मोदी सरकार को इन मामलों में काम करने की दरकार

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मोदी सरकार से ऊंची अपेक्षाओं के साथ एक वर्ष पूरा कर लिया है। नीतिगत या अन्य तरह के ठहराव को तोड़ने और जीडीपी विकास दर को 8 प्रतिशत पर ले जाने की धुन में प्रधानमंत्री मोदी लगे हैं कि निवेश में तेजी आए और वे इसके लिए विदेशी दौरों का एक रिकॉर्ड बना रहे हैं। उनकी सरकार का मानना है कि भारत की युवा आबादी को अवसर मुहैया कराने और श्रम बाजार में प्रतिवर्ष शामिल हो रहे 1 करोड़ 20 लाख लोगों को रोजगार देने के लिए यही एकमात्र रास्ता है।
 
इससे न केवल स्थितियों में सुधार होगा, बल्कि ऐसा करके भारत उच्च विकास दर को बनाए रखते हुए महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर सकता है। इसके लिए संस्थाओं और सामाजिक ताने-बाने में नई जान फूंकनी होगी, जो फिलहाल बहुत खराब स्थिति में है। विकास के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताने के लिए सरकार को कुछ ठोस उपाय करने होंगे।
 
विकास संबंधी प्राथमिकताओं को महत्व :  सामाजिक एजेंडे को बढ़ाते समय मोदी सरकार को विकास संबंधी प्राथमिकताओं को महत्व देना होगा। प्रधानमंत्री मोदी जहां कहते हैं कि 'सबका साथ, सबका विकास' लेकिन भाजपा की मातृ संस्था को यह बात रास नहीं आती है। उसका सामाजिक एजेंडा अलग है जिसमें राम मंदिर का निर्माण, लव जिहाद की खिलाफत और देश के लिए नागरिकता का एक आदर्श मापदंड स्थापित करना है। संसद के पिछले शीतकालीन सत्र से यह सबक सीखा जा सकता है कि संघ का सामाजिक एजेंडा सरकार की आर्थिक प्राथमिकताओं को पटरी से उतार सकता है। 
 
संघ परिवार के समर्थकों को मोदी अच्छी तरह समझा सकते हैं कि उन्हें हिन्दुत्व का एजेंडा आगे बढ़ाते समय अनिवार्य रूप से नरम रुख अपनाना होगा। उन्हें याद दिलाना होगा कि इसी एजंडे के कारण दिल्ली विधानसभा चुनावों में करारी हार मिली। विदित है कि दिल्ली चुनाव के दौरान कुछ लोगों द्वारा भड़काए गए सांप्रदायिक तनाव के बीच विकास का मुद्दा पूरी तरह निष्प्रभावी साबित हुआ। 
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ईमानदार-बेइमानों में अंतर करें : मोदी सरकार ने प्रत्यक्ष कर प्रशासन के मामले में आक्रामक रुख नहीं अपनाने का फैसला किया और निवेशकों को भरोसा दिलाया कि ईमानदार लोगों को किसी भी तरह से तंग नहीं किया जाएगा। कर के मामले में ईमानदार और बड़े निवेशकों के बीच अंतर करना होगा। हमें कर चोरी करने वाले और काली कमाई करने वालों के प्रति अनिवार्य रूप से कठोर रुख अपनाना चाहिए, लेकिन ध्यान रहे कि ऐसा करते समय निवेशकों में डर नहीं पैदा हो।  
इस मामले में सरकार प्रत्यक्ष कर कानून की समीक्षा और आयकर अधिकारियों द्वारा पूछताछ के तौर-तरीकों को लेकर कार्य बल गठित कर सकती है। निवेशकों का भरोसा जीतने के लिए यह बहुत जरूरी है। कर विभाग का काम राजनीतिक विरोधियों या कॉर्पोरेट जगत के लोगों को परेशान करना नहीं होना चाहिए।
 
राजनीतिक चंदे के नाम पर कालाधन : सरकार को राजनीतिक चंदे के तौर पर काले धन का इस्तेमाल बंद करने के ठोस उपाय करने चाहिए। सरकार को ऐसे उपाय भी करने चाहिए कि सभी राजनीतिक दल अपने चंदे को लेकर एक पारदर्शी व्यवस्था बनाएं और राजनीति के नाम पर होने वाले भ्रष्टाचार को खत्म करने की पहल की जाए। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में शीर्ष स्तर पर चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले काले धन पर रोक लगाने के उपाय करने होंगे।  
 
तत्काल प्रभाव से राजनीतिक दलों को 20,000 रुपए तक का नकद चंदा देने की छूट को खत्म किया जाए और चंदे की छोटी से छोटी राशि भी चेक से स्वीकार की जाए। इसके अतिरिक्त राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने खातों का कैग द्वारा ऑडिट कराएं। हालांकि ऑडिट कराने के मुद्दे पर सभी दलों का रवैया एक जैसा ही होता है और इसकी बानगी संसद में होने वाली बहस के दौरान देखी जा सकती है जब सभी दल इस तरह की कोशिशों को मिलकर असफल बनाने का प्रयास करते हैं। इसी दौरान सु्प्रीम कोर्ट ने काले धन की निगरानी और जांच के लिए विशेष जांच दल गठित करने का आदेश दिया है।  
 
प्रशासन को जनोन्मुखी बनाया जाए :  सरकार को प्रशासनिक सुधारों के लिए समयबद्ध योजना बनानी चाहिए और इससे संबंधित सुधार आयोगों की सिफारिशों को भी समयबद्ध ढंग से लागू किया जाए ताकि लोगों को भरोसा हो कि जमीनी स्तर पर बदलाव हो रहा है। इस मामले में स्वयं ही दस्तावेजों को प्रमाणित करने की छूट एक अच्छा कदम माना जा सकता है।  
 
हमारी राजनीतिक व्यवस्था के बोझ से प्रशासनिक तंत्र काफी हद तक टूट चुका है और वह समझौते करने को विवश है। वर्तमान प्रशासनिक प्रणाली काफी हद तक सत्ता में रहने वाली राजनीतिक पार्टी के लिए अनुकूल होती है लेकिन यह बात दीर्घकालिक तौर पर राष्ट्रीय हितों और आम लोगों के हितों से प्रतिकूल है।
 
पुलिस सुधार पर कोर्ट के निर्देशों का अमल हो : देश की सबसे बड़ी जरूरत पुलिस सुधारों की है। इन सुधारों की तत्काल आवश्यकता है क्योंकि इन सुधारों के अभाव में पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता और पुलिस का इस्तेमाल प्रभावशाली और संपन्न लोगों के द्वारा किया जाता है। सितंबर 2006 में प्रकाश सिंह बनाम केंद्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो सात दिशा-निर्देश बताए थे उन पर केंद्र सरकार को राज्यों की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए तात्कालिक तौर पर अमल करना चाहिए। 
 
प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि पुलिस बल स्मार्ट बने। इस स्मार्टनेस की अवधारणा में प्रथम अक्षर एस का अर्थ संवेदनशील और सख्त, एम का अर्थ आधुनिक और गतिशील, ए का अर्थ जागरूक और जिम्मेदार, आर का अर्थ जवाबदेह और भरोसेमंद है, जबकि टी का अर्थ तकनीकी रूप से दक्ष होने से है। देश हमेशा के लिए एक ऐसी पुलिस प्रणाली पर निर्भर नहीं रह सकता जो ब्रिटिश राज की मदद के लिए बनाई गई थी।    
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न्यायिक सुधारों की पहल की जरूरत : देश में लगभग 3.13 करोड़ मुकदमे लंबित हैं, जिनके लिए पुलिस सुधारों की तरह से न्यायिक सुधारों की भी दरकार है। यह सभी जानते हैं कि निचली अदालतों में भी भारी भ्रष्टाचार होता है और पैसों के बल पर न्याय खरीद लिया जाता है। इसके साथ ही न्यायालयों में मुकदमों को निपटाने की रफ्तार बहुत ही सुस्त होती है। करोड़ों की संख्या में मामले निचली और मजिस्ट्रेट अदालतों में लंबित हैं। 
 
विदित हो कि सुप्रीम कोर्ट में ही 63,000 मामले लंबित हैं, जबकि उच्च न्यायालयों में 44 लाख मामले हैं। सभी स्तरों पर न्याय में देरी हो रही है। इनमें 50 फीसद से अधिक मामले पांच वर्ष से भी पुराने हैं। लंबित वादों के निपटारे के लिए न्यायालयों में सातों दिन काम किए जाने की आवश्यकता तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएम लोढा़ ने बताई थी। उनका कहना था कि मुकदमों का बोझ कम करने के लिए इससे अच्छा कोई और तरीका नहीं हो सकता है।
 
न्यायाधीशों की नियुक्तियों व स्थानांतरण के लिए कॉलेजियम व्यवस्था के स्थान पर न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक को संसद द्वारा पारित किया गया है। एक नई पहल के तहत आपराधिक मामलों में लिप्त सांसदों-विधायकों के मामले एक वर्ष में निपटाने का सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया। सर्वोच्च न्यायालय में भी न्यायाधीशों की अधिकतम संख्‍या 31 होगी। 
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श्रम सुधारों को अपनाया जाए : श्रम सुधारों से संबंधित एक अहम सुधार के तौर पर आगामी तीन वर्षों में बाल मजदूरी को अनिवार्य रूप से खत्म किया जाना चाहिए। इस लक्ष्य को प्राथमिक शिक्षा की सभी तक पहुंच के माध्यम से हासिल किया जा सकता है, लेकिन उन बच्चों को स्कूलों में लाने के प्रयास किए जाने चाहिए जिनके माता-पिता गरीबी के कारण उन्हें काम करने के लिए दुकानों और अन्य स्‍थानों पर भेजते हैं। वैसे देश में उदारीकरण और सुधारों की पहल के चलते श्रमिकों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी जाती है लेकिन हमें ज्ञात होना चाहिए कि देश में एक बहुत बड़ी श्रम शक्ति है जिसे उसके अनुरूप काम नहीं मिल रहा है।  
लोक स्वास्थ्य सेवाओं की सेहत सुधरे : मोदी सरकार के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा पूरे देश में लोक-स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार का भी होना चाहिए। स्वतंत्रता के इतने लम्बे समय बाद भी देश की ग्रामीण आबादी को स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ नहीं मिल रहा है। केंद्र सरकार को राज्यों के साथ निश्चित समय-सीमा में इस काम को सुनिश्चित करना चाहिए। इसके लिए व्यापक स्तर पर प्रयासों की जरूरत होगी। चिरंजीवी योजना, जननी सुरक्षा और यशस्विनी जैसी योजनाओं को अपनाया जा सकता है।
 
हालांकि मोदी सरकार ने राष्ट्रीय आयुष मिशन को मंजूरी दी है और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत को पोलियोमुक्त देश घोषित किया है, लेकिन इसी के सात देश में कैंसर, मधुमेह और एचआईवी ‍पीडि़त लोगों की संख्या बढ़ी है। देश में एम्स जैसे संस्थान खोलने की योजना बनाई गई है लेकिन जिन स्थानों पर पहले संस्थान बनाए गए हैं उनका कामकाज संतोषजनक नहीं है।
 
मोदी सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वर्ष 2015 में विश्व बैंक के डुइंग बिजनेस सर्वे में भारत अपनी वर्तमान 142वीं रैंक से कम से कम 10 रैंक की उछाल लगाए तभी उनकी सरकार के प्रयास फलीभूत होंगे। हालांकि प्रधानमंत्री ने इस सर्वे में भारत के पहले 50 देशों में शामिल होने की इच्छा जताई है, लेकिन इसके लिए ऐसी औद्योगिक नीति जरूरी है, जिससे प्रक्रियागत लालफीताशाही को समाप्त किया जा सके।
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जनता से सीधा संवाद :  इन सुधारों को लागू करने के लिए प्रधानमंत्री अपनी विश्वसनीयता, सत्ता, लोकप्रियता व संवाद शैली का उपयोग करें। प्रधान मंत्री ने बाल दिवस पर बच्चों के साथ संवाद करके एक महत्वपूर्ण परम्परा को जन्म दिया। बच्चे चूंकि मतदाता  नहीं होते इसलिए नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए उनका खास महत्व भी नहीं होता। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर 'मन की बात' के तहत अपना पक्ष रखा।   
 
अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में रेलकर्मियों के समक्ष रेल सुधार पर उनके विचार प्रशंसनीय थे, जब उन्होंने रेलवे के निजीकरण से इनकार किया था, लेकिन कुछ समय बाद ही समाचार आए कि रेलवे के कुछ भागों का निजीकरण किया जा सकता है।  वास्तव में अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में निजीकरण को ही बढ़ावा दिया जा रहा है। पहले जो काम एक लोककल्याणकारी राज्य के अधिकार में आते थे अब सरकार उन्हें निजी कंपनियों के हवाले कर रही है जिनका पहला लक्ष्य लाभ कमाना होता है, जनता की सेवा करना नहीं।  
 
निजीकरण को बढ़ावा :  इस वित्तीय वर्ष के दौरान सरकार ने हर क्षेत्र में ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए ज्यादातर योजनाओं को मामूली 100 करोड़ रुपए का आवंटन देकर संतुष्ट किया है। क्या यह सब महज खानापूर्ति नहीं है जबकि बजट में कॉरपोरेट जगत और अमीरों को खुश करने के लिए कई घोषणाएं की गईं।  
 
बड़े उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारी व निजी क्षेत्र की भागीदारी यानी पीपीपी को बहुत महत्त्व दिया जा रहा है। व्यापारी वर्ग को लाभ पहुंचाने के हरसंभव प्रयास हुए हैं। निजी क्षेत्र को निवेश के लिए इस विश्वास के साथ तैयार किया गया है कि उन को हर हाल में लाभ होगा। बजट में चुपचाप और बहुत चतुराई से पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाने और आम आदमी को ठेंगा दिखाया गया है। 
 
मोदी सरकार ने अपने बजट में लंबी चौड़ी घोषणाएं की हैं लेकिन उन्हें अमलीजामा पहनाने की राह नहीं सुझाई गई है। क्या सभी कुछ विदेशी निवेश से ही संभव किया जाएगा? किसान, मजदूर, छोटे कारोबारी, बुनकरों आदि निम्न वर्ग को सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ मिलने से रहा। इसी तरह महिलाओं, बुजुर्गों, सैनिकों और कामगार श्रेणी के लोगों के लिए कॉस्मेटिक उपाय किए गए। 
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सामाजिक सरोकार दरकिनार : भारतीय जनता पार्टी, जो महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों को बड़े-बड़े ख्वाब दिखाकर सत्ता में आई है, ने अपने रेल बजट और आम बजट पेश करते हुए कमोबेश वही शैली अपनाई है जिस के सहारे लोगों को चुनाव में आकर्षित किया और सत्ता की कुर्सी तक पहुंची। हाथ में कमंडल और डंडा लेकर अलख जगाने के लिए भगवा पहने बाबा आरामदायक गाडि़यों से संसद तक पहुंच रहे हैं। इन साधु- साध्यिवों का कोई भी सामाजिक सरोकार नहीं है। इनका काम विवादास्पद बयान देना और लोगों के बीच अशांति फैलाना है, लेकिन कथित सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए संसद में बैठे हैं। 
 
कथनी और करनी का अंतर :  बातों से, ख्वाबों से और भाषणों से वोट पाए जा सकते हैं और सत्ता भी हासिल की जा सकती है, पर आर्थिक विकास के लिए योजनाओं, दूरदृष्टि, दिशा-निर्देशों और आर्थिक स्तर पर तार्किक होने की जरूरत पड़ती है जो भाजपा सरकार की नीतियों और इनके क्रियान्वयन में नजर नहीं आती है। सामाजिक विकास की बात करने वाली मोदी  सरकार ने सामाजिक क्षेत्र के उन्नयन के लिए पिछले बजट की तुलना में 96 करोड़ रुपए कम करके सिर्फ 79 करोड़ रुपए का आवंटन किया है।
 
बनारस का हाल :  प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के लोगों को खुश करने का प्रयास किया गया है। यह प्रयास भी व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। गंगा की सफाई के लिए 2,037 करोड़ रुपए दिए गए हैं लेकिन बनारस में उद्योग स्थापित करके लोगों को रोजगार के अवसर देने की कोशिश नहीं हुई है। गंगा की सफाई पर पैसा बहाने की योजना है लेकिन गंगा को मैला करने वाले कारकों से निबटने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है।  
 
डिजिटल इंडिया की योजना :  सरकार ने इंटरनेट की पहुंच हर भारतीय तक बनाने के लिए 5 अरब रुपए की डिजिटल इंडिया योजना बनाई है जिसका सभी स्तर पर स्वागत किया गया है, लेकिन इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता है कि सरकार की अन्य योजनाओं की तरह से इसका हश्र भी उनके जैसा नहीं होगा। वास्तव में, योजना से आम भारतीय की पहुंच इंटरनेट पर भले ही न हो, लेकिन इससे दूरसंचार कंपनियों का जरूर उद्धार हो जाएगा।   
 
विदेशी निवेश पर मेहरबान :  सत्ता में आने के बाद भाजपा ने अपने विदेशी पूंजी के विरोध के सिद्धांत से भी समझौता किया है। सरकार ने रक्षा, बीमा और 8 हजार किलोमीटर सड़क के निर्माण के लिए विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी करने का निर्णय लिया है। हालांकि यह अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र हैं जिनकी परवाह किए बिना विदेशी निवेश को महत्त्व दिया गया है। 
 
तुम करो तो गलत हम करें तो सही बीमा क्षेत्र के लिए भी सरकार ने 49 फीसदी के विदेशी निवेश को मंजूरी दी है। यह उन्हीं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार है जिसने दिसंबर 2012 में मनमोहनसिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार के इस क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ाने की घोषणा का विरोध किया था। मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने ट्वीट किया था, 'कांग्रेस देश को बेचने की योजना बना रही है। यह सरकार देश को विदेशियों के हाथों में सौंपने का उपक्रम कर रही है।' कमाल की बात है कि कांग्रेस अगर विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाती है तो वह देश को बेचती है और खुद मोदी यह काम कर रहे हैं तो यह राष्ट्रसेवा है। 
 
सपनों की दुकान :  मोदी ने 2022 तक सबको आवास उपलब्ध कराने के अपने वादे को पूरा करने के लिए एक मिशन बनाने का ऐलान किया है पर किस गरीब को घर मिलेगा, सरकार यह नहीं बता पा रही है और न यह कि कितने गरीबों के पास छत नहीं है। उन्हें छत उपलब्ध कराने के लिए सालाना कितने घरों का निर्माण होगा और उस पर कितना पैसा खर्च होगा। कहने को तो कांग्रेसी सरकारें भी 1947 से ही घर बनवा रही हैं पर कहां हैं वे घर?
 
सरकार का कार्यकाल 2019 तक है। अगले 5 साल के बाद फिर सत्ता में आए, इस के लिए गरीबों के साथ अभी से भावनात्मक खेल शुरू हो गए हैं। सरकार को मालूम है कि अगले चुनाव में इन्हीं गरीबों का आवास मुद्दा होगा और उनका वोट अपने पक्ष में लाया जा सकता है। बस उन्हें भरोसे में बनाए रखे कि उन्हें एक बना हुआ घर मिलेगा।  
 
प्राथमिकता से सड़कों का निर्माण : सड़कों का जाल बनाना भाजपा सरकार की प्राथमिकताओं में रहा है। पिछली भाजपा सरकार यानी कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के कार्यकाल में सड़क निर्माण को विशेष महत्व दिया गया था, उसी समय पूरे देश में सड़कों का संपर्क बढ़ाने की योजना बनी और इस बार भी सरकार ने उसी योजना को आगे बढ़ाने का काम किया है। 
 
सड़कों के निर्माण के लिए बजट का 50 से 60 फीसदी हिस्सा दिया गया है। ढांचागत विकास तो ठीक है लेकिन बजट का आधा हिस्सा किसी एक क्षेत्र को मिले तो यह जरूर सवाल खड़ा करता है और यही सवाल आने वाले समय में मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकता है। 
 
यह सभी जानते हैं कि सड़क निर्माण क्षेत्र में बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार होता है। ठेकेदार और इंजीनियरों की मौज होती है। ठेकेदार के हल्के गारे-सीमेंट को पैसे के बल पर मजबूती का प्रमाणपत्र मिलता है। हर मंत्री और नेता इसे समझता है, इसलिए आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार ने अपने खाने का जुगाड़ अच्छे से कर लिया है। सड़कें गांव में बनती हैं और उनमें ज्यादा हेराफेरी हुई तो मोदी की लोकप्रियता के समीकरण बिगड़ सकते हैं। 
 
कर्ज और किसान :  किसानों को अल्प ब्याज दर पर कृषि ऋण मिलता है और यदि समय पर किसान ऋण की किस्त का भुगतान करता है तो उसे 3 प्रतिशत की दर से ब्याज पर और छूट देने का प्रावधान है। हर सरकार किसान का ऋण माफ कर जाती है जिस से बैंकों को भारी नुकसान होता है। इससे जो किसान ईमानदारी से ऋण लौटा रहा होता है वह भी बेईमानी पर उतर आता है और ऋण की किस्तों का भुगतान करना बंद कर देता है। 
 
बैंक का पैसा मारा जाता है इसलिए बैंकों के शाखा प्रबंधक ज्यादातर यही कोशिश करते हैं कि किसानों को ऋण न दिया जाए। वे नियमों में बंधे होते हैं इसलिए खुलकर नहीं बोलते लेकिन परदे के पीछे से इस ऋण स्कीम को निष्क्रिय बनाए रखने का प्रयास करते हैं। यहां ईमानदारी भी नहीं है। 
 
बैंकों में फर्जी दस्तावेजों के जरिए फर्जी काम के वास्ते किसान ऋण लेता है और उसे पूरा भुगतान भी नहीं मिलता। आधा पैसा बैंक के संबंधित अधिकारी रिश्वत के रूप में डकार जाते हैं, इसलिए अगर मोदी सरकार के कृषि ऋण आवंटन की सीमा बढ़ा दी है तो इससे किसानों को लाभ होगा ही, कहा नहीं जा सकता।
 
कहीं उजड़ न जाएं गांव :  भाजपा सरकार की 100 स्मार्ट शहरों के विकास की योजना है लेकिन इसके नाम पर सरकार गांवों से ही जमीन को छीनने की पुख्ता व्यवस्था करेगी। पहले विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी एसईजेड बनाए गए थे जिनमें किसानों की जमीनें हड़पी गईं। उदाहरण के लिए, हरियाणा में 10 एसईजेड के विकास के लिए जमीन किसानों से खरीदी गई थी लेकिन अब तक सिर्फ 3 क्षेत्र ही विकसित किए गए हैं। शेष 7 क्षेत्रों की जमीन का इस्तेमाल नहीं हो रहा है, इसलिए इस जमीन को किसान को लौटाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। 
 
मोदी सरकार भी 100 नए शहर बसाने जा रही है। उसके लिए 71 अरब रुपए की राशि आवंटित किए जाने की योजना है। मतलब यह कि गांवों के विकास का सपना दिखाने वाली भाजपा सरकार गांवों को ही उजाड़ने में जुट गई है। सरकार ने गांव से लोगों के पलायन को रोकने की कोई योजना नहीं बनाई है। कहा गया है कि रोजगार के अवसर बनाए जाएंगे लेकिन यह खुलासा नहीं हुआ है कि रोजगार कहां और कैसे बढ़ेंगे? गांवों में रोजगार के अवसर उपलब्ध क्यों नहीं कराए जा रहे हैं? आईआईटी, आईआईएम और एम्स विकसित किए जा रहे हैं लेकिन वहां उनके लिए ढांचागत विकास की सुविधाओं का अभाव है, जिसे दूर नहीं किया जा रहा है।
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