार कौन है।
वह भाजपाई नेता जो मुल्क की दूसरी सबसे बड़ी आबादी मुसलमानों को देश से बाहर का दुर्भाग्यपूर्ण रास्ता दिखाने की बात करता है, वह भूल गया कि यही सोच थी, जिसने मुल्क को 1947 में बांटा और यही विचारधारा थी जिसने आजादी के बाद 60 बरसों में देश में नफ़रत पैदा करने, बढ़ाने और भाई को भाई से लड़ाने का काम अंजाम दिया।
कई रोज से चर्चाए हैं और आमतौर पर लोगों का मानना है कि आरएसएस ने फ़िरक़ापरस्त मीडिया के माध्यम से, दौलत के जोर पर, एक ऐसा फ़र्जी माहौल बनाने की कोशिश की है, जिसमें लोग यह महसूस करें कि मौजूदा चुनाव हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आख़री चुनाव है।
आजम खां ने कहा कि आजाद भारत में अपमान सहने वाले लोग अपमान की इस काली चादर को उतार फेंकना चाहते हैं। कारगिल से कन्याकुमारी तक माथे पर लगे हुए इस कलंक को कि वह आईएसआई के एजेंट हैं, देश के गद्दार हैं, पाकिस्तानी हैं, इस कलंक को खुरचकर हमेशा के लिए फेंक देना चाहते हैं। हमें भी क़ुर्बानियों का सिला मिलना चाहिए, मोहब्बतों का जवाब मोहब्बत ही होना चाहिए, इस देश को बचाने और बनाए रखने के लिए इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है।